'मुझे कहानियां लिखना नहीं आता'
'तो कहानियां लिखता ही क्यों है तू, सच लिखा कर...'
- 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' से
'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' में एक बार फिर राजकुमार राव ने अपने अभिनय कौशल का मुरीद कर लिया. लेखक की भूमिका में राजकुमार जैसे खिल रहे थे. उनकी मुस्कुराहट बड़े परदे पर रौशनी की तरह बिखरती है. अजीब बात है कि मेरे लिए यह फिल्म थी तो अनिल कपूर जूही चावला की लेकिन बन गयी राजकुमार राव और फिल्म की लेखिका गज़ल धालीवाल की. स्क्रिप्ट जितनी मजबूत थी उसे निभाया भी उसी जतन से गया है. अनिल कपूर खाना बनाने को लेकर जिस तरह पैशनेट हैं और बार बार कहते हैं कि बनना तो वो इण्डिया के नम्बर वन शेफ चाहते थे लेकिन बना बिजनेसमैन दिए गए...के भीतर कई सवाल खुलते हैं. एक तो ये अपने मन का कुछ करना हो तो नम्बर वन जाने क्यों चिपक जाता है साथ में. बिना नम्बर रेस के भी होती है न जिन्दगी शायद अभी वहां तक पहुंचना बाकी है. फिल्म जटिल विषय के साथ पूरी संवेदनशीलता से पेश आती है. यह प्रेम कहानी है. विशुद्ध प्रेम कहानी. अब तक गरीब अमीर, हिन्दू मुसलमान, प्रेम यही प्रेम की अडचनें होती आई हैं फिल्म के विषयों में लेकिन इस बार बात थोड़ी अलग है. यह अलग बात पहले भी फिल्मों में आ चुकी है, अलीगढ़, फायर, दोस्ताना जैसी फ़िल्में बनी हैं लेकिन इस फिल्म ने अलग जानर की फिल्म बनकर न रह जाने की बजाय आम पब्लिक की फिल्म बनने की राह चुनी है. शायद इसके जरिये बात दूर तक जाय. फिल्म मुझे अच्छी लगी, जरूरी भी लगी. सबसे अच्छे लगे राजकुमार राव.
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