Friday, October 14, 2016

मिर्ज़या- एक महकती सी फिल्म...


कुछ है जो गुज़र रहा है. कुछ है जो गुजर चुका है लेकिन गुजर ही नहीं रहा है...दूधिया कोहरे की वादियों में सदियों से बह रही हैं न जाने कितनी प्रेम कहानियां, हिचकी, नींदें...सदियों से कोई प्रेम कहानी सहराओं की गोद में समायी है, कोई चिनाब की धारों में बह रही है...क्या फर्क पड़ता है इन कहानियों के नायक कौन है नायिका कौन है...कैसे बढती है प्रेम की दास्ताँ, कैसे पहुँचती है अंजाम तक...अंजाम होता क्या है, इश्क़ का कोई अंजाम हो भी कैसे सकता है भला...इश्क़ में होना ही तो होना है जीवन में...सही, गलत, अच्छा, बुरा सबसे पार...बस इश्क़.

मिर्ज़या उन सदियों से बहती तमाम इश्क की दास्तानों में से एक दास्तान है...उसे सेल्युलाइड के परदे पर उतारते हुए बेपरवाह रहना बाज़ार के तमाम नियमों से, बेपरवाह रहना बॉक्स ऑफिस के नियमों से...बस प्रेम से जी लेना एक प्रेम कहानी को, और उसे प्रेम से परदे पर सजा देना...गुलज़ार, राकेश ओम प्रकाश मेहरा और शंकर एहसान लॉय का साथ दिया है फिल्म के किरदारों ने. फिल्म रगों में उतरती जाती है...नन्हे मुनीश और सुचित्रा...मुनीशा और सुच्ची की मासूम प्रेम कहानी...तिल के लड्डू का स्वाद, हथेलियों पे पड़ती मास्टर साब की छड़ी...चोट कहीं लगती है और दर्द कहीं होता है...लैला की हथेलियों पे पड़ती छड़ी हो या सुच्ची की हथेलियों पर दर्द तो मजनू और मुनीशा ने ही सहा...

राकेश फिल्म के साथ बहते जाते हैं...और उस बहने का सुख लेते हैं...ज्यादा कहन नहीं है फिल्म में...महसूसना ज्यादा है...दृश्य हैं, भाव हैं...संवाद ज्यादा नहीं...संवाद कविता से झरते हैं...संवादों से ज्यादा झरता है मौन...

कहानी के बारे में बात करने को कुछ है नहीं हमेशा की तरह, प्रेम कहानी एक लाइन की तो होती है...एक लड़का एक लड़की, प्रेम और दुश्मन जमाना...एक का सही दुसरे का गलत...बस इतना ही न.

फिल्म में बेकार की तकरार नहीं, बहसबाजियाँ नहीं, सवाल जवाब नहीं, घटनाओं के होने की वजहों का नैरेशन नहीं बस जो जैसा है, वो वैसा है...सही या गलत.

मिर्जया यानि मुनीश के किरदार में हर्ष, साहिबा यानि सुचित्रा के किरदार में सियामी, जीनत के किरदार में अंजलि पाटिल, करन के किरदार में अनुज चौधरी...अपने अपने प्रेम को अपनी अपनी तरह से जी रहे हैं...जीनत के किरदार में अंजलि पाटिल बेहद प्रभावी हैं. जीनत जितनी देर स्क्रीन पर रहती है उसके चेहरे से प्रेम का नूर टपकता नज़र आता है...हालाँकि कहीं उस प्रेम का प्रदर्शन नहीं है...उसका प्रेम नज़र आता है आदिल यानि हर्ष की पीठ पर लोहे की छड़ से दाग देकर बचपन का आदिल का प्रेम का निशान यानि टैटू मिटाते वक़्त...वो जानती है कि वो जिसके प्रेम में है वो किसी और के प्रेम में है...पहली बार जब सुच्ची को देखती है तो भीग जाता है उसका मन. उसे रस्म के मुताबिक कंगन पहनाती है...सुच्ची भी उसे देखते ही समझ जाती है कि वो आदिल यानी उसके मुनीशा के प्रेम में है...वो भी उसे अपना कंगन पहनाती है...कोई ईर्ष्या नहीं, कोई शिकायत नहीं...दोनों गले लगकर रोती हैं. सिहरन सी महसूस होती है.

फिल्म रोने धोने वाली नहीं है, प्रेम को बूँद-बूँद ज़ज्ब करने वाली है. एक और दृश्य जेहन से उतर ही नहीं रहा जब सुच्ची बरसों बाद लौट रही है. एयरपोर्ट पर उसके पिता, उसका प्रेमी और एक मुनीम जी या सेवक जो भी कहिये वो आये हुए हैं...ये वही मुनीम जी हैं जो बचपन में उसका स्कूल बैग लेकर बस में बिठाने जाते थे...एयरपोर्ट पर सुच्ची पिता से गले लगती है, प्रेमी से भी गले मिलती है लेकिन जो दृश्य आँखें भिगोकर चुपके से निकल जाता है वो है उन मुनीम जी का सुच्ची बिटिया को प्रेम से देखना, नमस्ते करने और उसके सर पर हाथ फेर देना...ऐसा ही तो होता है प्रेम...छोटी छोटी चीज़ों में चुपके से आसपास से गुजरता हुआ.

