काशीनाथ सिंह-
................. बुड्ढे, जब सारे लोग चले गये और कोई नहीं रह गया, तो शौक साहब बोले, तैने अपने बेटे की कीमत नहीं जानी बुड्ढे! बड़ी कीमती चीज है वो। बोल, कितना लगाएगा उसका मोल।सरकार, बूढ़े ने असमंजस में सड़क पर अपना माथा रख दिया।मैं थक गया हूं और अधिक थूकना मेर बस का नहीं. अब यह काम मेरा बेटा करे तो कैसा रहे? इसी गद्दी पर बैठकर! इसी खिड़की के पास. बूढ़ा उठ खड़ा हुआ. उसका मुंह खुला था और देर तक खुला रहा. वह अविश्वास के साथ खिड़की की ओर देख रहा था. उसने सूर्य को साक्षी करके दोनों हाथ जोड़े और आखें बंद कर लीं, पैर की धूल को चंदन बनाने वाले परवरदिगार ऐसा न करें, नहीं तो मैं पागल हो जाऊंगा, मारे खुशी के मर जाऊंगा...जब उसने आंखें खोलीं, तो उसकी आंखों में आंसू थे. उसने बेचैनी से बेहाल होकर कहा, सरकार आपने अभी-अभी कहा, उसे भूल तो न जाएंगे?
बुड्ढे शौक जो कहता है, उसे कभी नहीं भूलता।अपनी बात से मुकर तो नहीं जाएंगे?बुड्ढे, शौक की बात उसके मुंह से निकली हुई पीक की तरह होती है, जो वापस नहीं लौटती। बुड्ढे की खुशी का ठिकाना न था, लेकिन उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। बेटा आने में देर कर रहा था। अब तक उसे लेकर न हाथी लौटे थ, न घोड़े, न बग्घी उसे खुद पता नहीं था, वरना दौड़ा हुआ गया होता और पकड़ लाया होता।सरकार, उसने अनुरोध किया, अगर इ$जाजत दें तो मैं खुद देखूं।नहीं, तू यहंा से नहीं हिल सकता, शौक साहब ने दृढ़ता से कहा।
बूढ़ा सिर झुकाकर सोचने लगा कि उसका बेटा जो बड़ा ही बेकहा और जिद्दी था, कहां-कहां जा सकता है। ठीक इसी समय जाने कहां से उसके मन में एक संदेह पैदा हुआ।लेकिन हुजूर, वह नीच जात...दूसरों पर थूकना उसे कैसे सोभेगा? उसने शौक साहब से अर्ज किया।क्योंउसी के भाई-बंद यह कैसे बर्दाश्त करेंगे?जैसे मुझे करते हैं।बूढ़ा हंसा. आपकी बात और है सरकार.मतलब यह कि किसी और पर थूकने से पहले अपने बाप पर थूके, तो दूसरों को क्या ऐतराज? क्यों न मुझी पर थूकने से शुरू करें?बूढ़े का जी धक से रह गया. वह घबरा उठा. अनर्थ हो जाएगा सरकार. वह जान दे देगा, लेकिन यह नहीं करेगा.
वह क्या करेगा, क्या नहीं करेगा, यह मुझ पर छोड़। शौक साहब ने उसे डंाटकर तुरंत चुप कर दिया।शौक साहब अब कुछ भी सुनने को तैयार नहीं लग रहे थे, वे आश्वस्त हो गए थे और बड़ी तेजी से उनका मूड बदल रहा था। वे कुछ गुनगुना रहे थे और जांघ पर ताल दे रहे थे। जाने कितने दिनों के बाद जाकर काम-धाम से फुरसत मिली थी उन्हें।उन्होंने जमुहाई ली और मुंह के आगे चिटकियां बजाईं।क्या करें कि दिन कटे? यह बात उनके भीतर उठने लगी थी। उन्होंने बाहर देखा न लोग थे, न गरियाना था, न रोना था, न घिघियाना था। पान से लाल सड़क पर जानलेवा सन्नाटा था और इससे वक्त नहीं कट सकता था. उन्होंने अपना सिर खुजलाया और तब तक खुजलाते रहे, जब तक हाथ दर्द नहीं करने लगा. फिर पीठ खुजलाई, फिर हाथों की उंगलियां चटकाईं, फिर दंात खोदे और खोदते रहे. अंत में शीशा उठाकर जब चेहरा देख रहे थे, तो कोठे के दिन याद आने लगे. खासतौर से बेला की हाय-हाय. क्या गला पाया था और क्या तरन्नुम था और क्या लोच था.एक बार फिर सोचें हुजूर, यह उस पर भी जुल्म होगा और मुझ पर भी. हम किसे मुंह दिखाएंगे? बूढ़े से रहा न गया, उसने फरियाद की.शौक साहब झल्ला उठे. उन्हें गुस्सा आ गया.