'सुनो,' उसे पुकारती हूँ. वो सुनता नहीं।
हाथ पकड़कर हिलाती हूँ वो ढीठ की तरह वापस बही खाता खोलकर बैठ जाता है.
'सुनो न, चलो धूप में बैठकर चाय पीते हैं' मनुहार करती हूँ.
वो सर खुजाकर देखता है. उसकी आँखों में मेरी बात मानने की इच्छा नज़र आती है. वो घुटनों के बल उठने को होता है कि अचानक उसे कुछ याद आ जाता है.
'अभी रहने दो बहुत काम है' वो अनमने ढंग से कहता है.
मैं नाराज होना चाहती हूँ लेकिन मुझे हंसी आ जाती है. हंसने पर वो रूठता है.
'मजाक उड़ा रही हो?' वो भुनभुनाता है.
'मैं नहीं तुम खुद उड़ा रहे हो मजाक। ये क्या बही खाता खोल रखा है. आखिर सर्दियों की गुनगुनी धूप में साथ चाय पीने से ज्यादा ज़रूरी कौन सा काम है भला?' मैं झूठमूठ का गुस्सा दिखाती हूँ.
'पूरे बरस का हिसाब है मैडम जी। एक एक कर ग्यारह महीने गुजर गए. इन ग्यारह महीनों की जवाबदेही मेरे ही तो सर है.' वो उदास होकर बोला।
'तुम्हें कोई हिसाब नहीं रखना पड़ता ?' उसने पूछा।
'नहीं' मैंने मुस्कुराकर कहा.
बेचारे दिसम्बर को मेरी बात समझ नहीं आई. वो फिर से हिसाब किताब में डूब गया.
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