Saturday, May 8, 2010

गिरगिटों से बातें

सचमुच कई बार भद्र लोगों से बात करना, दीवार पर सर मारने जैैसा मालूम होता है. इनसे बात करना, हर बार खुद को लहूलुहान करने जैसा ही तो होता है. ऐसे में बना रहे बनारस पर शुभा की यह कविता दिखी. लगा कि सब कुछ कह दिया इस छोटी सी कविता ने-

सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
मानवीय सार पर बात करना
ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना
पत्तियां खाना और
गिरगिटों से बातें करना
-शुभा

Tuesday, May 4, 2010

महान विचारक कार्ल मार्क्स का जन्मदिन (5 मई)

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असली इन्सान की तरह जियेंगे

कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं

नहीं, मेरे तूफानी मन को यह नहीं स्वीकार
मुझे तो चाहिए एक महान ऊंचा लक्ष्य
और उसके लिए
उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम

ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोशों के द्वार
मेरे लिए खोल
अपने प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बांध लूँगा मैं

आओ
हम बीहड़ और सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि हमें स्वीकार नहीं
छिछला निरुदेश्य और लक्ष्यहीन जीवन

हम ऊंघते, कलम घिसते
उत्पीडन और लाचारी में नहीं जियेंगे
हम आकांचा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान से जियेंगे.

असली इन्सान की तरह जियेंगे.
- कार्ल मार्क्स

Sunday, April 25, 2010

तुम कोई रस्‍म निभाने के लिए मत आना

अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना।
मैंने पलकों पे तमन्‍नाएँ सजा रखी हैं,
दिल में उम्‍मीद की सौ शम्‍मे जला रखी हैं,
हसीं शम्‍मे बुझाने के लिए मत आना.
प्यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं
चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं,
तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना।
अब तुम आना जो तुम्‍हें मुझसे मुहब्‍बत है कोई
मुझसे मिलने की अगर तुमको भी चाहत है कोई.
तुम कोई रस्‍म निभाने के लिए मत आना...
- जावेद अख्तर

Tuesday, April 6, 2010

मगर उससे मुहब्बत है, तो है


वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बग़ावत है तो है

सच को मैंने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है

कब कहा मैंने कि वो मिल जाये मुझको, मैं उसे
गर न हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है

जल गया परवाना तो शम्मा की इसमें क्या ख़ता
रात भर जलना-जलाना उसकी किस्मत है तो है

दोस्त बन कर दुश्मनों- सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है

दूर थे और दूर हैं हरदम ज़मीनों-आसमाँ
दूरियों के बाद भी दोनों में क़ुर्बत
है तो है
- दीप्ति नवल

Friday, April 2, 2010

जब नहीं आये थे तुम...

जब नहीं आये थे तुम
तब भी तो तुम आये थे...
आंख में नूर की और
दिल में लहू की सूरत
याद की तरह धड़कते हुये
दिल की सूरत
तुम नहीं आये अभी
फिर भी तो तुम आये हो
रात के सीने में
महताब के खंजर की तरह
सुबह के हाथ में
खुर्शीद के सागर की तरह .
तुम नहीं आओगे जब
फिर भी तो तुम आओगे
ज़ुल्फ़ दर ज़ुल्फ़ बिखर जायेगा
फिर रात का रंग
शबे -तनहाई में भी
लुत्फ-ए-मुलाकात का रंग।
आओ, आने की करें बात
कि तुम आये हो...
अब तुम आए हो तो
मैं कौन सी शय नज्र करूं
कि मेरे पास
सिवा मेहरो वफा कुछ भी नहीं
एक दिल एक तमन्ना के सिवा
कुछ भी नहीं
एक दिल एक तमन्ना के सिवा
कुछ भी नहीं...
- अली सरदार जाफरी