बेवकूफ बुड्ढे! भाग सराह अपना कि तेरा बेटा, जो तेरे ख्याल से आवारा और निकम्मा है, तुझे वह सारा कुछ मुहैय्या कराने आ रहा है, जिनके लिए हर बाप झंखा करता है, समझा? कहकर बड़ी मोहब्बत से उन्होंने नीचे झांका और थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले, देख दिमाग मत चाट, जिंदगी के मजे ले. जब बड़े आदमी की सोहबत की है तो ऐश कर. बोल, तू क्या सुनेगा-ठुमरी या दादरा? वैसे मौसम चैता का है. अहा-हा केहि ठैयां झुलनी हेरानी हो रामा... शौक साहब ने आंचों बंद कीं और गुनगुनाना शुरू किया. थोड़ी देर बाद ही रुक गए और अंदर किसी को आवाज दी, अरे कौन है उधर? बेला बाई को भेज तो!अपने कानों में बूढ़े ने उंगलियां घुसेड़ ं. उसका माथा चकराने लगा. अगर चोबदारों ने उसे सहारा न दिया होता, तो वह भहरा पड़ा होगा. उसके दिमाग में इतना तो आ रहा था कि सरकार सही कह रहे हैं. वह पका आम, जाने कब चू जाए. अब कै दिन की जिंदगानी है उसकी? लोग बाल-बच्चों के लिए ही जीते हैं और यहां बेटे को राज मिल रहा है और वह भी अपने आप. दुनिया उसे हुजूर मालिक सरकार कहा करेगी और थुकवाने के लिए तरसती रहेगी, लेकिन मन कह रहा था कि ऐसे जीने से तो मर जाना अच्छा. वह भी क्या बाप, जिस पर बेटा थूके.सहसा जाने कहां से शायद उसकी अंतरात्मा से आवाज आई कि लाख ढूंढो, वह नहीं मिलेगा.उसे गुदगुदी जैसी महसूस हुई और उसने ऊपर ताका.ग्रामोफोन का रेकॉर्ड पूरे सुर में बज रहा था और खिड़की पर बैठे-बैठे शौक साहब झूम रहे थे।
सरकार, अगर वह न आए तो? बूढ़े ने खुशी में चिल्लाकर पूछा?शौक साहब का ध्यान टूटा। उन्होंने नाक-भौं सिकोड़ी। उन्हें यह खटराग बड़ा ही बेसुरा लगा, फिर भी उन्होंने जब्ती से काम लिया, अबे उल्लू के पट्ठे, उसे बुला कौन रहा है? वह लाया जा रहा है।लेकिन वह न मिले तो?बूढ़स उसी रौ में चिल्लाया।शौक साहब ने बेला बाई या जो भी रही हों, उन्हें थोड़ी देर के लिए चुप कराया और गुस्से से बूढ़े को देखा। बूढ़ा सड़क के बीचोबीच खड़ा मिचमिचाती आंखों से मुंह बाए उनकी ओर ताक रहा था. उसके हाथ जुड़े थे और कांप रहे थे. अगल-बगल चोबदार उसकी बांह पकड़े हुए उसे दुत्कार रहे थे. गुस्से में तो बहुत थे शौक साहब, लेकिन उन्हें दया आ गईं. इधर चैता ने भी उनके दिल को कोमलता और उदारता से भर दिया था. वे विनोद में मुस्कुरा उठे, भांड़ों और लौंडों के नाच के रसिया बुड्ढे, तुझे मुजरे का मजा क्या मालूम? तभी तंग जूती की तरह बीच-बीच में काट रहा है. अच्छा, अब सारी बातों का लुब्बे-लुबाब सुन ले और यह हाय-हाय बंद कर दे. रियायत नहीं चलेगी यहां. अगर तूने थूकने वाले को बेटा जानकर गालियां देने में, रोने में, गिड़गिड़ाने में कोताही की, चूक की, तो याद रख. एक बार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार नहीं वह तक तक थूकता जाएगा, जब तक हमें संतोष न हो. बस...हां, तो बेला रानी अब शुरू कर.ग्रामोफोन की आवाज फिर खिड़की से बाहर आई और धूप में बल खाने लगी.शौक साहब ताल ही नहीं दे रहे थे, समय-समय पर सुर में सुर भी मिला रहे थे.बूढ़े ने ऊंची आवाज में फिर कुछ कहा, लेकिन खुद नहीं सुन सका कि क्या कह रहा है्वह पालथी मारकर वहीं सड़क पर बैठ गया.
शौक साहब इंत$जार कर रहे थे आने का। बूढ़ा इंत$जार कर रहा था न आने का.यह पहला दिन था. चार दिन और बाकी थे.शौक साहब के नाम पर बने नगर के इस चौराहे पर, जिसे लो शौक न कहकर चौक कहते हैं, साल में एक बार बिरहा-दंगल होता है. जिसमें बिरहा गाने वाली दोनों पार्टियां आपस में सवाल जवाब करती हैं. हालांकि हर कोई जानता है कि छठे रोज क्या हुआ था फिर भी बिरहियों की आखिरी लडंत होती है भोर में जिसके फैसले का दारोमदार इन सवालों के जवाब पर होता है कि नौजवान मिला या नहीं, गद्दी पर बैठने के लिए कहा गया, तो बैठा या नहीं, अपने बाप पर थूका या नहीं. थूका तो बाप ने कुछ किया या नहीं?इसमें संदेह नहीं कि जवाब तो अच्छे-से-अच्छे दिए जाते हैं, मगर सुनने वालों का मन नहीं भरता.
समाप्त....