मन अब मनमानी करने लगा है. सुनता नहीं किसी की. मुझे उसकी यह आदत अच्छी लगती है. ऐसा लगता है अब मेरा मन, मेरा मन होने लगा है. थोड़ा दुष्ट, थोड़ा बेपरवाह. एक रोज मैंने मन से पूछा, 'तुम्हें यूँ अपने मन की करने में क्या मजा आता है?' वो मेरा चेहरा देखकर मुस्कुरा दिया. 'तुम नहीं समझोगी' कहकर वो पाँव पसार कर बालकनी में लुढ़क गया. मैंने उसे लाख समझाया, 'देख, बहुत काम हैं. बहुत ही ज्यादा काम हैं. अभी ये सब नहीं चलेगा. उठो तो जल्दी से.' उसकी मुस्कुराहट और फ़ैल गयी और टाँगे और ज्यादा ही पसर गयीं. फिर? फिर क्या, काम का काम तमाम और महाशय मन की मनमानी चली.
कभी-कभी लगता है चारों तरफ का खाली घेरा बढ़ता जा रहा है. अपनी ही सांस की आवाज़ से टकराती फिरती हूँ. लेकिन इस सबमें कोई उदासी नहीं है. बस कुछ नहीं है जैसा कुछ है शायद.
किसी से खूब सारी बातें करने को दिल करता है लेकिन देर तक सोचती रहती हूँ किसे कॉल करूँ? सारे नाम एक एक कर गुजरते हैं ज़ेहन से. फोन नहीं करती. कभी कर लेती हूँ अगर तो दूसरी तरफ घंटी जाते ही भूल जाती हूँ किसे कॉल किया था. स्क्रीन देखती हूँ कि याद आये. तीन चार घंटी जाती है तो सोचने लगती हूँ काश कि न उठाये कोई फोन, काश न उठाये. अगर नहीं उठता फोन तो चैन की सांस लेती हूँ. और अगर उठ जाता है तो फंस जाती हूँ ये सोचकर कि अब क्या बात करूँ? सामने वाले के पास बताने को इतना कुछ है कि ऊंघने लगती हूँ कुछ देर में लेकिन बात का प्रवाह ऐसा होता है कि बीच में रख नहीं पाती.
कोई मैसेज इनबॉक्स में दिपदिप करता है. उसे खोलती नहीं. दीवार घड़ी की सुइयों का खेल देखना ज्यादा भला लगता है.
देर तक अकेले रह चुकने के बाद सोचती हूँ किसी से मिल लूं. मिलते ही खुद से अजनबी होने लगती हूँ. शब्द कानों से टकराते जाते हैं, सुनाई कुछ भी नहीं देता. अपनी आँखों में खुद को ढूंढती हूँ. वहां एक खिड़की नज़र आती है. खिड़की जिसके बाहर खुला आसमान है, लेकिन खिड़की बंद है. मैं खिड़की खोल भी सकती हूँ लेकिन चाहती हूँ कोई आये और खोल दे. और जैसे ही कोई आने को होता है घबरा जाती हूँ. नाराज होती हूँ, मना करती हूँ...मेरे जीवन की सारी खिड़कियाँ, सारे दरवाजे मैं खुद ही खोलूंगी...
मन मुझे देखता है, देखता जाता है. मुस्कुरा कर पूछता है, 'तुम चाहती क्या हो आखिर?'
मैं अपनी हथेलियों को देखते हुए कहती हूँ, एक कप चाय पीना चाहती हूँ, पिलाओगे.'
वो चादर ओढ़कर सो जाता है. मैं चाय की इच्छा लिए खिड़की के बाहर टंगे आसमान को देखने लगती हूँ.
आसमान खूब नीला है.
मैं अपनी हथेलियों को देखते हुए कहती हूँ, एक कप चाय पीना चाहती हूँ, पिलाओगे.'
वो चादर ओढ़कर सो जाता है. मैं चाय की इच्छा लिए खिड़की के बाहर टंगे आसमान को देखने लगती हूँ.
आसमान खूब नीला है.
5 comments:
नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 18 मई 2023 को 'तितलियों ने गीत गाये' (चर्चा अंक 4664) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
वाह!बहुत खूब..मन को बेपरवाह होने दीजिए ...।
आपका मन मेरे मन का प्रतिरूप लग रहा है ।सुंदर रचना। सादर।
अद्भुत! मन की मनमानी तन मन दोनों पर भारी और कभी फुर्सत का मजा।
सुंदर भावपूर्ण रचना।
वाह. सुंदर रचना
Post a Comment