Saturday, October 3, 2020

धरती से क्या सीखते हैं पेड़

अगर शब्दों को खंगालते हुए उँगलियाँ आंसुओं से सनी गीली मिट्टी से टकरा जाएँ या जड़ों में उलझ जाए अंगूठी तो समझ लेना चाहिए कि लेखक ने बड़े सुभीते से बोये थे बीज. उदासी के बादलों ने ठीकठाक बारिश की और उम्मीद की धूप ने अच्छे से सहेजा शब्द बीजों को. कि पाठकों के दिल में उतरने की उनके जेहन को उथल पुथल से भर देने में समर्थ होगी यह फसल और कुछ हद तक मिटा पाएगी ज़ेहनी भूख.

बिलकुल ऐसा ही महसूस हो रहा है इन दिनों 'सवालों की किताब' से गुजरते हुए. पन्ना दर पन्ना सवाल खुलते हैं, खुलते ही जाते हैं. पाब्लो नेरुदा को पढना यूँ भला किसी अच्छा न लगता होगा लेकिन उनका यह सवालिया ढब अलग ही ढंग से असर करता है. दिल के, ज़ेहन के तमाम कोनों की तलाशी लेती ये कवितायें हमारे भीतर के जन्मे-अजन्मे तमाम सवालों को सामने लाकर पटक देती हैं...और हम खुद को खाली होता महसूस करते हैं...

किताब गार्गी प्रकाशन से आई है और सुंदर अनुवाद किया है रेयाज-उल-हक ने. किताब के कुछ अंश- 

बारिश में भीगती हुई ट्रेन से भी उदास 
क्या कुछ है इस दुनिया में?

पत्तियां जब पीला महसूस करती हैं 
तब क्यों कर लेती हैं वो खुदकुशी?

जो आंसू अभी बहे न हों 
क्या वे एक छोटी सी झील का इंतजार करते हैं?

क्या यह सच है कि मंडराता है रातों में 
मेरे मुल्क पर एक काला गिध्ध?

शायद शर्म से मर जाती होंगी 
अपनी राह भूल गयी रेलें?

क्या ये सच है कि उदासी गाढ़ी होती है 
और नाउम्मीदी पतली?

धरती से क्या सीखते हैं पेड़ 
कि कर सकें आसमान से बातें?

कौन है सबसे ज्यादा बदनसीब, जो इंतजार करता है 
या जिसने नहीं किया कभी किसी का इंतजार?

किन सितारों से बातें करती हैं वो नदिया 
जो नहीं पहुँच पातीं समन्दर तक? 

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-10-2020) को     "एहसास के गुँचे"  (चर्चा अंक - 3844)    पर भी होगी। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
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कविता रावत said...

पत्तियां जब पीला महसूस करती हैं
तब क्यों कर लेती हैं वो खुदकुशी?
कौन है सबसे ज्यादा बदनसीब, जो इंतजार करता है
या जिसने नहीं किया कभी किसी का इंतजार?
....बहुत अच्छी प्रस्तुति

Onkar said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति