Saturday, December 31, 2016

चलो चलें जिंदगी की ओर...


सुनो, 

जब पास से गुजरे शोर का सैलाब तुम कानों को बंद कर निकल जाना किसी जंगल की ओर. बोलने से बचना प्रिय कि बोलना महसूसने के आड़े ही आता है हर बार. सुनना तुम चुपचाप, पत्तियों पर झरती ओस की पदचाप। साँसों में भर लेना समूचा हरा और जबान पे पिघलने देना कुहरीली रातों का स्वाद।

किसी खेत की मेड पे रख देना खुद को मिलने देना जिंदगी का सुर सांस लेने से. जाती हुई घोड़ागाड़ी पर लपक के चढ़ जाना, घोड़े की टापों की आवाज के बुँदे पहन लेना हंसना जी भर के,
और रो भी लेना जब जी चाहे।

बच्चों की खिलखिलाहटों को जोर से लपेट लेना, जिंदगी के हर लम्हे को सीने से लगा लेना कि नया और कुछ भी नहीं सिवाय हमारी महसूसने की शिद्दत के. ढूंढते फिरते हो जो जिंदगी उम्र भर यहाँ वहां, वो वहीँ है एक कड़क चाय में. हथेलियों पे बैठे मौसम में.गलबहियां डाले स्कूल जाते बच्चों को देखने में, खेतों में आगे जाते-जाते मुड़कर देखती कमसिन मुस्कान में...

Monday, December 26, 2016

बर्फीले रास्तों में तुम्हारी याद का जादू...



इजाडोरा डंकन का नाम है, जरा संभल के लेना, सांसें अपनी संभाल के रखना. ये वही इज़ाडोरा है जिसके नृत्य ने न सिर्फ यूरोप बल्कि समूची दुनिया की साँसों को अपनी भंगिमाओं में कैद कर लिया था. १८ वीं सदी की इस अमेरिकन डांसर की समूची दुनिया दीवानी थी. इजाडोरा के नृत्य की अपनी ही शैली थी जिसके ज़रिये वो अपने चाहने वालों के दिलों पर राज़ किया करती थी. वो जब स्टेज पर होती थी तो किसी की तरफ नहीं देखती थी...वो खुद में गुम होती थी और नृत्य को जी रही होती थी. लेकिन एक रोज़ १९०४ की बात है जब वो बर्लिन में एक परफोर्मेंस दे रही थी उसकी नजर जा टकराई गार्डन क्रेग Gordon Craig से. वो कमाल का थियेटर आर्टिस्ट था और मशहूर अभिनेत्री एलन टेरी Ellen Terry का बेटा था. गार्डन ने अपने संस्मरण में इस परफौर्मेन्स का जिक्र करते हुए कहा था कि उसे देखते हुए वो किस तरह सुध-बुध खो बैठा था. परफोर्मेंस के बाद दोनों की मुलाकात ड्रेसिंग रूम में हुई. इस मुलाकात के बाद का एक ख़त आइये पढ़ते हैं जो इज़ा ने क्रेग को लिखा था. क्रिसमस वाले दिन..

क्रिसमस डे 1904/सेंट पीट्सबर्ग            
ग्रैंड होटल, द यूरोप

मेरे प्यारे,

भी-अभी सुबह यहाँ पहुंची हूँ....क्रिसमस की सुबह
मुझे यह अकेला कमरा, बिलकुल पसंद नहीं. ऐसा लग रहा है कि यहाँ की सारी कुर्सियां मुझे घूर रही हैं, डरा रही हैं. यह बिलकुल भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ मेरे जैसा कोई खुश दिल वाला व्यक्ति रह सके. यह जगह उपन्यासों के ऐसे कोनों की मानिंद लगती है जहाँ अकसर घटनाएँ रहस्यमय तरह से आकार लेती हैं.

सारी रात ट्रेन सिर्फ पटरियों पर नहीं दौड़ रही थी बल्कि वो बर्फ के विशाल मैदानों से गुजर रही थी...खूबसूरत देश जो बर्फ की चादर ओढ़े खड़े थे उनके बीच से ट्रेन का गुजरना अद्भुत मंजर था...(इन सुन्दर द्रश्यों के बारे में वाल्ट विटमैन पहले ही कितना प्यारा लिख चुके हैं.) और इन सबके बीच चमकता हुआ चाँद. खिड़की के बाहर जैसे सुनहरी किरणों की बारिश हो रही हो...इस तरह सफ़र में होना, इन द्रश्यों से गुजरना, इन्हें महसूस करना कितना सुखद था.

मैं लगातार बाहर देख रही थी और तुम्हारे बारे में सोच रही थी. तुम जो मुझे सबसे ज्यादा अज़ीज़ हो, मेरे बेहद करीब हो. जानते हो क्रेग, मैं सारे रस्ते तुम्हें याद करती रही और कुदरत के मार्फत तुम तक अपने प्रेम के एहसास भेजती रही, उम्मीद है तुम्हें मिले होंगे...

अब मुझे जाना चाहिए, अपनी आँखों का काजल धो लेना चाहिए...और नाश्ता करना चाहिए. है न?

मेरा प्यार देना उस गली को जिसमें तुम्हारा घर है, गली नम्बर ११, और मेरा प्यार देना अपने प्यारे घर को, वही मकान नम्बर ६. और मेरा प्यार देना तुम अपने आपको भी...मेरा प्यार किस तरह छलक रहा है,कितना नाटकीय और ओल्ड फैशन लग रहा है न इस तरह से प्यार का इज़हार करना...पर प्यार है तो है...

मुझे ख़त लिखना...अब मैं नहाने जाती हूँ...

तुम्हारी
इज़ाडोरा

Sunday, December 18, 2016

तुम्हारी याद स्थगित है इन दिनों...



सुनो, अब मुझे तुम्हारी याद नहीं आती
न, ज़रा भी नहीं

अब मेरी पलकों में
याद की कोई बदली नहीं अटकी रहती
न भीतर मचलता है
रोकी हुई सिसकियों का कोई तूफ़ान
मुस्कुराती हूँ जी भर के
और तुम्हारी याद को कहती हूँ, 'फिर कभी'

अब मैं फूलों की पंखुरियों में
तुम्हारा चेहरा नहीं तलाशती
न ही हवाओं की सरगोशियों में
तुम्हारी छुअन को महसूस करती हूँ
अब मैं परिंदों को नहीं सुनाती
तुम्हारे और मेरे प्यार के किस्से
उन लम्हों की दास्ताँ
जो हमने साथ जिए थे

अब बारिशों को देख
तुम्हारे साथ भीगे पलों को याद नहीं करती
न दिसम्बर की सर्द रातों में
तुम्हारी हथेलियों की गर्माहट याद करती हूँ

सुनो, अब मुझे तुम्हारी याद नहीं आती
जरा भी नहीं

रसोई में कुछ भी बनाते समय
अब नहीं सोचती तुम्हारी प्रिय चीज़ों के बारे में
न घर से निकलने से पहले
चुनती हूँ तुम्हारी पसंद के रंग
मौसम कोई भी हो,
तुम्हारा यह कहना कभी याद नहीं करती
कि 'सारे मौसम तुम ही तो हो...
प्रेम की आंच में धधकती गर्मियां हों,
बौराया बसंत, या शरारती शरद..'

देखो न, मैने कितनी आसानी से तुम्हारी याद को
चाँद की खूँटी पे टांग दिया है

तुम कहते थे 'सिर्फ याद न किया करो
कुछ काम भी किया करो.'
तो अब काम करती हूँ हर वक़्त
कि तुम्हें याद करने का काम स्थगित है इन दिनों

मुझे सब पता है देश दुनिया के बारे में
पड़ोस वाली आंटी की बेटे के विवाहेतर सम्बंध से लेकर
भारत में नोटबंदी और
अमेरिका में ट्रम्प की जीत तक के बारे में
मुझे सब्जियों के दाम पता हैं आजकल
सच कहती हूँ, इन सबके बीच तुम्हारी याद कहीं नहीं

हालाँकि घर से ऑफिस और ऑफिस से घर के बीच
किसी भी मोड़ पे तुम्हारा चेहरा दिख जाना
मुसलसल जारी है
फिर भी मैं तुम्हें याद नहीं करती...

जिन रास्तों ने पलकों से छलकती तुम्हारी याद को सहेजा था
वो अब मुझे देखकर मुस्कुराते हैं
उनकी चौड़ी हथेलियों पर मुस्कुराहट रख देती हूँ
जाने कैसे वो मुस्कुराहट तुम्हारा चेहरा बन जाती है
मैं तो तुम्हें दिन के किसी भी लम्हे में याद नहीं करती
फिर भी...



Friday, December 16, 2016

चाँद बेचारे को कॉफ़ी नहीं मिलेगी..


एक पूरा और चमकता हुआ चाँद कर भी क्या लेगा, तब जबकि आपके सामने दो कप हों कॉफ़ी से भरे हुए और आपके पास चाँद को देखने की फुर्सत ही न हो. दोनों कपों से बारी-बारी से कॉफ़ी पीने के बाद भीतर का खालीपन मुस्कुराता है...यूँ खाली होने को जी कब से बेचैन था. एक ऐसा निस्सीम खालीपन जिसमें कोई मिलावट न हो. न सुख की, न दुःख की, न व्यस्तता की, न कुछ छूट जाने की खलिश की, न पुकार कोई, न इंतजार, न उलाहना, न अतिरेक से भरा कोई लम्हा. कप से छलकती कॉफ़ी मुस्कुराकर ताकीद करती है, तुम मत छलकना, तुम डूबते जाना, और गहरे...और गहरे...

बाद मुद्दत हथेलियाँ खाली हैं, बाद मुद्दत माथे पे सलवट कोई नहीं...शब्द ख़ामोशी के साथ सुरमई शामों के कांधों से टिककर बुझे हुए सूरज की आंच टटोल रहे हैं...वो अब अर्थ नहीं तलाशते. जानते हैं...अर्थ से भर दिए गये शब्द जबरन भावनाओं से भर दिए गये इंसानों जैसे होते हैं. जबरन अर्थ का बोझ ढोते शब्दों के कंधे झुक चुके थे, बिलकुल जबरन ठूंस दी गयी भावनाओं से झुके इंसानों की तरह. इंसान भले ही न झटक पाए हों भावनाओं का बोझ लेकिन शब्द ये सलीका सीख गए हैं. वो मुक्त हो गए हैं...

कोई भी शब्द तोड़ लो किसी भी भाषा के वृक्ष से, कोई फर्क नहीं पड़ेगा उसे कहीं भी रख दो, कैसे भी...रुदन को हटाकर हंसी रख दो,...दिन को हटाकर रात रख दो...कोई फर्क नहीं पड़ेगा...सिवाय इसके कि सूरज रात को चमकने लगेगा और चाँद दिन को खिलखिलाने लगेगा...

जब भीतर इतना खालीपन हो तो आसपास का शोर बाधा नहीं बनता, वो महकने लगता है, लोग बोल रहे होते हैं, हम सुन नहीं देख रहे होते हैं...उनके बोले को नहीं, उन्हें नहीं अपने भीतर के खालीपन को...कित्ती शिद्दत से तलाश थी इस होने की...कब तक रहेगा पता नहीं..बस कि जो है उसे जी रही हूँ...खुली हथेलियाँ आसमान को सौंप रखी हैं...लकीरों से खाली हथेलियाँ...

सुना है मेरे शहर को कुदरत ने कोहरे की चुनर से ढँक लिया है...मैं देर रात कोहरे की उस खुशबू को महसूस करती हूँ...सोए हुए शहर की चादर उठाकर धीरे से उसमें आँख मूंदकर लेट जाने की आदत..ऊंघते शहर में वो बेसब्र जागती आँखें...सब याद आता है...

पहाड़ों पर कोहरा नहीं, खिलखिलाती धूप है...खुली धुली सी रात है...इन ठन्डी रातों में दूर तक पैदल चलते जाने का लोभ मैं कभी नहीं छोड़ पाती...यूँ बरसती रातों में घूमते-फिरने का लोभ भी कब छोड़ पायी हूँ...जाने क्यों लोभी होना बुरा कहा गया होगा, मैंने जब लोभ शब्द उठाया तो बड़ा मीठा लगा मुझे...बिलकुल उसी तरह जैसे मीठा लग रहा है इस वक़्त का खाली मन...बाद मुद्दत सुकून है...चाँद बेचारा दूसरे कॉफ़ी के कप को लालच से देख रहा है...मैं उसे मुंह चिढाकर कॉफ़ी खत्म कर देती हूँ...रात के सीने में खूब रौशनी है...


