Saturday, November 13, 2021

क्या नहीं है प्रेम


एक बार लेखक मित्र से पूछ बैठी थी 'क्या है प्रेम' जवाब में उसने कहा, ‘क्या नहीं है प्रेम.’ तबसे प्रेम को लेकर मेरा जो तंग नज़रिया था वो बदलने लगा. नफरत और हिंसा से इतर हर वक्त हमें जो घेरे हुए है वो प्रेम ही तो है. सुबहों से प्रेम, शामों से प्रेम. फूलों से, पत्तियों से, जड़ों से प्रेम. राह चलते अजनबी को मुस्कुराकर हेलो कहने में जो ख़ुशी महसूस होती है, बच्चों के सर पर हाथ फेरने की इच्छा, नन्ही उँगलियों में अपनी एक ऊँगली छुपा देने की कामना. नदी के किनारे बैठ लहरों को देखना, पेड़ से झरते पत्तों को देखना और देखना खाली शाखों पर फूटती कोंपलों को प्रेम ही तो है. प्रेमी के संग होने की इच्छा, संग ने होने का दुःख यह भी प्रेम है. वो जो कोई था कल तक कंधे से कन्धा टिकाये पास बैठा आज वो उठकर चला गया है बहुत दूर...उसके जाते क़दमों को देखना और उदास सिसकी को भीतर धकेल उसके होने को अपने भीतर किसी इत्र की तरह समेट लेना प्रेम है. हाँ, सब कुछ प्रेम ही है.

यह मेरी सुबह है. इसमें दाखिल होती सर्दियों की धूप है, दूर जाकर दिल के और करीब आ गए लोगों की याद है, परिंदों की चह चह है, चाय है...हां मैं प्रेम में हूँ इस समूची क़ायनात के, खुद के.

बाबुषा, आज हम भी कव्वाली सुनेंगे...तुम्हारे संग बैठकर.

7 comments:

Kamini Sinha said...

सादर नमस्कार ,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(14-11-21) को " होते देवउठान से, शुरू सभी शुभ काम"( चर्चा - 4248) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा

Ravindra Singh Yadav said...


आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 14नवंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....

http://halchalwith5links.blogspot.in
पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

!











anita _sudhir said...

और स्वयं से प्रेम भी प्रेम

Nitish Tiwary said...

बहुत खूब।

SANDEEP KUMAR SHARMA said...

प्रेम परिभाषित नहीं किया जा सका अब तक...केवल महसूस हो सका है। अच्छा लेखन।

Onkar said...

शानदार रचना

ANHAD NAAD said...

सुन्दर है प्रेम में होना ।