किन्तु ऐसे लम्हे भी होते हैं, जब हम बहुत थक जाते हैं, स्मृतियों से भी...और तब खाली आंखों से बीच का गुजरता हुआ रास्ता ही देखना भला लगता है...शायद क्योंकि बीच का रास्ता हमेशा बीच में ही बना रहता है...स्मृतिहीन और दायित्व की पीड़ा से अलग.'
'स्मृतिहीन और दायित्व की पीड़ा से अलग...' जैसे ही इस पंक्ति को पढ़ चुकी होती हूं कि एयरहोस्टेस पूछती है, ' डू यू नीड एनीथिंग मैम...?' मैं उसकी ड्यूटी पर मुस्तैद मुस्कुराहट का जवाब दिली मुस्कुराहट से देती हूं यह कहते हुए कि ' नो, आई डोंट नीड एनीथिंग, थैंक्स.' ऐसा कहते वक्त मेरे कान मुझे सुन रहे होते हैं और दिमाग झट से व्यंगात्मक सा सवाल करता है, 'रियली, यू डोंट नीड एनीथिंग...?' खुद पर हंसती हूं. मेरे हाथ में है 'चीड़ों पर चांदनी' और मैं स्मृतिविहीन होने और दायित्व की पीड़ा से मुक्ति के बीच कहीं उलझी हूं. एक शहर जो पीछे छूट गया है, एक शहर जो आगे आने वाला है. एक जीवन जो पीछे छूट गया है, एक जीवन जो आगे आने वाला है. यानी मैं ठीक उस जगह पर हूं, जहां स्मृतियां धुंधली और दायित्व का कोई दबाव नहीं. क्या सचमुच ऐसा है...
जीवन का कौन सा ऐसा पल था, जब स्मृतियों ने अपनी गिरफ्त से जरा भी ढीला छोड़ा हो. वो पल जब हम उन्हें जी रहे थे, तब भी तो पता था कि यह अतीत के खाते में दर्ज होगा और स्मृति बनकर डोलता रहेगा हमेशा आसपास. कितने खुशकिस्मत हैं वो लोग, जो स्मृतियों से पल भर को भी मुक्त हो पाते हैं और दायित्व की पीड़ा से भी. उम्र के रास्ते के ठीक बीच में खड़े होकर पीछे देखने के लोभ से कहां मुक्त हो पा रही हूं. न जाने कितने अनमोल लम्हों से भरा अतीत बाहें पसारे हमें पुकारता रहता है. वो अनमोल पल चाहे अवसाद से भरे हों या सुख के स्वाद से लबरेज रहे हों, वो छूटना नहीं चाहते. उन्हीं पलों में से एक पल किसी तिलिस्म सा खुलता है.
मेरे हाथों में किताब खुली है, वो पन्ना भी जहां निर्मल जी ने स्मृतिविहीन दायित्व की पीड़ा से मुक्ति की बात बजरिये वार एण्ड पीस लिखी है. वो लम्हा अचानक कई बरस पहले ले जाता है. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ की खुली हुई छत. देश भर के साहित्यकारों का जमावड़ा और अपने प्रिय लेखकों को करीब से देखने की दीवानगी लिए हम जैसे कुछ छात्र. (सन मुझे याद नहीं हां, इतना जरूर याद है कि राजेन्द्र यादव की कहानी 'हासिल' काफी चर्चा में थी उस समय.) अचानक मेरी चेतना के गुरू (जिन्होंने मुझे जीवन को देखने और समझने की आंख दी) मुझे निर्मल वर्मा के सामने ला खड़ा करते हैं. 'ये प्रतिभा है. असीम संभावनाओं से भरी प्रतिभा. अच्छी कहानियां लिखती है.' इतना सुनना था कि मैं रो पड़ी और मैंने गुस्से में घूरकर अपने गुरूजी की ओर देखा था. मुझसे हमेशा यही कहते रहे कि अभी तुम लिखने की प्रक्रिया में जाने को तैयार हो रही हो. कभी कोई प्रशंसा नहीं की और आज निर्मल वर्मा जैसी शख्सियत से मेरा यूं तार्रूफ कराया. यह मुझे नागवार था. मैं शर्मिन्दगी से भर उठी. मैंने भरी हुई आंखों से निर्मल जी की ओर देखा और कहा, ' नहीं मैं लिखती नहीं, बस पढ़ती हूं.' मैं पैर के अंगूठे से पत्थर की जमीन को कुरेदने की नाकाम कोशिश करते हुए सर झुका लेती हूं. कुछ भी नहीं कह पाती कि मैं आपकी कहानियों से किस कदर प्रभावित हूं...आपसे मिलना कितना दुर्लभ अनुभव है...कितना अच्छा महसूस कर रही हूं...मैं सचमुच ऐसा कुछ भी नहीं कह पाती. लेकिन एक संवेदनशील लेखक अव्यक्त को पकड़ पाने में हमेशा माहिर होता है. उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया मिलाने के लिए. कितना मुलायम हाथ था उनका. 'अगर तुम्हारे गुरू ने तुममें संभावना देखी हैं, तो उन पर यकीन करो. खुद पर न सही.' ऐसा कहते हुए उन्होंने वही हाथ, जो थोड़ी देर पहले मेरे हाथ में था, सर पर रख दिया.
