किसने बगिया में खिलाया है तेरी याद का चाँद, किसने सांसों में बसाई है तेरे वस्ल की खुशबू. ये किसकी हरारत है जो सर्द मौसम में घुल गयी है...कौन है जिसकी आहटों ने धरती को सजाया है. कोई चेहरा नहीं कहीं फिर भी कोई रहता तो आसपास ही है.
हाथों की लकीरों में कहाँ ढूँढा करते, कि लकीरें तो बचपन के छ्प्पाकों में गुमा आई थी लकीरें सारी...माँ हर वक़्त मेरी तक़दीर की चिंता में माथे पे लकीरें बढ़ाये फिरती रही...उसकी माथे की लकीरें मेरी हाथों की तक़दीर कैसे होतीं...कि मेरी तक़दीर उन लकीरों से बहुत आगे थी...
जब सबकी ड्योढ़ी पे बुझ जाता पूर्णमासी चाँद, मेरी बगिया में जलता रहता तेरे इन्तजार का चाँद... बुझता ही नहीं, कोई इस बात को बूझता ही नहीं...अमावस की डाल को तोड़कर दूर कहीं फेंक आई थी...चाँद उगता है, रोज मेरे आंगन में... आज भी उगा है वैसा ही तेरे इंतजार का चाँद...और एक जगजीत सिंह हैं कि चाँद को रुखसत कर देने की रट लगाये हुए हैं...जबकि मेरे गमखाने में सिर्फ चाँद ही आ सकता है...
जगजीत सिंह मानते ही नहीं....गाये जा रहे हैं...रिपीट में...
मेरे दरवाजे से अब,चाँद को रुखसत कर दो
साथ आया है तुम्हारे,जो तुम्हारे घर से
अपने माथे से हटा दो,ये चमकता हुआ ताज
फेंक दो जिस्म से किरनों का, सुनहरी जेवर
तुम्हीं तन्हा मेरे गमखाने में आ सकती हो
एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रखा है
मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद...
अपने माथे से हटा दो,ये चमकता हुआ ताज
फेंक दो जिस्म से किरनों का, सुनहरी जेवर
तुम्हीं तन्हा मेरे गमखाने में आ सकती हो
एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रखा है
मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद...
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