Friday, December 2, 2016

प्रार्थनाएं हमेशा एकांत मांगती हैं- ब्रिटनी स्पियर्स


आज 2 दिसम्बर को ब्रिटनी स्पियर्स का जन्मदिन है. 1981 को जन्मी ब्रिटनी स्पीयर्स को हम एक पॉप सिंगर, अभिनेत्री और डांसर के रूप में तो जानते ही हैं. पिछले दिनों टाइम मैगजीन में प्रकाशित उनका एक ख़त मिला जो उन्होंने अपने बच्चों ज्यादे और प्रेस्टन को लिखा था. यह ख़त बहुत पुराना नहीं है, लेकिन इसमें कुछ है जो एक स्थापित व्यक्तित्व को अलग ढंग से देखने, महसूसने की सलाहियत देता है- प्रतिभा 

4 मई 2016
प्यारे ज्यादें और प्रेस्टन,

तुम दोनों मेरी सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ हो. उस दिन जब मैंने तुम्हारी मासूम, पवित्र प्यारी आँखों को पहली बार देखा था तबसे मैं चमत्कारों पर यकीन करने लगी. ओह, कितना खूब्सूरत तोहफा ईश्वर ने मुझे दिया है. तुम्हारी प्यारी मासूम दुनिया में शामिल होकर मुझे हर रोज़ यह एहसास होता है. मैं एक माँ के तौर पर तुम्हारे लिए प्रार्थना करती हूँ कि ईश्वर तुम्हें दुनिया के तमाम संघर्षों का सामना करने की शक्ति और इच्छा प्रदान करें.

तुम्हें पता है मेरे बच्चों, ईश्वर हमारे पास दबे पांव, चुपचाप आते हैं. मैं कामना करती हूँ कि तुम उसके आने की खामोश आहटों को सुन सको और अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने के सही मायने समझ सको.

हमेशा खुद पर बहुत यकीन करना मेरे बच्चो, और यह बात समझना कि इस जिन्दगी में असंभव कुछ भी नहीं. मैं दुआ करती हूँ कि तुम खुली आखों से सपने देखो, ढेर सारे सपने, और जिन्दगी की बेइंतिहा संभावनाओं तक पहुँच सको. आशा करती हूँ कि जिन्दगी की तमाम कीमती रहस्यों से तुम वाकिफ हो सको, अपने व्यक्तित्व की फैलती हुई चमक को लेकर तुम कभी संकोच मत करना.

मेरे बच्चो, तुम यह बात समझोगे कि प्रार्थनाएं हमेशा एकांत मांगती हैं. समझोगे तुम कि एकांत में ही हम असल में ईश्वर से जुड़ पाते हैं और तब तुम जानोगे कि तुम कभी अकेले नहीं हो. ईश्वर हमेशा तुम्हारे साथ है.

मैं तुम्हारी ख़ुशी के लिए दुआ करती हूँ, चाहती हूँ प्यार से जीते हुए जिन्दगी की तमाम बुलंदियों तक पहुँचो.

तुम्हारी माँ
ब्रिटनी

Saturday, November 26, 2016

जलने दो लोगों को-दोस्तोएवस्की


दोस्तोएवस्की का पत्र ऐना के नाम 

प्रिये,

तुम लिखती हो- मुझे प्यार करो! पर क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करता? असल बात यह है कि ऐसा शब्दों में कहना मेरी प्रवृत्ति के खिलाफ है। तुमने खुद भी इसे महसूस किया होगा लेकिन अफसोस तुम महसूस करना जानती ही नहीं अगर जानती होती, तो ऐसी शिकायत कभी नहीं करती।मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं अब तक तुम्हें पता होना चाहिए था लेकिन तुम कुछ समझना नहीं चाहतीं। मैं अभिव्यक्तियों में विश्वास नहीं करता महसूस करने में करता हूं. अब यह भाषणनुमा पत्र लिखना बंद कर रहा हूं.

तुम्हारे पैरों की उंगलियों का चुंबन लेने के लिए मैं तड़प रहा हूं.

तुम कहती हो कि अगर कोई हमारे पत्र पढ़ ले तो क्या हो? ठीक है, पढऩे दो लोगों को और जलन महसूस करने दो।

हमेशा तुम्हारा
दोस्तोएवस्की

(दोस्तोवस्की: क्राइम और पनिश्मेंट का लेखक फ्योदोर दोस्तोवस्की. दुनिया बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार, जिसको राजद्रोह के अपराध में मृत्युदंड दे दिया गया, पर ठीक फांसी के समय पर वह दंड सात साल के साइबेरिया से निष्कासन में परिवर्तित कर दिया गया)

Wednesday, November 23, 2016

आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली...



मीना कुमारी एक ऐसा नाम है जो सिर्फ गुज़र नहीं जाता, वो एहसास से चिपक जाता है. उनकी अदायगी, उनके अल्फाज़ और ज़िन्दगी से उनका रिश्ता...कॉलेज के ज़माने में ये नज़्म इस कदर मेरे पीछे पड़ी थी कि इसी में मुब्तिला रहने की बेताबी थी...जैसे कोई नशा हो...हल्का हल्का सा...रगों में घुलता हुआ...घूँट घूँट हलक से उतरता हुआ...दर्द का नशा...मीना आपा ने इस नशे को भरपूर जिया...ज़िन्दगी ने उनके साथ मुरव्वत की ही नहीं और एक रोज़ आज़िज़ आकर उन्होंने ज़िन्दगी से कहा, 'चल जा री जिन्दगी...'

हिंदी कविता ने एक बार मीना आपा का जादू फिर से जगा दिया है...बेहद खूबसूरत है ये अंदाज़ ए बयां...रश्मि अग्रवाल जी ने उन्हें याद करते हुए अपने भीतर ही मानो ज़ज्ब कर लिया हो...बाद मुद्दत फिर से मीना आपा हर वक़्त साथ रहने लगी हैं....दिन हैं कि अब भी टुकड़े टुकड़े ही बीत रहे हैं...शुक्रिया मनीष इस अमानत को इस तरह संजोने के लिए....

- मीना कुमारी 

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली

रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली

जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली

मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली

होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आँखों में, सादा सी जो बात मिली


Thursday, November 17, 2016

छाना बिलौरी का घाम....



बेसबब जागती रातों को परे धकिया कर, दौड़ती-भागती जिन्दगी में से कोई सुबह चुरा लेने का बड़ा सुख होता है. उन सुबहों को सेब, नाशपाती, पुलम आदि के फूलों के बीच अंजुरियों में भरते हुए, भीमताल की टेढ़ी-मेढ़ी सी सडक पे इक्क्म दुक्क्म खेलती धूप को देखते हुए, ऊंची पहाड़ियों के बीच ख़ामोशी से ठहरी हुई झील के किनारे से गुजरते हुए या कभी किसी चाय के ढाबे के किनारे बैठकर पीते हुए कडक चाय, सुनते हुए पहाड़ी (कुमाउनी) धुन...जिन्दगी...हथेलियों पे रेंगती हुई मालूम होती है...कभी पलकों की कोरों पर अटकी हुई भी महसूस होती है...वो पहाड़ी धुन आहिस्ता आहिस्ता फिजाओं में घुलती रहती है...रगों में भी घुलती है हौले से...

बरस बीत गया वो धुन अब भी रगों में रेंगती है...कभी साँसों में सुलगती है...कई रोज से ये धुन सर पे सवार है...छाना बिलौरी का घाम...जिसमे एक बेटी अपने बाबुल को कह रही है कि ओ बाबुल, मुझे छाना बिलौरी यानि जहाँ बहुत तेज़ धूप पड़ती है वहां मत ब्याहना वरना मैं वहां किस तरह रह पाऊंगी, किस तरह काम कर पाऊँगी....

ये कुमाउनी गीत मेरे लिए भूपेन जी की आवाज में ही दर्ज है...हालाँकि इसके मूल गायक हैं गोपाल दा यानि गोपाल बाबू गोस्वामी...बाद में इसे कई लोगों ने इसे अपनी अपनी तरह से गाया...गाते रहेंगे....

इस गीत को सुनते हुए सोचती हूँ इस बरस भी वैसे रास्ते फूलों से भरे होंगे, फयूली वैसे ही फूली होगी, बच्चे स्कूल जाते हुए शरारतें करते जाते होंगे, नन्ही सी पगडण्डी पे वो अकेला पेड़ अब भी मुस्कुरता होगा, अब भी झील के किनारों पे रंगीन नाव सजी होंगी...कुछ भी कहाँ बीतता है...सात ताल के रास्तों को किस तरह हमने शरारतों से भर दिया था, देखो न ये छाना बिलौरी के घाम की तपिश में सारे बीते हुए लम्हे किस कदर चमक रहे हैं...

दोस्त कहते हैं तुम पक्की पहाड़ी हो गयी हो, मैं सुनकर ख़ुशी से झूम उठती हूँ. जिन्दगी जब पहाड़ होने लगी थी तब पहाड़ों का रुख किया था और जिस मोहब्बत से सीने से लगाया था पहाड़ों ने ऐसा लगा था कि बरसों बाद परदेस से आई बिटिया को मायके की छत मिली हो.

जन्म भले ही धरती के किसी भी कोने पे हुआ हो लेकिन महसूसने से लगता है कि इन्हीं पहाड़ों की हूँ कबसे. ये गीत सुनते हुए पहाड़ों से अपनेपन का एहसास और बढ़ता जाता है...मंडवे की रोटी की खुशबू आ रही है पास ही से....




Monday, November 14, 2016

तेरे इंतजार का चाँद...


किसने बगिया में खिलाया है तेरी याद का चाँद, किसने सांसों में बसाई है तेरे वस्ल की खुशबू. ये किसकी हरारत है जो सर्द मौसम में घुल गयी है...कौन है जिसकी आहटों ने धरती को सजाया है. कोई चेहरा नहीं कहीं फिर भी कोई रहता तो आसपास ही है.

हाथों की लकीरों में कहाँ ढूँढा करते, कि लकीरें तो बचपन के छ्प्पाकों में गुमा आई थी लकीरें सारी...माँ हर वक़्त मेरी तक़दीर की चिंता में माथे पे लकीरें बढ़ाये फिरती रही...उसकी माथे की लकीरें मेरी हाथों की तक़दीर कैसे होतीं...कि मेरी तक़दीर उन लकीरों से बहुत आगे थी...

जब सबकी ड्योढ़ी पे बुझ जाता पूर्णमासी चाँद, मेरी बगिया में जलता रहता तेरे इन्तजार का चाँद... बुझता ही नहीं, कोई इस बात को बूझता ही नहीं...अमावस की डाल को तोड़कर दूर कहीं फेंक आई थी...चाँद उगता है, रोज मेरे आंगन में... आज भी उगा है वैसा ही तेरे इंतजार का चाँद...और एक जगजीत सिंह हैं कि चाँद को रुखसत कर देने की रट लगाये हुए हैं...जबकि मेरे गमखाने में सिर्फ चाँद ही आ सकता है...

जगजीत सिंह मानते ही नहीं....गाये जा रहे हैं...रिपीट में...

मेरे दरवाजे से अब,चाँद को रुखसत कर दो 
साथ आया है तुम्हारे,जो तुम्हारे घर से
अपने माथे से हटा दो,ये चमकता हुआ ताज
फेंक दो जिस्म से किरनों का, सुनहरी जेवर

तुम्हीं तन्हा मेरे गमखाने में आ सकती हो
एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रखा है
मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद...

Friday, November 11, 2016

इक तेरी आदत...


आदत है बेवजह मुस्कुराने की
ख़ामोशी को नोच कर फेंक देने की
और मौन के गले में
शोर का लॉकेट लटका देने की

तमाम ताले छुपा देने की
और उन तालों की तमाम चाबियाँ
कमर में लटकाकर
ठसक से घूमते फिरने की

चाय की तलब में
सिगरेट का धुआं मिलाने की
और 'अच्छे लोगों' के बीच बैठकर
'अच्छी न लगने वाली' बातें करने की

सर्द रातों को मुठ्ठियों में लेकर
और बिना शॉल ओढ़े नंगे पाँव घुमते हुए
माँ की मीठी डांट खाने की

बेवजह कहीं भाग जाने की
और सड़कों के माथे पे लिखे तमाम पते मिटाकर
वापस लौट आने की

जाने पहचाने चेहरों से
अपनी उदासियाँ छुपाने की
और अजनबी कन्धों से
टिककर फफक के रो लेने की

अपने हाथों की लकीरों को
कभी गुम होते, कभी उगते देखने की
और कच्ची नींदों में पक्के ख्वाब उगाने की

प्रार्थनाओं के सीने से लगकर
खूब रो लेने की
मंदिर के घंटों की बेचारगी में
अज़ान की आवाज़ को सिमटते देखने की

आदत है रोज थोड़ी सी बेचैनी जीने की
बूँद भर जीने के लिए रोज समन्दर भर मरने की
बस कि नहीं पड पायी आदत अब तक
तेरे ख्याल को झटक कर जी पाने की...