एक खूबसूरत जिन्दगी सामने थी लेकिन उसके बचपन का प्रेम था कि एक पल को हाथ छोड़ ही नहीं रहा था. हर वक़्त मुनीशा के किस्से, उसकी बातें और एक रोज़ जब मुनीशा अपना होना नहीं ही छुपा पाया तो बस सैलाब तो आना ही था...

कोई दुराव छुपाव नहीं, जो है सो है बस...प्रेम तो ऐसा ही होता है न...बेबस कर देने वाला...बहा ले जाने वाला...एक नदी थी दोनों किनारे थाम के बैठी थी...तोडती तो सैलाब आ जाता. अपने मंगेतर को देखती है, समझती है उसका कोई दोष नहीं फिर भी प्यार तो मुनीशा से ही है...क्या करे वो...

सब अपने अपने एहसासों की जकडन में कैद हैं...कोई ज़माने की परवाह में, कोई अपने अहंकार में, कोई प्रेम में जान ले लेने से हिचकता नहीं, कोई मुस्कराकर जान देक्रर जी लेता है जिन्दगी...

जीनत जहाँ मुस्कुराकर अपनी जान हथेली पे लेकर सुच्ची को मुनीशा से मिलाने जा पहुँचती है और उसकी सुहाग की चुनर पहनकर प्रेम में जीवन को सार्थक करते हुए मौत को गले लगाती है वहीँ करन बन्दूक लेकर निकल पड़ता है जान लेने के लिए...

सुच्ची और मुनीशा की इस मीठी सी प्रेम कहानी में मिर्जया और साहिबा की प्रेम कहानी चाय में गुड की तरह आकर घुलती रहती है...वो जबरन लायी गयी नहीं लगती...एहसासों के आवेग को थियेट्रिकल ट्रीटमेंट से बेहद खूबसूरत बना दिया है राकेश ने.

तमाम प्रेम के दृश्य मोहते हैं...संवादों को मौन रिप्लेस करता है...मौत पीछे भाग रही है और दो प्रेमी बाइक पे यूँ उड़ रहे हैं मानो दुनिया से उनको कोई निस्बत ही नहीं...कोई डर नहीं, कोई योजना नहीं...बस प्रेम...बाइक का प्रेट्रोल ख़त्म, दूर दूर तक कोई रास्ता नहीं...उनका पीछा करते लोग कभी भी आ पहुँचने को हैं और दोनो प्रेमी भय विहीन एक दुसरे को जिस तरह देखते हैं...उन्हें देख लगता है जी लिए बस, अब क्या करना है देह का.

साहिबा द्वारा मिर्ज्या के तीर तोडना उसे अपने प्रेम के लिए दूसरों की जान न लेने के एहसास से जुड़ा है. उसे अपने प्रेमी की सामर्थ्य पर पूरा यकीं है और उस यकीं पर वो सर रखकर सो जाती है...सुकून से...सुच्ची...साहिबा...मुनीशा...मिर्ज्या...इस प्रेम कहानी में जीनत का जिक्र अलग से ज़रूरी है.

आसमान से नेह की चादर बरसती है...दोनों प्रेमियों को फूलों से ढँक देती है...दो मोहब्बत जीने वाले लोग...

फिल्म का स्वाद तिल के लड्डुओं के स्वाद सा रह जाता है जबान पर....हथेलियों पर मास्टर जी की छड़ी की चटाक भी दर्ज ही रहती है... पूरी फिल्म कविता है... पेंटिंग है... थियेटर है...रंग है, खुशबू है...फिल्म खत्म हो जाएगी लेकिन उसकी खुशबू खत्म नहीं होगी...वो ज़ेहन में महकती रहेगी...कस्तूरी सा प्रेम...रगों में दौड़ता प्रेम...

सिनेमोटोग्राफ़ी कमाल है और एडिटिंग ने फिल्म में प्राण फूंके हैं...संगीत तो है ही...जो पूरी फिल्म को एक सुर में बांधे रखता है.

तीन गवाह हैं इश्क के...एक तू, एक मैं और एक रब...फिल्म के सारे गाने संवाद का काम करते हैं...हौले हौले मोहब्बत की इस दास्ताँ को झूला झुलाते हुए आगे बढ़ाते हैं...

मोम का सूरज पिघले, आग का पौधा निगले सुन तेरी दास्ताँ ओ मिर्ज्या....

2 comments:

Unknown said...

बहुत ही सही सार्थक सुन्दर समीक्षा प्रस्तुत की आपने। बधाई ।

प्रभात said...

सुन्दर समीक्षा, अभी फिल्म नहीं देखा पर अब देखने की चाहत सी है।