मैंने मृत्यु को बहुत करीब से छूकर देखा है. मृत्यु के ख्याल को मुठ्ठी में कसकर रखा है बरसों तक. फिर उस डर से आज़ाद हुई. बहुत तकलीफ सही लेकिन आज़ाद हो गयी. अब ख़ुशी है जो हर वक्त साथ रहती है. कुछ खोने का डर जाता रहा. जब हम ये डर जीत लेते हैं, तब जिन्दगी दोस्त हो जाती है. मेरे आसपास डरे हुए लोग हैं मैं उनके लिए फ़िक्रमंद हूँ. ख्याल रखती हूँ अपना भी कि मरना नहीं चाहती लेकिन जानती हूँ मरने से डरती भी नहीं.
लगता है जी ली हूँ पूरा. कितने बरस हो गए जीते जीते. ज्यादा कुछ तो चाहा भी नहीं था जिन्दगी से. जो चाहा वो मिला. जितना चाहा उससे ज्यादा ही मिला. जितने भी दुःख मिले जीवन में वो अहंकार से जन्मे थे जिन्हें मैं प्यार से जन्मे हुए समझती रही. प्यार कब अहंकार हो जाता है पता ही नहीं चलता. कब्ज़ा करने की प्रवृत्ति, कोई छीन न ले का डर.
सोचती हूँ क्या कोई किसी को किसी से छीन सकता है? प्रेम तो मृत्यु की तरह है शाश्वत और पवित्र. जब जैसे जिस पर आना है आएगा. बुलाओगे तो आएगा नहीं और जब चाहोगे कि चला जाय तो जाएगा नहीं. यही हासिल है जीवन का. यह समझ और शांति.
आज घर कैद के दिनों में मैंने उसी प्रेम को अपने ऊपर रेंगते हुए महसूस किया जिसके कारण कभी मर जाने को जी चाहता था. बहुत प्यारी सी छोटी से बच्ची ने जब किलकते हुए हाथ बढ़ाया और वो मुझे देख के मुस्कुरायी तब लगा बस यही है जिन्दगी, लेकिन अगले ही पल एहसास हुआ कि उस बढे हुए मासूम हाथ को थाम नहीं सकती क्योंकि हमने दुनिया ऐसी बना ली है कि इन्सान इन्सान से मिलने से डर रहा है. मैं उस बच्ची के बढे हाथ को इसलिए नहीं थाम सकी क्योंकि मुझे कुछ हो जायेगा. नहीं ,मुझे डर था कि उसे कुछ न हो जाये अनजाने. बस हम दूर से एक दूसरे को देखते रहे, खेलते रहे. वो मेरी आँखों में आँखे डालकर शरारत करने की गति बढ़ाती रही. अंत में उसने गोद में आने की जिद कर ही ली, और यही पल था मेरी आँखें पनीली होने का. मैंने उससे निगाह तोड़ी. ठीक वैसे ही जैसे विदा के वक्त निगाह तोड़ते हैं प्रेमी.
उसकी किलकारी कानों में है, उसके बढे हुए हाथ मुझे बेचैन कर रहे हैं. काश कि इस दुनिया को हमने प्रेम के काबिल बनाया होता. काश कि हम प्रेम की हर पुकार पर दौड़कर पहुँच पाते...
हालाँकि बढे हुए हाथ को न थाम पाना प्यार का न होना नहीं होता यह तो अब समझ ही चुकी हूँ. महत्वपूर्ण है हाथ बढाने की इच्छा का होना. वो बच्ची अपने बढे हुए हाथ और आँखों में समाये ढेर सारे प्यार को छोडकर जा चुकी है. जानती हूँ वो लेकर भी गयी है गोद में आने की इच्छा को. ये इच्छाएं प्रेम हैं. प्रेम जीवन है.
(इन द टाइम ऑफ कोरोना )
4 comments:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 25 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 24 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ऐसे हताश और निराश समय में आपकी ये पोस्ट बहुत अलग स्वाद और सम्बल लेकर आई है मेरे लिए | सच कहा आपने कभी कभी लगता है कि हाँ जी तो लिए हम शायद पूरा का पूरा | मैं आपको अक्सर पढता हूँ मुझे अच्छा लगता है | शुभकामनायें आपको
उत्कृष्ट
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