आदतें भी अजीब होती हैं....




Wednesday, November 9, 2016

किसी स्कूल ने नहीं सिखाई वो भाषा...



किसी स्कूल ने नहीं सिखाया
सूखी आँखों में मुरझा गए ख्वाबों को पढ़ पाना,

नहीं सिखाया पढना
बिवाइयों की भाषा में दर्ज
एक उम्र की कथा, एक पगडण्डी की कहानी

किसी कॉलेज में नहीं पढाया गया पढ़ना
सूखे, पपड़ाये होंठों की मुस्कुराहट को
जो उगती है लम्बे घने अंधकार की यात्रा करके

नहीं बताया किसी भाषा के अध्यापक ने
कि चिड़िया लिखते ही आसमान कैसे
भर उठता है फड़फडाते परिंदों से
और कैसे धरती हरी हो उठती है
पेड़ लिखते ही

बहुत ढूँढा विश्वविद्यालयों में उस भाषा को
जो सिखाये खड़ी फसलों के
जल के राख हो जाने के बाद
दोबारा बीज बोने की ताक़त को पढना

कहाँ है वो भाषा
जिसमें खिलखलाहटो में छुपे अवसाद को
पढना सिखाया जाता है
नहीं मिली कोई लिपि जिसमें
‘आखिरी ख़त’ के ‘आखिरी’ हो जाने से पहले
‘उम्मीद’ लिखा जाता है,
‘जिन्दगी’ लिखा जाता है

वो लिपि जो
जिसमें लिखा जाता है कि
सब खत्म होने के बाद भी
बचा ही रहता है 'कुछ'... 


Monday, November 7, 2016

ओ' अच्छी लड़कियों : Pratibha Katiyar



ओ अच्छी लड़कियों
तुम मुस्कुराहटों में सहेज देती हो दुःख
ओढ़ लेती हो चुप्पी की चुनर

जब बोलना चाहती हो दिल से
तो बांध लेती हो बतकही की पाजेब
नाचती फिरती हो
अपनी ही ख्वाहिशों पर
और भर उठती हो संतोष से
कि खुश हैं लोग तुमसे

ओ अच्छी लड़कियों
तुम अपने ही कंधे पर ढोना जानती हो
अपने अरमानों की लाश
तुम्हें आते हैं हुनर अपनी देह को सजाने के
निभाने आते हैं रीति रिवाज, नियम

जानती हो कि तेज चलने वाली और
खुलकर हंसने वाली लड़कियों को
जमाना अच्छा नहीं कहता

तुम जानती हो कि तुम्हारे अच्छे होने पर टिका है
इस समाज का अच्छा होना

ओ अच्छी लड़कियों
तुम देखती हो सपने में कोई राजकुमार
जो आएगा और ले जायेगा किसी महल में
जो देगा जिन्दगी की तमाम खुशियाँ
संभालोगी उसका घर परिवार
उसकी खुशियों पर निसार दोगी जिन्दगी
बच्चो की खिलखिलाह्टों में सार्थकता होगी जीवन की
और चाह सुहागन मरने की

ओ अच्छी लड़कियों
तुम थक नहीं गयीं क्या अच्छे होने की सलीब ढोते ढोते

सुनो, उतार दो अपने सर से अच्छे होने का बोझ
लहराओ न आसमान तक अपना आँचल

हंसो इतनी तेज़ कि धरती का कोना कोना
उस हंसी में भीग जाये

उतार दो रस्मो रिवाज के जेवर
और मुक्त होकर देखो संस्कारों की भारी भरकम ओढनी से

अपनी ख्वाहिशों को गले से लगाकर रो लो जी भर के
आँखों में समेट लो सारे ख्वाब जो डर से देखे नहीं तुमने अब तक

ओ अच्छी लड़कियों
अब किसी का नहीं
संभालो सिर्फ अपना मान

बेलगाम नाचने दो अपनी ख्वाहिशों को
और फूंक मारकर उड़ा दो सीने में पलते
सदियों पुराने दुःख को

पहन के देखो
लोगों की नाराजगी का ताज एक बार
और फोड़ दो अच्छे होने का ठीकरा

ओ अच्छी लड़कियों...

जो सच सच बोलेंगे मारे जाएंगे...



-राजेश जोशी 

जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे
मारे जाएंगे।
कठघरे मे खडे् कर दिए जाएंगे जो विरोध में बोलेंगे
जो सच सच बोलेंगे मारे जाएंगे।

बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज हो
उनकी कमीज से ज्यादा सफेद
कमीज पर जिनके दाग नहीं होंगे मारे जाएंगे।
धकेल दिए जाएंगे कला की दुनिया से बाहर
जो चारण नहीं होंगे
जो गुण नही गाएंगे मारे जाएंगे।

धर्म की ध्वजा उठाने जो नहीं जाएंगे जुलूस में
गोलियां भून डालेंगीं उन्हें काफिर करार दिए जाएंगे।
सबसे बडा् अपराध है इस समय में
निहत्थे और निरपराधी होना
जो अपराधी नही होंगे मारे जायेंगे

Thursday, November 3, 2016

ख्वाहिश की लंदन डायरी - 6


डर्डल डोर- आखिर वो दिन आ गया जब मैं अपनी फेवरेट जगह जाने वाली थी यानी डर्डल डोर। यह जगह लंदन से 2 घंटे की दूरी पर था। मामा मामी के दोस्तों को मिलाकर हम करीब दस लोग वहां एक साथ जा रहे थे। गाड़ी में हम खूब मस्ती करते हुए हम डर्डल पहुंच गये लेकिन मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं जब मामा ने बताया कि डोर तक पहुंचने के लिए हमें तीन पहाडि़यां पैदल चलनी पड़ेगी। गाडि़यां पार्क करके हमने चढ़ना शुरू किया। आधी पहाड़ी चढ़ते हुए हमें यह लगने लगा कि आगे क्या होने वाला है। जैसे-तैसे हंसी मजाक करते हुए हम लोगों ने दो पहाडि़यां पार कीं। तीसरी पहाड़ी पर असल में चढ़ना नहीं उतरना था। मुझे उतरते हुए काफी घबराहट हो रही थी क्योंकि ढलान काफी ज्यादा थी।
लेकिन उतरने में ज्यादा वक्त नहीं लगी और हम पहाड़ी पार कर गये। इसके बाद जब हम सीढि़यों से उतरे तो एक बहुत ही प्यारा नजारा हमारे सामने था। नीला समंदर और उसमें एक प्यारा सा प्राकतिक रूप से बना हुआ चट्टान का दरवाजा। जो कि बहुत विशाल था। थोड़ी देर हमने वहां के ठंडे पानी में छप छप करी, तस्वीरें खींची और खिंचवाई। थोड़ी देर वहां बैठकर हम समंदर को देखते हुए बातें करते रहे इसके बाद हम वापस उन्हीं पहाडि़यों से चढकर और उतरकर दूसरे समंदर के नजारे देखने को चल पड़े। वो समंदर भी वहां से पंद्रह मिनट की दूरी पर ही था। जब हम वहां पहुंचे तो वहां कई प्रकार के मजेदार म्यूजिकल इंस्टूमेंट्स थे जिनको बजाते हुए मैं गुजर रही थी। थोड़ी देर सुकून से हमने समंदर को देखा और फिर हमने महसूस किया कि हमें भूख लग रही है। इसके बाद हमने इंडियन रेस्टोरेंट को गूगल किया और उसकी खोज करते हुए वहां पहुंचे। वहां पहुंचकर हमने भरपेट खाना खाया और वापस घर की ओर चल पड़े। मन कर रहा था कि मैं सो जाउं लेकिन घर पहुंचने का रास्ता अभी काफी दूर था। रात के एक बजे के करीब हम घर पहुंचे और पहंुचते ही नींद ने हमें घेर लिया।
अगला दिन हमने खूब आराम किया क्योंकि सब बहुत थके हुए थे। अगले दिन हमें इंडिया वापस लौटना था तो हम सब घर पर साथ में रहकर गप्पे लगाना चाहते थे। यह लंदन में हमारा आखिरी दिन था। सारा दिन हमने एक-दूसरे से गप्पे लर्गाईं रात में मामा ने देर तक गिटार पर खूब सारे गाने बजाये। किसी का उठने का मन नहीं था। लेकिन जब रात काफी हो गई तो सबको सोने जाना ही पड़ा।

जब अगले दिन हम उठे तो मम्मी सामान समेट रही थीं। मम्मी ने नाश्ता बनाया दीदी और मामी हमें बाय कहकर अपने काम पर चले गये। हमने मम्मी का बनाया हुआ गर्मागर्म नाश्ता खाया, और उसके बाद मामा के साथ खूब सारी बातें की और टीवी पर एनिमेशन फिल्में देखीं। मामा ने हमारे लिए खाने में दाल बाटी बनाई। खाना खाने के बाद हमने कुछ देर आराम किया और फिर एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े। हमारा मन उदास था, जाने का मन नहीं कर रहा था लेकिन इंडिया की याद भी आ रही थी।

लंदन का हमारा सफर पूरा हो चुका था। लंदन की बहुत सारी यादें लेकर हम भारत की ओर लौट रहे थे। 

समाप्त.

Wednesday, November 2, 2016

ख्वाहिश की लंदन डायरी - 5


लीड्स - अगले दिन मुझे और मम्मी को जाना था लीड्स जो कि लंदन से कुछ ही दूर था। मैं मम्मी की एक दोस्त से मिलने लीड्स जा रही थी। उस दिन हम लोग सुबह जल्दी निकल गये। मामी ने हमें बस में बिठाया। हम लोग बहुत खुश थे कि एक और नया शहर देखने को मिलेगा। रास्ता भी खूब सुंदर था। रास्ते में मैंने मम्मी से खूब सारी बातें की और बहुत सारे विंडमिल्स देखे। बस आधी से ज्यादा खाली ही थी इसलिए मैं और मम्मी आराम से पैर पसारकर झपकी लेने लगे। जब हम उठे तो लीड्स आने वाला था। हमारी योजना वहां दो दिन रुकने की थी। जब हम कोच स्टेशन पर उतरे तो वहां पर मम्मी की दोस्त नीरा आंटी और अंकल हमारा इंतजार कर रहे थे। वो लोग हमें देखकर बहुत खुश हुए। हम लोग उनकी कार में बैठकर उनके घर चले गये। उनका शहर लीड्स शहर से दूर था। घर तक का रास्ता बहुत खूबसूरत था। जब हम उनके घर पहुंचे तो हमने देखा कि उनका घर बहुत बड़ा और खूबसूरत था। उसमें एक प्यारा सा बगीचा था जिसमें कुछ खरगोश कूदते फांदते नजर आये। नीरा आंटी ने हमें हमारा कमरा बताया और हमने उसमें अपना सामान रख दिया। मम्मी और आंटी ने एक-दूसरे से बहुत सारी बातें कीं और आंटी ने हमें बहुत लज़ीज पास्ता और गार्लिक ब्रेड बनाकर खिलाया। मजा तो तब आया जब खाने के बाद हम लोग लंबी सैर पर चले गये। उनके घर के पास ही खूब बड़े-बड़े खेत थे। तो हम उन खेतों के आसपास घूमते फिर रहे थे। वहां बहुत प्यारे-प्यारे घोड़े भी थे जिन्होंने कपड़े भी पहने हुए थे। थोड़ी देर की सैर के बाद जब हम लोग घर पहुंचे तो मैं टीवी देखने लगी और मम्मी ने खूब सारी बातें की और खाना खाकर सो गये। अगले दिन जब मम्मी ने उठाया तो उन्होंने बताया कि अंकल और आंटी हमें यॉर्क सिटी घुमाने ले जाने वाले हैं। मैं यह सुनकर बहुत खुश हुई। जल्दी से नहा धोकर मैं तैयार हो गई। गर्मागर्म नाश्ता करने के बाद हम लोग यॉर्कशायर के लिए निकल गये। 
सबसे पहले हम लोग यॉर्कमिनिस्टर चर्च और संग्रहालय देखने गये। उसका आर्किटेक्चर बहुत ही अनूठा था। उस पर बहुत बारीकी से काम किया गया होगा ऐसा लग रहा था। पास में ही एक कैसल थी हम वहां भी घूमने गये तो हमने देखा कि वो टूटा फूटा कैसल यानी किला अपने टूटन के साथ भी काफी खूबसूरत लग रहा था। कुछ देर हम वहां हरी घास पर बैठे रहे। धूप में हमने थोड़ी देर हमने आराम किया और इसके बाद हम चित्र संग्रहालय देखने चले गये जहां दुनिया भर के मशहूर आर्टिस्ट की अद्भुत पेन्टिंग्स थीं। पास में एक नदी थी जब हम उस नदी के पास से गुजर रहे थे तो हमने वहां प्यारी प्यारी ढेर सारी बतखें देखीं जो धूप में आराम फरमा रही थीं। हम लोग उसके बाद मॉल घूमने चले गये। हमने वहां कुछ खाया पिया, थोड़ी शॉपिंग की और फिर घर चले गये।
घर जाकर मैंने और मम्मी ने अपना सामान समेटा क्योंकि अगले दिन हमें सुबह जल्दी ही लंदन के लिए निकलना था। सुबह जब मम्मी ने उठाया तो मैं जल्दी जल्दी तैयार हो गई। नाश्ता करने के बाद थोड़ी बातें करीं और फिर स्टेशन के लिए हम निकल गये। आंटी ने हमारेे लिए रास्ते में खाने के लिए खूब सारा खाना रखा, उन्होंने हमें बस में बिठाया और हम वापस लंदन की ओर लौटने लगे। सुबह जल्दी उठने के कारण बस में हम दोनों को गहरी नींद आ गई। जब हमने आंखें खोलीं तो लंदन आ चुका था।

(अगली कड़ी और अंतिम में डरडल डोर और भारत वापसी - जारी )

Monday, October 31, 2016

ख्वाहिश लंदन डायरी- 4


स्कॉटलैण्ड- सुबह जैसे ही आंख खुली तो देखा कि घर में हड़बड़ी मची हुई थी क्योंकि मैं तो भूल ही गई थी कि आज हमें सुबह पांच स्कॉटलैण्ड के लिए निकलना था। मैं भी जल्दी से उठकर तैयार हो गई और मम्मी, मैं, मामा, मामी निकल पड़े घर से ट्रेन पकड़ने के लिए। जब हम लोग टेªन में बैठे तब एक राहत की सांस ली। वहां की ट्रेन में सफर करना भी एक अलग अनुभव था। वहां ट्रेन में बैठकर मुझे यहां की ट्रेन और भारतीय ट्रेन में कुछ खास अंतर तो नहीं लगा बस यह था कि इन ट्रेनों की गति बहुत तेज थी और ये साफ सुथरी थीं। हर अनुभव के बाद मैं यही सोचती थी कि कब मैं अपनी दोस्तों से मिलकर अपनी अविस्मरणीय अनुभव बाटूंगी। सर थोड़ा-थोड़ा अधूरी नींद के कारण चकरा रहा था इसलिए टेªन में एक छोटी सी झपकी मार ली और आधा सुंदर रास्ता छूट गया। वहां पर जब मैंने इतने बड़े बड़े खुले हुए हरे मैदान देखती थी तो कुछ ऐसा लगता था कि या तो यहां के लोगो को जमीन का उपयोग करना नहीं आता या फिर प्रकति के प्रति सर्वाधिक प्रेम है।
चार घंटे के उस सफर के बाद हम पहुंच गए एडिनबरा। यह स्कॉटलैण्ड की राजधानी है। किसी ने अपना एक खाली फ्लैट हमें दो दिन के लिए रेंट पर दिया था। स्टेशन से पहले से बुक किये गए फ़्लैट की तरफ जाते हुए दूध और ब्रेड लिया और चल दिए। दो कमरे के इस फ्लैट में पहुंचकर हमें लगा कि हम घर में ही आ गए हों। शाम को हम घूमने निकले लेकिन उस शाम सिर्फ सड़कें ही छानीं। इंडियन रेस्टोरेंट की तलाश में इधर-उधर घूम रहे थे और जब तक खाना खाया तब तक काफी रात हो चुकी थी और हम वापस फ्लैट की तरफ लौटे। वहां पहुंचकर मामा मामी ने बताया कि उन्होंने हमारे लिए एक बस टूर बुक किया है जो हमें पूरा दिन एडिनबरा की सुंदर कंट्रीसाइड घुमायेगा क्योंकि वो लोग एक बार पहले ही यह सब घूम चुके थे तो वो लोग हमारे साथ नहीं गए. सुबह-सुबह मामा ने हमें बस में बिठाया. तकलीफ यह थी कि मुझे यह डर था कि मुझे कहीं बस में चक्कर न आयें। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब वहां के हरे-भरे पहाड़ और इनमें से गुजरते बादल देखे तो मेरी तो आंखें खुली की खुली रह गईं। रास्ता बहुत ही खूबसूरत था। पहली जगह जब बस रुकी तो आधे घंटे मे हमें घूमकर वापस आना था। पास में ही एक ब्रेकफास्ट और गिफ्ट
शॉप थी जहां लोग व्यस्त थे लेकिन मैंने और मम्मी खाने को प्राथमिकता नहीं दी और आधे घंटे का सही उपयोग करते हुए आसपास घूमने लगे। वहां पर दो याक दिखे जो कि जाली के पीछे थे। जिनमें से एक भूरे रंग का याक था जो मस्ती से घास चर रहा था। मम्मी की वह बात हमेशा याद आती है कि जैसे ही एडिनबरा की बातें होती थीं मममी हमेशा कहती थीं कि वह दिन एकदम एक अनदेखा सपना प्रतीत होता था। मम्मी की फोटोग्राफी खूब चल रही थी ऐसा लग रहा था कि मम्मी इसी नजारे का इंतजार कर रही थीं। मम्मी वहां के हर नजारे का अपने कैमरे की पोटली में छुपाने में लगी थीं। मैं बेचारी बच्ची मम्मी के कैमरे के कपड़े यानी कैमरे का कवर संभालने में लगी थी जब मम्मी कहती थी कि बेटा जरा फोटो खिंचाओ तो मुस्कुरा के खड़ी हो जाती या फिर उनकी खींचने लगती। यह सब चलता रहता था। हम लोग फिर जाकर बैठ गये रास्ते भर मेरी और मम्मी की वार्तालाप में सौ बार आह शब्द का प्रयोग हुआ। हमारा बस ड्राइवर बहुत ही चुनिंदा और खूबसूरत
जगहों पर बस रोक देता था। सामने झील का नजारा और पहाड़ होते। वो कहता कि आप लोग जल्दी से फोटो खींचकर आ जाइये। अगली जगह जहां बस रुकी वहां मुझे और मम्मी को बहुत ज्यादा भूख लग रही थी। पर खाना लेने में डर इस बात का था कि कहीं नॉनवेज न मिल जाये क्योंकि वहां के लोग तो मछली को भी वेजीटेरियन ही मानते थे और गाय के मास को भी। आखिर में सोच विचार के बाद हम लोगों ने एक टुकड़ा केक और कोल्ड डिंक की बोतल ली और शांति से एक पत्थर के उपर बैठकर हमने खाना खाया। भूख पूरी तरह से मिटी तो नहीं थी लेकिन एक बात की तसल्ली थी कि हम जो भी खा रहे थे वो वेजीटेरियन था। बस ड्राइवर द्वारा थोड़ी देर में अनांउसमेंट हुई तो हम लोग बस में जाकर बैठ गये । हम लोगों ने वहां की मशहूर लेक लॉकनेस के लिए टिकट बुक करवा ली. थोड़ी देर बाद जब हम लॉकनेस के पास उतरे तो मौसम खूब अच्छा हो चुका था और धीमी धीमी बारिश हो रही थी। हम लोग टिकट लेकर वहां पर बोट का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद छोटा क्रूज वहां आया। उस क्रूज के उपरी हिस्से में हम पहुंचकर बैठ गये। वह लेक बहुत सुंदर थी। एकदम साफ और नीली। आसपास पहाड़ थे। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गये हमें वहां का मशहूर एडिनबरा का किला दिखने लगा।
हम वहां उतरे नहीं लेकिन हमारा क्रूज एकदम कैसल यानी किले के करीब जाकर खड़ा हो गया। वो किला जो अब किसी खंडहर में बदल चुका था। वहां कई सारे पीले रंग की झाडि़यां थीं और तकरीबन एक घंटे की लॉकनेस की घुमाई के बाद हम बस में वापस लौट आये। इसी के साथ हमारा वापसी का सफर शुरू हुआ। हम वापस वहीं पहुंचे जहां से सुबह सफरªª शुरू किया था। मामा और मामी हमारा इंतजार कर रहे थे। हम बहुत थक चुके थे और भूखे थे। हमने वहां एक पुर्तगाली रेस्टोरेंट में पीटा ब्रेड और हमस खाया, बर्गर भी खाये। खाने के बाद हम लोग पैदल चलते हुए अपने फलैट तक पहुंचे जो हमने यहां बुक किया हुआ था। उस रात हम लोग बहुत जल्दी सो गये। दिन भर की यादें और थकावट लेकर हम गहरी नींद में सो गये। अगले दिन मौसम ने हमारा एकदम साथ नहीं दिया। बहुत बारिश हो रही थी इसलिए हम कहीं घूमने नहीं जा पाये। उसी दिन हमारी शाम की लंदन वापसी की ट्रेन थी। हमने दो बजे उस जगह को जहां हम रुके थे छोड़ दिया और धीमी-धीमी बारिश में ही स्टेशन की ओर चल दिए। हमने बहुत सारी तस्वीरों को अपने कैमरे में भर लिया था। वापसी के समय हमने ट्रेन में एक बड़ा सा रेनबो देखा। बल्कि डबल रेनबो जो खूब बड़ा सा था। रेनबो के सारे रंग उभरकर आ रहे थे। इतना बड़ा और क्लियर रेनबो मैंने पहले कभी नहीं देखा था। हम चारों रास्ते भर बातें करते रहे और पता ही नहीं चला कि सफर कब खत्म हो गया। हम लोग रात में लंदन पहुंचे। स्वाति दीदी ने हमारे लिए पहले से ही छोले पूड़ी बनाकर रखे थे. हम स्वादिष्ट छोले पूड़ी खाकर सो गये।

(अगली कड़ी में लीड्स की सैर....जारी )

Saturday, October 29, 2016

ख़वाहिश की लंदन डायरी - 3

स्टेटफोर्ड अपॉन एवन- अगला दिन मेरे लिए जानकारियों से भरा हुआ था। हम लोग गए विलियम शेक्सपियर के गांव। इतना सुंदर गांव मैंने पहले कभी नहीं देखा था। यहां के लोगों ने शेक्सपियर के घर को अच्छे से संभाला हुआ था। यहां खूब सुंदर बगिया भी थी और जानकारियां भी। उस मेज पर बैठना जहां वो अपना अमूल्य समय बिताया करते थे काफी रोमांचक था। वही पलंग] वही खाने की मेज] वही कमरा...सब वैसा का वैसा। उनके सोचने का नज़रिया भी जैसे हर कमरे में झलकता था। उनके घर में खूब सारा समय बिताकर वहीं पास के एक पार्क में हम लोग जाकर बैठ गए। ठीक नदी के किनारे जहां बहुत सारे हंस और बत्तख थीं। वहीं कहीं एक बुलबुले बनाने वाली मशीन जैसा खिलौना बेचने वाला भी था। उसके पास ऐसा खिलौना था जिससे बहुत बड़े-बड़े बुलबुले बन रहे थे। मैंने भी उससे एक खिलौना खरीदा और अपने आसपास का माहौल बुलबुलों से भर दिया।

मैडम तुषाद- अगला दिन तो अब तक सबसे सुंदर दिन था। उस दिन मैं और मम्मी पहली बार खुद अकेले लंदन घूमने निकले। हमारे हाथ में मैडम तुषाद की दो टिकटें थीं और हम लोग बेकर स्ट्रीट से गुजरते हुए पहुंच गए
मैडम तुषाद म्यूजियम। वहां हम जैसे ही टिकट दिखाकर सामने अंदर पहुंचे सामने की दीवार पर कई तस्वीर खींचते मीडिया फोटोग्राफर्स की तस्वीरें लगी थीं थ्री डी में और आवाजें आ रही थीं। ऐसा महसूस करवाने के लिए जैसे हम कोई सेलिब्रिटी हों। हम अंदर जैसे ही पहुंचे चारो तरफ पुतले ही पुतले। पहले तो हमें यह लगा कि वहां इंसान ही खड़े हैं लेकिन ऐसा नहीं था। पुतले बड़े ही बखूबी बनाये गए थे। मैं तो एकदम आश्चर्यचकित हुई जब मैंने वहां कैटरीना कैफ, सलमान खान, अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, शाहरूख खान जैसे कई हिंदुस्तानी सिनेमा के स्टार्स के पुतले देखे। हमने हर पुतलों के साथ तस्वीरें खिंचवाईं। वहां पर टॉमक्रूज का भी पुतला था। वैसे तो वहां कई नामी लोगों के पुतले थे पर सबसे अच्छा असली पुतला लग रहा था एल्बर्ट आइंस्टीन का। उसके बाद हमने वहां पर एक अच्छा सा इंडियन रेस्टोरेंट ढूंढा और खाना खाकर घर की तरफ बढ़ गए।

