रात भर
मिसरी की डली
ज़ुबाँ पे घुलती रही
सरकती रही
नसों में दौड़ती-फिरती
सदियों की कड़वाहट
शीरीं एहसासों की तलाश
में भटकती रही
पलकें ख्वाबों की खाली अंजुरी लिए
नींद के गांव में कुछ ढूंढती रहीं
सिरहाने लुढक गयी थी
आलता की शीशी
महावर पैरों तक पहुँचने का रास्ता ढूंढते-ढूंढते
पूरी देह में फिरती रही
एक आस का दिया था
मद्धम-मद्धम जलता
किसी रूमानी झोंके ने शरारत से उसे फूंक दिया
अँधेरे में टकरा कर गिरा दिया
प्यास का पानी भरा गिलास
मैंने खुद
और प्यास देह पर, रूह पर
दौड़ती रही
पूजाघर में देवता कोई नहीं है फिर भी
जाने क्या पूजना है उसे…
मिसरी की डली
ज़ुबाँ पे घुलती रही
सरकती रही
नसों में दौड़ती-फिरती
सदियों की कड़वाहट
शीरीं एहसासों की तलाश
में भटकती रही
पलकें ख्वाबों की खाली अंजुरी लिए
नींद के गांव में कुछ ढूंढती रहीं
सिरहाने लुढक गयी थी
आलता की शीशी
महावर पैरों तक पहुँचने का रास्ता ढूंढते-ढूंढते
पूरी देह में फिरती रही
एक आस का दिया था
मद्धम-मद्धम जलता
किसी रूमानी झोंके ने शरारत से उसे फूंक दिया
अँधेरे में टकरा कर गिरा दिया
प्यास का पानी भरा गिलास
मैंने खुद
और प्यास देह पर, रूह पर
दौड़ती रही
नीर भरी बदलियाँ टंगी रहे आसमानों पर
धरती तपती, रही धधकती रही
इश्क़ मिज़ाजी भी
नियाज़ी भी
मुरौव्वत कोई नहीं
न जीने से न मरने से
जिंदगी की शानों पर
आ टिका कोई आखिरी सा लम्हा
जिंदगी तमाम रास्तों पर भटक के
थक के बैठी तो देखा
धरती तपती, रही धधकती रही
इश्क़ मिज़ाजी भी
नियाज़ी भी
मुरौव्वत कोई नहीं
न जीने से न मरने से
जिंदगी की शानों पर
आ टिका कोई आखिरी सा लम्हा
जिंदगी तमाम रास्तों पर भटक के
थक के बैठी तो देखा
पंच तत्व में हाथों की लकीरों को
डूबते-उतराते
दुनिया में किसी के अरमानों की डोली उठे
बिस्मिल्ला खान की नींद भी
शहनाई सी गूंजती है
इश्क़ के हवन में
राते भस्म होकर भभूत हो गयी थी
महावर देह भर में फैली थी
बस कि पांव खाली ही रहे
डूबते-उतराते
दुनिया में किसी के अरमानों की डोली उठे
बिस्मिल्ला खान की नींद भी
शहनाई सी गूंजती है
इश्क़ के हवन में
राते भस्म होकर भभूत हो गयी थी
महावर देह भर में फैली थी
बस कि पांव खाली ही रहे
हवन की भभूत को पांव का महावर बना
इश्क़ की नवेली दुल्हन मुस्कुराई
इश्क़ की नवेली दुल्हन मुस्कुराई
चल पड़ी सूरज की किरणे तोड़ने
पूजाघर में देवता कोई नहीं है फिर भी
जाने क्या पूजना है उसे…
3 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-05-2015) को "बेटियों को सुशिक्षित करो" (चर्चा अंक-1965) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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प्रेम की इन्तहा ... सुन्दर रचना ...
इश्क़ के हवन में
राते भस्म होकर भभूत हो गयी थी
महावर देह भर में फैली थी
बस कि पांव खाली ही रहे लाजवाब..! इसके बाद कुछ न कहना लाजिमी है.
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