Tuesday, August 6, 2024

जाओ दफा हो जाओ...स्मृतियों



'घास को घुटन हो रही होगी, तुम्हें बगीचे की सफ़ाई करा लेनी चाहिए।' यह पंक्ति पढ़ी और बादल फटने की आवाज़ कानों में आई...

काफी दिनों से बारिश का इंतज़ार था। अटके हुए भरे-भरे बादल खिड़की पर टंगे-टंगे ऊँघ रहे थे। 'मैंने मांडू नहीं देखा...' मेरे साथ रात दिन चल रही है कई दिनों से। जब शुरू की थी तो यही लगा कि कैसी अहमक़ हूँ कि इतनी देर से पढ़ रही हूँ। लेकिन अब किताब खत्म हो चुकी है और मैं दो दिन से लगभग अवसन्न अवस्था में डोल रही हूँ। शब्दातीत।

मैंने इस किताब को तो नहीं ही पढ़ा था इसके बारे में भी कुछ नहीं पढ़ा था। कुछ भी नहीं। बस ये सोचती रही किताब के बारे में नहीं सिर्फ किताब पढ़ूँगी। और अब लग रहा है कि अच्छा हुआ पहले नहीं पढ़ी। कई बार जीवन हमें चुनता है, जबकि हमें लगता है हमने जीवन को चुना है। ठीक ऐसा ही किताबों के साथ है वो न सिर्फ अपना पढ़ा जाना चुनती हैं, समय भी चुनती हैं। मेरे साथ ऐसा कई किताबों के साथ हुआ। इसलिए मैं पढ़ने को लेकर कभी भी मशक्कत नहीं करती बस पन्ने पलटती हूँ और इंतज़ार करती हूँ कि किताब मेरा हाथ थामे और आगे की यात्रा पर ले जाये।
मांडू ने हाथ लिया....

मेरी पढ़ने की गति तेज़ है। लेकिन कुछ किताबें अपनी गति भी तय करती हैं। मैंने हर दिन इस किताब के कुछ पन्ने पढ़े और पूरे वक़्त पढ़े हुए के साथ रही. क्या कभी भी इस पढ़े हुए से मुक्त हो सकूँगी। पढ़ते हुए बीच-बीच में संज्ञा से बात करती रही किताब के बारे में।

क्या यह सिर्फ किताब है...बिलकुल नहीं। क्या इसे सिर्फ पढ़कर परे रखकर आसानी से दूसरी दुनिया में जाया जा सकता है? गीता, सुकान्त, पारुल, विकास राय, डॉ चारी, डॉ प्रताप और मायाविनी...क्या कभी मुक्त हो पाएंगे।

जाओ दफा हो जाओ...स्मृतियों से कहना आसान होता काश।

मैं सच में सोच रही हूँ मैंने बिलकुल ठीक समय पर इस किताब को पढ़ा, पहले पढ़ती तो शायद संभाल न पाती. जिस दिन किताब का अंतिम हिस्सा पढ़ा. देर तक आसमान देखती रही। कुछ ही देर में बारिश उतर आई। मैंने हमेशा की तरह हथेली बढ़ा दी। वही हथेली जिसमें मैंने मांडू नहीं देखा लगातार रहती है। संज्ञा को बस इतना लिखा, पूरी हो गयी किताब...अनकहे शब्दों को पढ़ने में माहिर संज्ञा ने अपनी चुप की हथेली मेरी चुप पलकों पर रख दी।

आज शाम उसने एक लिंक भेजा...यह उस किताब के आगे की कथा है। सुकान्त दीपक का लिखा। ये आज ही हिंदवी पर आया है। क्या यह महज संयोग है?
 
मैंने दफ्तर से लौटते हुए लिंक खोला...बारिश ने रफ्तार पकड़ ली...जैसे कोई बादल फटा हो कहीं...

(https://hindwi.org/bela/sukant-deepak-memoir-papa-elsewhere-translation-nishiith?fbclid=IwZXh0bgNhZW0CMTEAAR1nUjwzPtaXGMTstOpSV3MqnuEDxvpUv7XMaFtrwLY_tOa8KSxxMBjOV98_aem_CRwgUVR7M5bABwMODxqNJg)

4 comments:

Ravindra Singh Yadav said...

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 08 अगस्त 2024 को लिंक की जाएगी ....

http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

!

Ravindra Singh Yadav said...

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 08 अगस्त 2024 को लिंक की जाएगी ....

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पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

!

Prakash Sah said...

"...
ठीक ऐसा ही किताबों के साथ है वो न सिर्फ अपना पढ़ा जाना चुनती हैं, समय भी चुनती हैं।
..."

बिल्कुल सही लिखा आपने।

Onkar said...

बहुत सुन्दर