थेम्स नदी में सारा दिन -अगले दिन के लिए मैं थोड़ी डरी हुई थी। लेकिन शायद वह दिन मेरे दिमाग में छप गया था। अगले दिन मौसम ने कुछ खास साथ नहीं दिया। पहले हम लोग वहां के मशहूर एक्वेरियम सी-लाईफ में गये। वो काफी बड़ा भी था और मजेदार भी। मैंने वहां पर पहली बार पेंग्विन्स देखे और बहुत खुश हुई। लेकिन असली
मजा तो तब शुरू हुआ जब हम वहां से बाहर निकले और मूसलाधार बारिश शरू हो गई। हमने गीले होने से बचने के लिए टोपियां पहनीं और पुल के दूसरे छोर पर पहुंचे। जहां पर मामा खड़े थे यह बताने के लिए कि अब हमें कहां जाना है और अगली सवारी थी थेम्स बोट राइड की। हम लोग लाइन में लगकर उस छोटे से क्रूज में चले गए। मम्मी के मना करने के बाद भी मैंने जिद की और हम लोग क्रूज की छत पर चले गये। अब बारिश भी कम होने लगी थी और दो घंटे हम लोग पानी और मौसम का आनंद उठाते रहे। सच में ऐसा लग रहा था कि अभी पानी में से विशाल जलपरी निकलेगी. उस दिन की सबसे अच्छी बात यह थी कि हमने एक बार फिर से टॉवर ब्रिज को खुलते देखा।

(अगली कड़ी में स्कॉटलैंड....जारी )

Friday, October 28, 2016

ख्वाहिश की लंदन डायरी- 2

बर्किंघम पैलेस, चर्चिल हाउस, टेफल्गेर स्कॉवयर-

पहले दिन नाश्ता करने के बाद मामी ऑफिस चली गईं और हम सबका घूमने जाने का प्लान बना। हम सबकी टोली निकली लंदन की सैर करने। पहली दफा वहां की सड़कों पर चलना किसी ख्वाब जैसा था। मुझे काफी समय लगा खुद को यह समझाने में कि हां सचमुच मैं लंदन में ही हूं। यह कोई सपना नहीं है। हम सबने ट्यूब पकड़ी और पहुँच गये ग्रीन पार्क। वहां से गुजरते समय ऐसा लगा कि इतनी हरियाली है यहाँ. यही पेड़ भारत में भी तो हैं लेकिन मैंने उन्हें इस नजरिये से कभी क्यों नहीं देखा। चाहे जितनी भी तारीफ कर ली जाए लंदन की लेकिन अपने भारत की सुंदरता भी कुछ कम नहीं। 

ग्रीन पार्क से गुजरने के बाद मेरे सामने अकल्पनीय, आलीशान हवेली थी। बातचीत के दौरान मामा ने बताया कि यह रानी एलिजाबेथ-2 का महल है। हां, ये वही रानी है जिसके मुकुट में कोहिनूर हीरा जड़ा है। बहुत सुंदर थी वह हवेली। हर तरफ लंबी टोपी और वर्दी वाले सिपाही सुरक्षा में खड़े थे। अंदर जाने की किसी को अनुमति नहीं थी। भीड़भाड़ और चर्चाएं यह चल रही थीं कि रानी अभी किसी दूसरे देश में गई हैं।
लंदन की सड़कों पर चलने का भी एक अलग अनुभव था। लगभग जितना भी लंदन हमने घूमा या तो पैदल या ट्यूब में। महल से कुछ ही दूर पर यूके के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की आलीशान मूर्ति थी। उस मूर्ति के साथ फोटो खिंचवाने के लिए लंबी लाइन थी। इसके बाद हमने टेफल्गेर स्कावयर का रुख किया। वहां आर्ट गैलरी भी थी जहां महान कलाकारों द्वारा बनाई हुई अद्भुत पेंटिग्स बनी हुई थीं। पेंटिंग्स में मुझे कुछ खास समझ तो नहीं आईं पर हां उनमें रंगों का खेल बहुत अच्छा था। देखते ही देखते समय कैसे बीत गया कुछ पता नहीं चला। शाम होने लगी और हम लोग घर की तरफ बढ़ गये। मुझे और मम्मी को भारतीय समय के हिसाब से जल्दी नींद आने लगती थी। घर आते ही हम दोनों सो गये। उस अद्भुत दिन के ख्वाबों में डूबने के लिए।

ग्रीनविच- एक बात इस देश की बड़ी ही अजीब थी कि गर्मियों में यहां रात के आठ बजे सूरज ढलता था। दस बजे तक तो उजाला ही रहता था। सुबह चार बजे ही फिर से सूरज दादा प्रेजेंट लगा देते थे। वहां धूप कितनी भी रहे हल्की सी हवा ठिठुरा ही देती थी। अगले दिन हमारे साथ मामी भी गईं। हम सब लोग जा रहे थे ग्रीनविच। माना जाता है कि ग्रीनविच से एक काल्पनिक रेखा गुजरती है जिसे समय का घर भी कहा जाता है। 
अंदर जाकर एक संग्रहालय था जिसमें छोटे-छोटे पुर्जों से बनी हुई कई छोटी सी मशीने थीं। एक लकड़ी से बनी दूरबीन भी थी जो कि पहले के समय में बहुत दूर तक का रास्ता दिखाती थी। सबसे सुंदर चीज वहां मुझे लगी खुले हरे-भरे मैदान। वहां कई बड़े व हरे मैदान थे जो कि सारा ध्यान अपनी ओर खींचते थे। उस दिन हमने वहां का सबसे चर्चित ब्रिज, 'टॉवर ब्रिज' देखा और एक अच्छा संयोग यह बना कि जब हम लोग वहां से गुजर रहे थे तब ही वहां उस टॉवर ब्रिज के नीचे से एक बड़ा जहाज गुजरा और अब समय था उस ब्रिज के खुलने का। ब्रिज धीरे-धीरे खुला। यह एकदम अकल्पनीय दृश्य था। मामा ने कहा की वो इतने सालों से लंदन में हैं लेकिन ऐसा नज़ारा तो उन्होंने भी कभी नहीं देखा था. उसके बाद हम लोग मामी के एक दोस्त के घर डिनर के लिए गए। वहां जाकर हमने ढेर सारी मस्ती की. 

(अगली कड़ी में शेक्सपियर का घर, मैडम तुषाद म्यूजियम और थेम्स में मस्ती...जारी...)

Thursday, October 27, 2016

सपनों सा सफ़र, सफर में सपने...ख्वाहिश की लंदन डायरी



जबसे पता चला था कि 2 जून 2016 को मैं अपने मामा मामी के पास मम्मी के साथ लंदन जाने वाली हूं वो भी पूरे 20 दिन के लिए मुझे यह सब एक सपने जैसा लग रहा था। मैंने यह सब बात अपनी सबसे प्रिय मित्र कोमल को बताई तो वह भी मेरे लिए बहुत खुश हुई। वह रोज मुझसे पूछती कि मेरी तैयारी कहां तक पहुंची। हर दिन मानो जैसे एक साल जितना लंबा लगता था। दिन ही नहीं कट रहे थे। दिन में कम से कम मेरी और मम्मी की लंदन जाने के बारे में  दस बार बात होती थी। सबसे ज्यादा उत्सुकता मुझे यह थी कि नया देश देखना कैसा अनुभव होता है. मेरे लिए यह सब किसी ख्वाब सा था। मम्मी को हल्की सी चिंता भी थी कि हम लोग ठीक से बिना किसी मुश्किल के मामा के पास पहुंच जायें। 

आखिर वो दिन आ ही गया जिसका इंतजार था। सफर कुछ इस तरह था कि हम पहले देहरादून से दिल्ली गये और फिर दिल्ली से लंदन। हम लोग सुबह से तैयारी करते-करते आखिरकार ट्रेन  में बैठ ही गये। रात का वक्त था। हम लोग खाना खाकर ख्वाबों के साथ सो गये। सुबह आंखें खुलीं तो मानो सूरज कह रहा हो कि बस अब उठो, दिल्ली आ चुका है। जल्दी से मैं और मम्मी ट्रेन से उतरे और जैसा कि तय हुआ था पापा हमें स्टेशन लेने आये। हम पापा के साथ मेट्रो पकड़कर सीधे एयरपोर्ट पहुंचे। पहली बार मैंने अंतरर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा देखा था। हम लोग अंदर गये और पता नहीं क्यों मुझे अजीब सा लगने लगा। जबकि यह तो पता ही था कि 20 दिन बाद वापस आना है। शायद यह पहली बार अपने देश से दूर जाने का एहसास के कारण हुआ हो। हर काउंटर पर जाकर पासपोर्ट दिखाना, जांच की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद हम एक जगह बैठे और हमने सबको फोन करके बता दिया कि हम अब हवाई जहाज में बैठने जा रहे हैं। थोड़ी ही देर में हम हवाई जहाज के अंदर थे। 

इतना बड़ा हवाई जहाज देखकर तो मेरी आंखें खुली की खुली रह गयीं। जब मैंने यह देखा कि हमारी कुर्सियों के आगे छोटे-छोटे टीवी लगे हैं तो मैंने सोचा कि अब दस घंटे अच्छे से कटेंगे। पर मेरी तबियत कुछ खास ठीक नहीं रही। मैंने अपना सर धीरे से मम्मी की गोद में रखा और ऐसे ही सफर कट गया। मैंने रास्ते में कुछ भी नहीं खाया पिया। जब मैं उठी तो उद्घोषणा हुई कि हम लंदन में उतरने वाले हैं। मम्मी के मना करने के बाद भी कान में एयर प्रेशर कम  करने वाली एक्सरसाइज न करके कान में रूई लगाई ताकि हवा के दबाव से दर्द न हो। 

कुछ ही समय के बाद हम लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर थे। वहां पर इमिग्रेशन कराने के बाद सामान लेकर हम बाहर निकले। सामने ही मामा खड़े नजर आए जो कि हमें लेने आए थे। हम लोग जैसे ही उनसे मिले मामा ने मम्मी के पैर छुए और मुझे गले लगा लिया। हम बाते करते हुए टैक्सी तक पहुंचे। वहां की ठण्ड देखकर मानो ऐसा लग रहा था कि भारत की सारी ठण्ड यही लोग चुरा लाए हों। दांत भी किटकिटा रहे थे। हम लोग टैक्सी की खिड़की के बाहर आश्चर्य से देख रहे थे। भारतीय समय के हिसाब से रात के 1 बजे थे इसलिए आंखों से नींद झलक रही थी। सब कुछ एक सुंदर सपना लग रहा था और ऐसा महसूस हो रहा था कि अभी मम्मी जोर से आवाज देंगी और सपना टूट जायेगा। लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। हां, मैं हकीकत में लंदन में थी। हम जैसे ही मामा के घर पहुंचे मेरी मामी और स्वाति दीदी ने हमारा स्वागत किया। इतने लंबे सफर के बाद मामी का बनाया हुआ स्वादिष्ट खाना खाकर मुझे बहुत मजा आया। क्योंकि मैंने रास्ते में कुछ नहीं खाया था इसलिए मेरी भूख भी खूब बढ़ी हुई थी। 

हमें नींद भी बहुत आ रही थी। हमने खाना खाने के बाद कुछ बातें की फिर सो गई। और फिर जेटलेग के हिसाब से हम सुबह पांच बजे उठ गये इसके बाद शुरू हुई हमारी घुम्मकड़ी...

(अगली कड़ी में बर्किनघम पैलेस, चर्चिल हाउस, ट्रेफ्लेगर स्क्वॉयर और, ग्रीनविच...)

Wednesday, October 26, 2016

ख्वाहिश का पहला लेख- लंदन यात्रा


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ख्वाहिश १३ बरस की हैऔर घुम्मकड़ी की शौक़ीन है. कब वो चुपके-चुपके अपनी डायरियों में अपने अनुभव लिखने लगी मुझे पता नहीं. पहली बार दो बरस पहले उसने खुद बताया था कि वो डायरी लिखती है लेकिन चाहती है उसकी डायरी कोई न पढ़े. जाहिर है मेरी जिम्मेदारी उसकी इस प्राइवेसी को बचाने की भी हो गयी. उसकी डायरियां भरने लगीं. मैंने यह ज़रूर महसूस किया कि उसे डायरी में एक बेस्ट फ्रेंड मिल गया है. एक बार जब उसकी डायरी गुम गयी थी, वो बेहदउदास हुई थी अपनी बेस्ट फ्रेंड के बिछड़ने से. तब जाना कि लिखना उसकी भी ज़रुरत है शायद, ऐसी जगह जहाँ उसे रिलीफ मिलती है. 

