प्रिय देवयानी,
लेकिन आज यह शहर मुझे मेरा शहर लगता है. बहुत सारे दोस्त हैं. ढेर सारा प्यार मिला यहाँ, सम्मान भी. यहाँ के रास्ते, पेड़, पंछी, हवाएं सबने मुझे अपनाया, दुलराया. नूतन गैरोला दी ने दूर से पहचाना और अपने प्रेम में रंग लिया. गीता गैरोला दी ने इतना अधिकार दिया कि उनकी वार्डरोब मेरी ही है अब और संतोषी के हाथ का खाना भी.
जानती हो, शहर छोड़ने चाहिए. शहर छूटता है तो नया शहर मिलता है. नए संघर्ष मिलते हैं जो निखारते हैं, नये लोग मिलते हैं जो संवारते हैं. नए ख़्वाब मिलते हैं जो जीने की वजह बनते हैं. तुम्हें भी खूब सारे नए पुराने दोस्त मुबारक, नए संघर्षों की आंच और ढेर सारे ख्वाब मुबारक.
तुम दिल्ली में हो तो दिल्ली मेरा भी हुआ थोड़ा सा जैसे मैं देहरादून में हूँ तो देहरादून तुम्हारा भी है ही. जयपुर और लखनऊ तो हैं ही अपने.
चलो न चाय पीते हैं.
3 comments:
जैसे ये तेरा घर ये मेरा घर
पर नहीं कह सकते
ये शहर बहुत अजीब है
सजीव होते हैं
अपने अपने शहर
और चाय में स्वाद भी
अपने शहर का
कुछ अलग होता है।
bahut hi badhiya post likha hai aapne Windows 7 window 8 windows 10 download Kaise Kare
शायर कभी अपने हो जाते हैं कभी पराये भी ...
अपनों के होने से शहर अपने हो जाएँ तो जीवा आसान हो जाये ... चाय तो स्वाद देती है हर जगह ... अच्छा माड़ा ...
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