फिर वो दोनों देर तक बात करते रहे. चाय पीते रहे और मैं उस तिकड़ी का हिस्सा बनी रही. वो कितना छोटा सा लम्हा था लेकिन कितना वजन था उसमें. मानो देर तक रियाज में गल्तियां करते जाने के बाद अचानक सही सुर पकड़ में आ गया हो. वो लम्हा स्मृति के उस हिस्से में अब तक वैसे ही सांस ले रहा है.
नहीं, मैं प्राग नहीं जा रही थी लेकिन कहीं तो जा ही रही थी और सफर के ठीक बीच में स्मृति का यह टुकड़ा मेरे करीब आकर बैठ गया. सचमुच इस पल न कोई दायित्वबोध न अतीत की कोई और परछांई बस 'मैं और निर्मल...' हवाई जहाज की खिड़की से बाहर देखती हूं तो चांदनी जहाज के पंखों पर बसेरा बनाये हुए है. सोचती हूं कि जब भी चीड़ों पर चांदनी बरसती होगी, ठीक उसी वक्त वो हमारे कंधों पर, छत पर, शहर पर, पेड़ों पर भी तो बरसती होगी. दिल चाहा कि सारे चीड़ों की चांदनी को झाड़कर अपने आंचल में समेट लूं. तभी निगाह उस बंद किताब पर पड़ी है, जिसे स्मृति यात्रा पर निकलते हुए बंद कर दिया था. 'चीड़ों पर चांदनी' - निर्मल वर्मा
20 comments:
सुन्दर आलेख..
रोचक प्रस्तुति ..
आपके इस उत्कृष्ट लेखन के लिए आभार ।
बेहद उम्दा प्रस्तुति स्मृतियों की।
:-)
Love.
अगर तुम्हारे गुरू ने तुममें संभावना देखी हैं, तो उन पर यकीन करो. खुद पर न सही.'
आपका लेख पढ़ कर निर्मल जी की बात की सत्यता प्रकट हो जाती है...वो सही हैं, आप निसंदेह बहुत अच्छा लिखती हैं...बधाई स्वीकारें
नीरज
वाह बहुत अच्छा लिखा है..
kalamdaan.blogspot.com
सुन्दर रोचक प्रस्तुति ..
स्मृतिहीनता कुछ ढूढ़ने को विवश करती रहती है, जिससे हम संबद्ध हैं, ब्रह्मा की तरह। स्मृतियों को सहज ही सुलझा लेने की समझ ही शान्ति दे पाती है..
स्मृति के चंद टुकड़े यूँ ही बीच बीच में आकर पसर जाते हैं.
बेहद खूबसूरत बयानगी.सच तो कहा था.आपके गुरु ने भी और उस संवेदनशील लेखक ने भी:).
ek khoobsurat yatra...
अभिभूत.....
....mesmerised by the way you have depicted your walking down the memory lane!
मेरी अगड़म-बगड़म को सराहने वालों का शुक्रिया...ये तो बस ऐसे ही खुद से पीछा छुटाने के बहाने हैं.
nice to read u aftr a long time di.
नो, आई डोंट नीड एनीथिंग, थैंक्स.' .....
और कहें भी तो क्या ...मन ठीक ही सवाल करता है ....रियली यू डोंट नीड ????
.....
कितने खुशकिस्मत हैं वो लोग, जो स्मृतियों से पल भर को भी मुक्त हो पाते हैं और दायित्व की पीड़ा से भी.
सच में कुछ लोग होते हैं ऐसे खुशकिस्मत |
बहुत सुंदर लिखा प्रतिभा मैं "वे दिन" से साथ आजकल प्राग में हूं :-)
निर्मल के पाठकों से मिलना अद्भुत अनुभव होता है मैंने कल ही यह पंक्तियाँ पढ़ी, आज वो चीनी कहावत पढ़ी कि किसी लंबे सफर की शुरूआत पहले कदम से होती है। आज गूगल पर चीड़ों पर चांदनी सर्च किया और आपका लेख मिल गया। निर्मल के अद्भुत संसार की एक बार फिर याद दिलाने के लिए शुक्रिया
निर्मल के पाठकों से मिलना अद्भुत अनुभव होता है मैंने कल ही यह पंक्तियाँ पढ़ी, आज वो चीनी कहावत पढ़ी कि किसी लंबे सफर की शुरूआत पहले कदम से होती है। आज गूगल पर चीड़ों पर चांदनी सर्च किया और आपका लेख मिल गया। निर्मल के अद्भुत संसार की एक बार फिर याद दिलाने के लिए शुक्रिया
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