बहरहाल वो लिखती है, अपने लिए. लिखकर खुश रहती है. उसे पढने का भी कम शौक नहीं...लेकिन उसकी पढने की किताबें मेरे जाने बूझे से काफी अलग है...मैं उससे हर दिन सीखती हूँ. पिछले दिनों मैं और ख्वाहिश अपनी पहली विदेश यात्रा पर थे. ख्वाहिश ने इस यात्रा को भी अपनी डायरी में दर्ज किया. सुभाष राय अंकल ने जब उससे उन डायरी के कुछ पन्ने प्रिंट करने को मांगे तो उसने संकोच के साथ दे दिए...यह पहली बार था जब मैं अपनी बेटी की डायरी को पढ़ रही थी...जाहिर है उसकी इज़ाज़त से. मेरी पलकें नम थीं...उसकी भाषा, उसकी अभिव्यक्ति, और भाषा पर पकड़...सब कितना अनायास कितना सहज. माँ हूँ, ज़ाहिर है मेरे लिए ये पल ख़ास है...जब उसे पढ़ रही हूँ शब्दों में भी...लोगों को उसे पढ़ते हुए देख रही हूँ...

बहरहाल सुभाष अंकल की रिक्वेस्ट मानकर ख्वाहिश ने अपने नानू को तो खुश किया ही इस बहाने मुझे मेरी ही बेटी के भीतर छुपे कुछ नए अंदाज़ देखने, सुनने का मौका भी मिला. ख्वाहिश ने अपनी लंदन डायरी को प्रिंट करने की इज़ाज़त दे दी है...आज पहली बार प्रतिभा की दुनिया में प्रतिभा की ख्वाहिश का स्वागत करते हुए बहुत खुश हूँ...उसकी लंदन यात्रा के तमाम पन्ने एक सिलसिले की रूप में यहाँ लगातार सहेजती जाऊंगी...

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ख्वाहिश- लन्दन डायरी...जारी...

Thursday, October 20, 2016

सिर्फ तुम्हारा ख़याल...


सिर्फ तुम्हारा ख़याल
खिला देता है हजारों गुलाब
बहा देता कल कल करती नदियाँ
सदियों की सूखी, बंजर ज़मीन पर

तुम्हारा ख़याल
कोयल को कर देता है बावला
और वो बेमौसम गुंजाने
लगती है आकाश
टेरती ही जाती है
कुहू कुहू कुहू कुहू

तुम्हारा ख़याल
हथेलियों पर उगाता है
सतरंगा इन्द्रधनुष
काँधे पर आ बैठते हैं तमाम मौसम
ताकते हैं टुकुर टुकुर
खिलखिलाती हैं मोगरे की कलियाँ
बेहिसाब
हालाँकि मौसम दूर है
मोगरे की खुशबू का

तुम्हारे ख़याल  से
लिपट जाती है
मुसुकुराहटों वाली रुनझुन पायल
खनकती फिरती है समूची धरती पर

दुःख सारे चलता कर दिए हों
मानो धरती से
और चिंताएं सारी विसर्जित कर दी हों
अटलांटिक में
तुम्हारे ख़याल  ने

कंधे उचकाते ही
आ लगता है आसमान सर से
देने को आशीष
हवाओं में गूंजती हैं मंगल ध्वनियाँ
ओढती है धरती
अरमानों की चुनर

बस एक तुम्हारा ख़याल  है
मुठ्ठियों में और
शरद के माथे पर
सलवट कोई नहीं...

Tuesday, October 18, 2016

महिलाओं के सम्मान का नाटक फिर से - करवाचौथ के बहाने


लो जी, एक बार फिर करवाचौथ के मुद्दे पर चुप लगाकर रखने के मेरे निश्चय को डिगा ही दिया गया. इस बार यह काम किया है उत्तराखंड सरकार ने. सुबह-सुबह अदरक इलायची वाली चाय का जायका बेमजा कर दिया इस खबर ने कि उत्तराखंड सरकार करवाचौथ पर अवकाश घोषित करके इसे महिला सम्मान दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया है. माने कि देवियों, करवाचौथ के निर्जल अवकाश ने आपके दैवीय प्रभुत्व को और ऊंचा कर दिया है. मजे की बात यह है कि हमेशा की तरह पितृसत्ता का यह खेल एक बार स्त्रियों के खिलाफ ही है और लग इस तरह रहा है जैसे ये उनके हक में लिया गया कोई फैसला है.

महिला सम्मान दिवस मनाने के लिए स्त्रियों द्वारा पति की लम्बी आयु की कामना करने वाले इस निर्जला उपवास को क्यों चुना होगा सरकार ने? इस तरह तो बहुत सारे व्रत उपवासों को भी इस नज़र से देखे जाने की ज़रूरत होगी. आखिर क्यों हर बरस करवाचौथ का यह पागलपन बढ़ता ही जा रहा है..? क्योंकि इस खेल के बढ़ते जाने से सबका फायदा है सिवाय उस स्त्री के जो इसके निशाने पर है...वो ख़ुशी ख़ुशी सज संवर के तैयार होकर, न सिर्फ पितृसत्ता की जड़ें मजबूत कर रही है, इससे खुश भी है.

हम पढ़ते लिखते लोग हैं, समाज हैं. जनगणना के पिछले आकडे बताते हैं कि हम एक अशिक्षित समाज से शिक्षित समाज में तब्दील हो चुके हैं. हमने पहले की अपेक्षा ज्यादा डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, पीसीएस पैदा किये हैं. ये डिग्रीधारी समाज सचमुच शिक्षित भी हुआ है क्या इस पर काफी सवाल हैं. हमारी सोचने विचारने की गति और दिशा कहाँ से तय होती है. क्या हम स्वयं तार्किक होते हैं या हवाओं के रूख के साथ चल पड़ते हैं.

सवाल सिर्फ करवाचौथ का नहीं है सम्पूर्णता में हमारे सोचने और विचारने का है, बने-बनाए चमकीले रास्तों को छोड़कर चलने का है. क्यों किसी स्त्री ने खुद आवाज नहीं उठाई कि ‘महिला सम्मान दिवस’ के तौर पर मनाने को यही त्यौहार मिला था सरकार को. यह सरकार का स्त्रियों को तोहफा नहीं है उसके द्वारा पित्र्सत्ता को मजबूत करने की साजिश है. सरकार की भूमिका होती है कि वो ऐसे समाज का निर्माण करे जहाँ सबके हितों की रक्षा हो. समता, समानता के समाज की संविधान की परिकल्पना को सरकारें इस तरह मुह चिढाएंगी तो क्या उम्मीद की जा सकती है.

महिला सम्मान दिवस...ये सरकारी उन्माद की इंतिहा है, अख़बार, टीवी चैनल कई सालों से जिस तरह इस पागलपन से उफनाये रहते हैं वो कम नहीं थे क्या जो अब सरकारें भी कूद पड़ी हैं इस यज्ञ में. आखिर किस ओर जा रहे हैं हम? अभी हम इन बातों की बहस में ही उलझे थे कि हमारी शिक्षा हमें कितना तार्किक बना रही है. क्या हम वैज्ञानिक सोच के समाज होने की ओर अग्रसर हो सकेंगे कभी. कोई बड़ी बात नहीं कि कल को पाठ्यपुस्तकों में करवाचौथ, अहोई अष्टमी आदि की कथाएं शामिल हो जाएँ.

निश्चित रूप से महिलाएं सरकार की इस घोषणा से खुश होंगी. महिला सम्मान दिवस के तौर पर करवा चौथ मनाते हुए शायद ही किसी के मन में यह ख्याल आये कि यह असल में पतनशील समाज की ओर बढ़ना है. यही है पितसत्ता का खेल. एक सिंहासन बनाकर उस पर स्त्रियों को बिठा दो. जयकारे लगाओ उनकी ममता के, समर्पण के, उनकी खामोश रहकर सब सहने की शक्ति के, अपने लिए नहीं दूसरों के लिए सोचने के, खुद भूखे रहकर परिवार का पेट भरकर अन्नपूर्णा बनने के, खुद एनीमिया से जूझते हुए मुस्कुराते रहने के, बीमारी की हालात हो या गर्भ का नौवां महीना, उनके निर्जला व्रत रहकर पति और पुत्र की लम्बी आयु की कामना करने के...जय हो...जय हो देवियों...देखो तुम्हारे इस त्याग पर सरकार ने खुश होकर अवकाश घोषित कर दिया है. इसके लिए सरकार ने अपना मोतियों का हार तुम पर निछावर किया है और तुम्हारे सम्मान के रूप में इस दिवस को महिला सम्मान दिवस घोषित किया है. तुम्हारा सिंहासन जितना मजबूत होगा उतना मजबूत होगा पित्र्सत्ता का सिंहासन. स्त्रियों को भी खुद को दैवीय सिंहासन पर बैठने में आनंद आता है और अपने पति को परमेश्वर बनाने में. गैर बराबरी की बुनियाद पर बने रिश्तों वाले समाज में किस निरपेक्ष भाव की उम्मीद कर रहे हैं हम. किस प्रगतिशीलता की.

प्रगतिशील महिलाएं भी अपनी प्रगतिशीलता को कुछ देर को स्थगित कर ही देती हैं. कि मेहँदी, चूड़ी, गहनों से चमकता बाज़ार खींचता जो है. धर्म से, आस्था से, फैशन और बाज़ार तक आते हुए हम भूल गए कि भाई के द्वारा ढेर सारा सामान लेकर न पहुँचने पर छोटी बहू को ताने मारने वाली करवाचौथ की कथा के भीतर किस तरह का मर्म है छुपा है...कि पति की लम्बी आयु के लिए एक भाई का होना ज़रूरी है, उसका धन धान्य से परिपूर्ण होना ज़रूरी है तभी व्रत सफल होगा.

खैर, परम्पराओं के उन्माद के, उनके पोषण के इस खेल में अब जबकि सरकारें भी शामिल हो चली हैं तो बाज़ार के इस उत्सव की चमक को बढ़ना ही है. महिलाओं के सम्मान के बहाने उन्हें लगातार रूढ़िवादिता की ओर धकेलना कौन सी प्रगतिशीलता का परिचायक है सोचना तो होगा ही.



Sunday, October 16, 2016

अक्टूबर की हथेली पर...


अक्टूबर की हथेली पर
शरद पूर्णिमा का चाँद रखा है
रखी है बदलते मौसम की आहट
और हवाओं में घुलती हुई ठण्ड के भीतर
मीठी सी धूप की गर्माहट रखी है

मीर की ग़ज़ल रखी है
अक्टूबर की हथेली पर
ताजा अन्खुआये कुछ ख्वाब रखे हैं

मूंगफली भुनने की खुशबू रखी है
आसमान से झरता गुलाबी मौसम रखा है
बेवजह आसपास मंडराती
मुस्कुराहटें रखी हैं
अक्टूबर की हथेली पर

परदेसियों के लौटने की मुरझा चुकी शाख पर
उग आई है फिर से
इंतजार की नन्ही कोंपलें

अक्टूबर महीने ने थाम ली है कलाई फिर से
कि जीने की चाहतें रखी हैं
उसकी हथेली पर
धरती को फूलों से भर देने की
तैयारी रखी है

बच्चों की शरारतों का ढेर रखा है
बड़ों की गुम गयी ताकीदें रखी हैं
उतरी चेन वाली साइकिल रखी है एक
और सामने से गुजरता
न खत्म होने वाला रास्ता रखा है
अपनी चाबियाँ गुमा चुके ताले रखे हैं
मुरझा चुके कुछ ‘गुमान’ भी रखे हैं

अक्टूबर की हथेली पर
पडोसी की अधेड़ हो चुकी बेटी की
शादी का न्योता रखा है
कुछ बिना पढ़े न्यूजपेपर रखे हैं
मोगरे की खुशबू की आहटें रखी हैं
और भी बहुत कुछ रखा है
अक्टूबर की हथेली में

बस कि तुम्हारे आने का कोई वादा नहीं रखा...

Saturday, October 15, 2016

सिर्फ तुम और मैं



पाब्लो नेरुदा की दो प्रेम कवितायेँ 

 महारानी

मैंने तुम्हें नाम दिया है महारानी
तुमसे ज्यादा कद्दावर लोग हैं, ज्यादा कद्दावर
तुमसे ज्यादा खरे लोग हैं, ज्यादा खरे
तुमसे ज्यादा खुशनुमा लोग हैं,ज्यादा खुशनुमा
लेकिन तुम महारानी हो.

तुम जब गलियों से होकर गुजरती हो
कोई तुम्हें पहचान नहीं पाता
कोई देख नहीं पाता तुम्हारा बिल्लौरी मुकुट
कोई निरख नहीं पाता, लाल सुनहरी कालीन
जिस पर से होकर तुम गुजरती हो
वह मायावी कालीन

और जब तुम सामने आती हो
सारी नदियाँ मेरे भीतर कल कल कर उठती हैं.
घंटियाँ आसमान गुंजाने लगती हैं.
और समूची दुनिया एक ऋचा की गुंजार से भर जाती है

सिर्फ तुम और मैं
सिर्फ तुम और मै मेरे प्यार
उसे सुनते हैं


तुम्हारी हँसी


रोटी मुझसे छीन लो अगर चाहो
हवा छीन लो लेकिन
अपनी हँसी न छीनना मुझसे
गुलाब न छीनना मुझसे
वह नुकीला फूल जिसे तुमने तोडा

पानी जो यक- ब –यक
तुम्हारी ख़ुशी में से फूट निकलता है.
तुममें उठती चांदी की औचक हिलोर.
कठिन ,कठोर है मेरा संघर्ष
थकी और भारी आँखें लिए मैं वापस आता हूँ
कभी-कभी बेहौसला, दुनिया को देख कर,
लेकिन जब तुम्हारी हँसी फूटती है
आसमान तक उठ जाती है मुझे तलाशती हुई
और जिंदगी के सारे दरवाजे मेरे लिए खोल देती है.
मेरे प्यार,

सबसे काले दौर में भी प्रकट होती है तुम्हारी हँसी
और अगर यक- ब-यक
तुम्हें मेरा खून गली के पत्थरों को रंगता नजर आये
प्रिये, तुम हँसना
तुम्हारी हँसी मेरे हाथों के लिए
चमकीली तलवार बन जायेगी.
शरत में सागर से नीचे
तुम्हारी हँसी को उसका फेनिल प्रपात निर्मित करना है
और बसंत में प्रिये
मैं तुम्हारी हँसी को
अपने प्रतीक्षित पुष्प की भांति देखना चाहता हूँ
नीलकुसुम की भांति
अपने अनुगुंजित देश के गुलाब की भांति
हँसो रात पर
हँसो दिन पर
चन्द्रमा पर हँसो
इस द्वीप की बलखाती गलियों पर हँसो
हँसो इस बेढंगे बालक पर
जो तुम्हें प्यार करता है,

लेकिन जब मैं अपनी आँखें खोलूं
बंद करूँ जब मैं अपनी आँखें
जब मेरे कदम बाहर निकलें
जब मेरे कदम वापस लौटें –
रोटी को बेशक मुझे इंकार कर देना
हवा, रोशनी,वसंत को भी चाहे ;
लेकिन अपनी हँसी को कभी नहीं ...
कभी नहीं, वरना में मर जाऊँगा.

Friday, October 14, 2016

मिर्ज़या- एक महकती सी फिल्म...


कुछ है जो गुज़र रहा है. कुछ है जो गुजर चुका है लेकिन गुजर ही नहीं रहा है...दूधिया कोहरे की वादियों में सदियों से बह रही हैं न जाने कितनी प्रेम कहानियां, हिचकी, नींदें...सदियों से कोई प्रेम कहानी सहराओं की गोद में समायी है, कोई चिनाब की धारों में बह रही है...क्या फर्क पड़ता है इन कहानियों के नायक कौन है नायिका कौन है...कैसे बढती है प्रेम की दास्ताँ, कैसे पहुँचती है अंजाम तक...अंजाम होता क्या है, इश्क़ का कोई अंजाम हो भी कैसे सकता है भला...इश्क़ में होना ही तो होना है जीवन में...सही, गलत, अच्छा, बुरा सबसे पार...बस इश्क़.

मिर्ज़या उन सदियों से बहती तमाम इश्क की दास्तानों में से एक दास्तान है...उसे सेल्युलाइड के परदे पर उतारते हुए बेपरवाह रहना बाज़ार के तमाम नियमों से, बेपरवाह रहना बॉक्स ऑफिस के नियमों से...बस प्रेम से जी लेना एक प्रेम कहानी को, और उसे प्रेम से परदे पर सजा देना...गुलज़ार, राकेश ओम प्रकाश मेहरा और शंकर एहसान लॉय का साथ दिया है फिल्म के किरदारों ने. फिल्म रगों में उतरती जाती है...नन्हे मुनीश और सुचित्रा...मुनीशा और सुच्ची की मासूम प्रेम कहानी...तिल के लड्डू का स्वाद, हथेलियों पे पड़ती मास्टर साब की छड़ी...चोट कहीं लगती है और दर्द कहीं होता है...लैला की हथेलियों पे पड़ती छड़ी हो या सुच्ची की हथेलियों पर दर्द तो मजनू और मुनीशा ने ही सहा...

राकेश फिल्म के साथ बहते जाते हैं...और उस बहने का सुख लेते हैं...ज्यादा कहन नहीं है फिल्म में...महसूसना ज्यादा है...दृश्य हैं, भाव हैं...संवाद ज्यादा नहीं...संवाद कविता से झरते हैं...संवादों से ज्यादा झरता है मौन...

कहानी के बारे में बात करने को कुछ है नहीं हमेशा की तरह, प्रेम कहानी एक लाइन की तो होती है...एक लड़का एक लड़की, प्रेम और दुश्मन जमाना...एक का सही दुसरे का गलत...बस इतना ही न.

फिल्म में बेकार की तकरार नहीं, बहसबाजियाँ नहीं, सवाल जवाब नहीं, घटनाओं के होने की वजहों का नैरेशन नहीं बस जो जैसा है, वो वैसा है...सही या गलत.

मिर्जया यानि मुनीश के किरदार में हर्ष, साहिबा यानि सुचित्रा के किरदार में सियामी, जीनत के किरदार में अंजलि पाटिल, करन के किरदार में अनुज चौधरी...अपने अपने प्रेम को अपनी अपनी तरह से जी रहे हैं...जीनत के किरदार में अंजलि पाटिल बेहद प्रभावी हैं. जीनत जितनी देर स्क्रीन पर रहती है उसके चेहरे से प्रेम का नूर टपकता नज़र आता है...हालाँकि कहीं उस प्रेम का प्रदर्शन नहीं है...उसका प्रेम नज़र आता है आदिल यानि हर्ष की पीठ पर लोहे की छड़ से दाग देकर बचपन का आदिल का प्रेम का निशान यानि टैटू मिटाते वक़्त...वो जानती है कि वो जिसके प्रेम में है वो किसी और के प्रेम में है...पहली बार जब सुच्ची को देखती है तो भीग जाता है उसका मन. उसे रस्म के मुताबिक कंगन पहनाती है...सुच्ची भी उसे देखते ही समझ जाती है कि वो आदिल यानी उसके मुनीशा के प्रेम में है...वो भी उसे अपना कंगन पहनाती है...कोई ईर्ष्या नहीं, कोई शिकायत नहीं...दोनों गले लगकर रोती हैं. सिहरन सी महसूस होती है.

फिल्म रोने धोने वाली नहीं है, प्रेम को बूँद-बूँद ज़ज्ब करने वाली है. एक और दृश्य जेहन से उतर ही नहीं रहा जब सुच्ची बरसों बाद लौट रही है. एयरपोर्ट पर उसके पिता, उसका प्रेमी और एक मुनीम जी या सेवक जो भी कहिये वो आये हुए हैं...ये वही मुनीम जी हैं जो बचपन में उसका स्कूल बैग लेकर बस में बिठाने जाते थे...एयरपोर्ट पर सुच्ची पिता से गले लगती है, प्रेमी से भी गले मिलती है लेकिन जो दृश्य आँखें भिगोकर चुपके से निकल जाता है वो है उन मुनीम जी का सुच्ची बिटिया को प्रेम से देखना, नमस्ते करने और उसके सर पर हाथ फेर देना...ऐसा ही तो होता है प्रेम...छोटी छोटी चीज़ों में चुपके से आसपास से गुजरता हुआ.

एक खूबसूरत जिन्दगी सामने थी लेकिन उसके बचपन का प्रेम था कि एक पल को हाथ छोड़ ही नहीं रहा था. हर वक़्त मुनीशा के किस्से, उसकी बातें और एक रोज़ जब मुनीशा अपना होना नहीं ही छुपा पाया तो बस सैलाब तो आना ही था...

कोई दुराव छुपाव नहीं, जो है सो है बस...प्रेम तो ऐसा ही होता है न...बेबस कर देने वाला...बहा ले जाने वाला...एक नदी थी दोनों किनारे थाम के बैठी थी...तोडती तो सैलाब आ जाता. अपने मंगेतर को देखती है, समझती है उसका कोई दोष नहीं फिर भी प्यार तो मुनीशा से ही है...क्या करे वो...

सब अपने अपने एहसासों की जकडन में कैद हैं...कोई ज़माने की परवाह में, कोई अपने अहंकार में, कोई प्रेम में जान ले लेने से हिचकता नहीं, कोई मुस्कराकर जान देक्रर जी लेता है जिन्दगी...

जीनत जहाँ मुस्कुराकर अपनी जान हथेली पे लेकर सुच्ची को मुनीशा से मिलाने जा पहुँचती है और उसकी सुहाग की चुनर पहनकर प्रेम में जीवन को सार्थक करते हुए मौत को गले लगाती है वहीँ करन बन्दूक लेकर निकल पड़ता है जान लेने के लिए...

सुच्ची और मुनीशा की इस मीठी सी प्रेम कहानी में मिर्जया और साहिबा की प्रेम कहानी चाय में गुड की तरह आकर घुलती रहती है...वो जबरन लायी गयी नहीं लगती...एहसासों के आवेग को थियेट्रिकल ट्रीटमेंट से बेहद खूबसूरत बना दिया है राकेश ने.

तमाम प्रेम के दृश्य मोहते हैं...संवादों को मौन रिप्लेस करता है...मौत पीछे भाग रही है और दो प्रेमी बाइक पे यूँ उड़ रहे हैं मानो दुनिया से उनको कोई निस्बत ही नहीं...कोई डर नहीं, कोई योजना नहीं...बस प्रेम...बाइक का प्रेट्रोल ख़त्म, दूर दूर तक कोई रास्ता नहीं...उनका पीछा करते लोग कभी भी आ पहुँचने को हैं और दोनो प्रेमी भय विहीन एक दुसरे को जिस तरह देखते हैं...उन्हें देख लगता है जी लिए बस, अब क्या करना है देह का.

साहिबा द्वारा मिर्ज्या के तीर तोडना उसे अपने प्रेम के लिए दूसरों की जान न लेने के एहसास से जुड़ा है. उसे अपने प्रेमी की सामर्थ्य पर पूरा यकीं है और उस यकीं पर वो सर रखकर सो जाती है...सुकून से...सुच्ची...साहिबा...मुनीशा...मिर्ज्या...इस प्रेम कहानी में जीनत का जिक्र अलग से ज़रूरी है.

आसमान से नेह की चादर बरसती है...दोनों प्रेमियों को फूलों से ढँक देती है...दो मोहब्बत जीने वाले लोग...

फिल्म का स्वाद तिल के लड्डुओं के स्वाद सा रह जाता है जबान पर....हथेलियों पर मास्टर जी की छड़ी की चटाक भी दर्ज ही रहती है... पूरी फिल्म कविता है... पेंटिंग है... थियेटर है...रंग है, खुशबू है...फिल्म खत्म हो जाएगी लेकिन उसकी खुशबू खत्म नहीं होगी...वो ज़ेहन में महकती रहेगी...कस्तूरी सा प्रेम...रगों में दौड़ता प्रेम...

सिनेमोटोग्राफ़ी कमाल है और एडिटिंग ने फिल्म में प्राण फूंके हैं...संगीत तो है ही...जो पूरी फिल्म को एक सुर में बांधे रखता है.

तीन गवाह हैं इश्क के...एक तू, एक मैं और एक रब...फिल्म के सारे गाने संवाद का काम करते हैं...हौले हौले मोहब्बत की इस दास्ताँ को झूला झुलाते हुए आगे बढ़ाते हैं...

मोम का सूरज पिघले, आग का पौधा निगले सुन तेरी दास्ताँ ओ मिर्ज्या....

Thursday, October 13, 2016

शोर अच्छा नहीं लगता...



कुछ दिनों से अपने 'स' की तलाश में फिर से भटक रही हूँ. इस भटकन में सुख है. अकसर लगता है कि बस अब पहुँचने वाली हूँ, कहाँ पता नहीं लेकिन वहां शायद जहाँ इस भटकन से पल भर को राहत हो. राहत, क्या होती है पता नहीं... खिड़की के बाहर देखने पर पडोसी के घर के फूल नज़र आते हैं, वो राहत है, अपने पौधों में इस बार कलियाँ कम आई हैं इसकी चिंता है...वो जिसे अपना कहकर रोपा था, उसे सहेज नहीं पा रही हूँ शायद, वो जो कहीं और खिल रहा है वो अपना ही लग रहा है....ये अपना होता क्या है आखिर...वो जिसे सहेज के पास रख सकें या जो दूर से अपनी खुशबू, अपने होने से मुझे भर दे...

आज फिर 'यमन' शुरू किया...फिर से. मुझे इस राग के पास सुकून मिलता है इन दिनों. 'क्यों' पता नहीं. कभी ऐसा सुकून मालकोश के पास मिला करता था. तो क्या राग बदल गया, या मौसम, या मन का मौसम...उन्हू मौसम तो वही है...किसी कमसिन की पाज़ेब की घुँघरूओं सा. सरगोशियाँ करता, इठलाता, मुस्कुराता . राग भी वही है...यानि मुझे खुद से ही बात करनी चाहिए. कर ही रही हूँ. सारे जहाँ में बस एक 'स' नहीं मिलता. सब मिलता है. त्योहारों का मौसम है, बाज़ार सजे हैं...अक्टूबर का महीना है, आसमान से रूमानियत टपक रही है...अनचाहे मुस्कुराहटें घेर लेती हैं...लेकिन 'स' नहीं लग रहा. कल रात लगते लगते रह गया. ये तार झन्न से टूट गया...हमेशा टूटता है...तार बदल सकता था..लेकिन मन नहीं...तार बहुत हैं पास में, मन एक ही है बस.

सुबह के दोस्तों से मुखातिब होती हूँ, उन्हें कोई फ़िक्र नहीं...उन्हें बस दाना खाने से और दाना खाकर उड़ जाने से ही मतलब है..जाने उनका सुख दाना है या उड़ जाना, पर वो सुख में लगते हैं...सुख में लगना भी अजीब है...मैं भी लगती हूँ शायद, सबको लगती हूँ, खुद को भी...लेकिन हूँ क्या...अगर हूँ तो मेरा 'स' कहाँ गुम गया है. अगर वो इतना गैर ज़रूरी है तो उसे ढूंढ क्यों रही हूँ. पागलपन्ती ही तो है सब...कोई 'स' 'व' नहीं होता ज्यादा मत ढूंढ, सो जा चैन से, मन मसखरी करता है...हंसती हूँ...

शोर अच्छा नहीं लगता, मैं उससे कहती हूँ...तो कहाँ है शोर...शांति ही तो है...वो मुझसे कहता है...शांति बाहर है न, भीतर बहुत शोर है...बाहर से आने वाले शोर के रास्ते बंद करना जानती थी, सो कर लिए भीतर के शोर से मुक्ति के रास्ते तलाश रही हूँ...एक झुण्ड पंछियों का लीची के पेड़ से फुर्रर से उड़कर आसमान की ओर रवाना हुआ है...मेरा आसमान कहाँ है....

Wednesday, October 5, 2016

क' से कविता...मैं से मुक्ति का सफ़र....



न जाने किस उम्र में कब उसने अपनी उंगली थमाई थी, बस इतना याद है कि उसकी पहली छुअन बचपन के किसी कोने में दर्ज हुई थी, तबसे आज तक अहसास बढ़ते गये, शिद्दत बढ़ती गई, प्यास बढ़ती गई। प्यास पढ़ने की। कविताएं पढ़ने की। एकाकी बचपन में कोई दोस्त अगर था तो बस किताबें थीं। कविता और कहानी का अंतर भी न पता था, तबसे कविता जी लुभाती है। हालांकि अंतर तो अब भी पता नहीं। जाने कहां-कहां मिल जाती है कविता उपन्यास मंे, कहानी में, बतकही में, आम की बौर में, सड़क पर, पगडंडी में, खेतों में कभी-कभी चमचम करते सुनहरे शहरों में भी।

इसी कविता प्रेम के चलते पिछले कुछ महीनों से कविता की बैठकी शुरू की। क से कविता। देहरादून में तीन दोस्त जमा हुए मैं, सुभाष रावत और लोकेश ओहरी। सोचा कि रोजमर्रा की भागदौड़ में कविताओं से वो जो एक दूरी सी बनने लगी है उस दूरी को कम करते हैं...मिलकर कुछ देर सुनते सुनाते हैं कविताएं...

न...न...न...हम तीनों दोस्तों में से कोई भी कवि नहीं है। मुझ पर छुटपुट ये आरोप लगते जरूर हैं लेकिन हूं मैं भी कविता प्रेमी ही अपने बाकी दोनों दोस्तों की तरह। कविता ही क्यों साहित्य, संस्कृति की उन तमाम धाराओं से हमारा लगाव है जो दरअसल मनुष्यता को गढ़ती हैं, उनके हक में खड़ी होती हैं, जो समूची धरती को भौगोलिक नक्शों, असलहों और राजनैतिक बयानों से बहुत दूर रखती है। कविता जो “मैं“ से मुक्त करती है और कवि को फक़ीर बनाती है।

लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि कबीर का दौर बीत चुका है। फकीर कहां रहे अब, कवि बचे हैं बहुत सारे। कभी-कभी लगता है कि इतने सारे कवि हंै कि कविता इन सबसे डरकर दूर कहीं जा छुपी है। चहुंओर मंच सजे हैं, अपनी-अपनी किताबें सर पर लादे तमगे गले में टांगे लोग आत्ममुग्धता में आकंठ पैबस्त हैं। खुद को और अपनी कविता को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में दूसरे को नीचा दिखाने की अजीब सी कवायद चल पड़ी है। ऐसे में एक पाठक है बेचारा जो घबराया हुआ है। उसके पास भी है कुछ कहने को, वो कह नहीं पाता। किसको फुरसत है उसे सुनने की। पाठक हाशिए पर है। पाठक अपनी सरल सी अभिव्यक्ति के साथ उपेक्षित खड़ा है, उसकी अभिव्यक्ति की ओर किसी का ध्यान नहीं।

सोचती हूं कि क्या बिना मनुष्य हुए कवि हुआ जा सकता है? अगर आपकी बहुत अच्छी कविताएं किसी का चूल्हा जलाने के काम आएं तो आपको सुख होना चाहिए...बिना अपना नाम लिखे क्या आपमें अपनी कविताओं को आकाश में उछाल देने का साहस है? क्या सचमुच कविता लिखने के बाद, छपने के बाद, पुरस्कृत होने के बाद भीतर की विनम्रता, चुपके से किसी अंहकार में तब्दील हो गई है और लिखने वाले को पता भी नहीं चला...तो सचमुच ऐसे कवि और कविता दोनों की जरूरत न समाज को है न समय को।

संभवतः ऐसी उथल-पुथल रही होगी जिसके चलते एक लंबे समय से मैंने खुद को समेट लिया था, कहीं साहित्यिक जलसों में आना-जाना, मिलना-जुलना बंद, साहित्यिक पत्रिकाओं को से भी माफी मांग ली थी अरसे से। कभी किसी रोज कोई किताब उठाती बालकनी में धूप सेंकते हुए चिड़ियों के शोर के बीच पढ़ती, कभी नहीं भी पढ़ती। यात्राएं करती...पढ़ती...कभी नहीं भी पढ़ती। नदी के किनारे अकेले घंटों बैठकर चुपचाप किसी पहाड़ी को निहारती और कुछ कविताएं पढ़ती, कभी नहीं भी पढ़ती, कभी मीलों पैदल चलते हुए कोई कविता भीतर से गुजरती हुई मालूम होती, उसकी खुशबू सफर को आसान बना देती...एक अरसे से कविताएं इसी तरह साथ हैं...यकीन मानिए सुख है इनके संग इस तरह होने का। वो शोर नहीं करतीं मुझे पढ़ो, मुझे पढ़ो का, बल्कि कहती हैं मौसम जी ले पगली, मैं भी वहीं हूं। कभी भीतर की कोई पीड़ा, कोई बेचैनी उसके करीब ले जाकर खड़ा कर देती और वो सर पर हाथ फिरा देती।

इस बीच जब “क“ से कविता का विचार बना और सुभाष और लोकेश दोनों दोस्तों को बात जम गई तो यह विचार ही किसी कविता सा लगा कि पहाड़ के किसी कोने में रोजमर्रा की आपाधापी में से चंद लम्हे चुराकर अपनी पसंद की कविताएं सुनना, सुनाना...।

हम चल पड़े कविता का हाथ थामकर...कारवां अब बनने लगा है। लोग आते हैं, खुद। छूटते भी जाते हैं खुद। छूटने वालों को कुछ न जमता होगा, आने वालों को कुछ तो जमता होगा। जो भी हो, हमारी हथेलियों में कुछ अच्छी शामें ठहरने लगीं, कुछ ऐसी कविताओं से परिचय बढ़ने लगा जिन तक अभी पहुंचे न थे।

जब हमने “क“ से कविता के बारे में सोचा था तो यही कि इस कार्यक्रम को चारागाह नहीं बनने देंगे। चारागाह यानी मैं....मैं...मैं....मैं.....के शोर से दूर ही रखेंगे। जल्द ही समझ में आ गया था कि यह आसान नहीं होगा, लोगों के भीतर “मैं“ की खेती इस कदर हो चुकी है कि जाने कहां-कहां से, किस-किस रूप में वो बाहर आता है...पर हमने ठान लिया था चारागाह तो नहीं ही बनने देंगे।

कोई मुख्य अतिथि नहीं, कोई मंच नहीं, कोई विशेष नहीं कोई शेष नहीं...सब कविता प्र्रेमी बस...इससे कोई समझौता नहीं...चाहे कोई रूठे, नाराज हो, चाहे अंत में हम तीन ही क्यों न बचें...

फिलहाल सफर चल रहा है, अच्छा चल रहा है। सुभाष इसे उत्तरकाशी, श्रीनगर और हल्द्वानी तक पहुंचा सके हैं। इस सफर में बहुत से अनुभव हो रहे हैं। वो भी सीखना है एक तरह का। लोगों के लिए पहले तो “अपनी कविताएं नहीं सुनाना है“ वाला “मैं“ उतारना ही मुश्किल था, वो उतरा जैसे-तैसे तो यह आग्रह झलकने लगे कि जो मेरी प्रिय है उसे कितनी तवज़्जो मिल रही है, मैं कितनी ज्यादा सुना सकूं।

“मैं कौन हूं...“ यह सवाल जो शायद अब तक खुद से कभी पूछा नहीं, लोगों को बताने आते तो लंबी फेहरिस्त निकलने लगी थी कि मैं ये हूं, मैं वो हूं, मैंने ये किया, मैंने वो किया। अक्सर सुझाव मिलते जो “क“ से कविता को किसी लेक्चर मोड की ओर ले जाते मालूम होते।

वरिष्ठों की वरिष्ठता छलकने के नये-नये रास्ते निकालती, लेकिन हम उन रास्तों के आगे हाथ गाये खड़े थे, खड़े हैं। यह बात सबको समझनी ही होगी कि “क“ से कविता की बैठकी सुनने का संस्कार है...एक-दूसरे की पसंद को एप्रिशिएट करने का भी। यह सिर्फ अपनी कविता न सुनाने भर का मामला नहीं है यह सचमुच धीरे-धीरे अपने “मै“ से निकलकर दूसरे को स्पेस देने, सुनने, समझने, एक-दूसरे की तरफ हाथ बढ़ाने का मामला है....

बैठकी का सुख है, खुद को भूलने का सुख होना...बैठकी का सुख है अच्छी कविताओं के करीब जा बैठना।

“क“ से कविता शायद उस “मैं“ को थोड़ा खुरच सके, उस “मैं“ के भीतर जो मासूम सा इंसान कहीं दुबक गया है एक रोज वो शायद बाहर आ सके....कोई बोझ न हो किसी पर....अपने नाम, अपने काम, अपनी पहचान, अपनी पसंद, नापसंद तक का कोई बोझ नहीं....ऐसे ही मुक्त माहौल में कविताओं के उड़ते फिरने की कामना है “क“ से कविता...

('क' से कविता छ महीने की यात्राः कुछ अहसास)