- प्रतिभा कटियार
जैसे ही कानों में टकराता है ‘लोक’ शब्द कोई खिड़की खुलती है ज़ेहन में. वो खिड़की जो उम्र के कई बरसों को रिवाइंड करके ले जाती है एक ऐसी दुनिया में जिसमें बचपन सहेजा रखा था. फ्रॉक वाले दिनों की याद, चूल्हा जलाने की जिद, सीखना कुएं से पानी भरने की कवायद, मटके पर मटके रखकर, और एक मटका कमर में टिकाकर, दुसरे हाथ में बाल्टी लेकर बहुत आराम से चलती चाची, बुआ, मौसी, जीजी को हैरत से देखना और जिद करना अपने सर पर भी मटका रखकर चलने की. एक रोज जीजी ने हंसकर छोटी सी मटकी रख दी थी सर पर. आधी ही भरी थी फिर भी घर तक पहुँचते-पहुँचते गर्दन मेले में मिलने वाली गर्दन हिलाने वाली सेठानी की तरह लचक रही थी. उस रोज रास्ता कितना लम्बा लगा था.
ऐसे ही एक रोज खेतों से गठ्ठर लाने की हुमक उठी थी और जिद कि मुझे भी उठाना है गठ्ठर. मौसा जी हंस दिए थे. एक छोटा गठ्ठर रख दिया था सर पर. हालत वही हुई जो पानी की कलशी उठाते वक़्त हुई थी. लोक की उस दुनिया की यादों में नाना के रात भर चलने वाले किस्से अब भी मुस्कुराते हैं. अलाव की खुशबू और उसकी आंच साँसों की ऊष्मा हो मानो.
कटोरी भर अनाज से बदल कर एक छोटी सी डंडी वाली बर्फ खाना, होंठ रंगने वाली टिकिया से नयी दुल्हनों का श्रृंगार होना, हालाँकि लिपिस्टक की आमद होने लगी थी गाँव में तब तक.
ऐसी न जाने कितनी ही यादें हैं जो अब भी बचपन को जियाये हुए हैं. और भी बहुत कुछ है इन यादों में.
दादी के पिटारे में थे लोक के खाने, लड्डू, पापड़, खील, भुना मकई, बाजरा, सत्तू. बाबा की पोटली में थीं कुछ चुनी हुई कहानियां. बाबा को ज्यादा कहानियां नहीं आती थीं लेकिन वो उन्हीं कहानियों को तरीका बदल बदल कर बार बार सुनाते थे. हम बच्चे कटोरे में मकई, खील लेकर पूरे गाँव में घूमते-फिरते थे. ये गांवों के आधुनिकता के पाँव पड़ने से पहले के दिनों की बात है. जब गांवों में गाँव बचा था और बचे थे रिश्तों में रिश्ते.
खेतों और मेड़ों से होकर गुजरा जीवन का रास्ता- हम साल में दो तीन कभी चार बार भी गाँव जाया करते थे. करीब 2 से 3 किलोमीटर का रास्ता पैदल का होता था. सारा रास्ता पिकनिक मनाने सा लगता था. सारे रास्ते कोई नहर साथ चलती रहती. एक तरफ नहर दूसरी तरफ खेत. खेतों में लगी मटर की फलियाँ, चना, कभी साग, कभी गन्ना सब अपना ही तो था. नहर में पाँव डालकर बैठना और बाकियों को नहर में कूद कूदकर नहाते देखना. पूरा गाँव हमें जानता था. आज जैसा नहीं था कि 5 बरस से रहते हुए अपने पडोसी का नाम तक पता न हो. जो भी करीब से गुजरता मेरे गाल खींचता, कहता रसगुल्ला. मेरे गाल फूले होते थे तब और मुझे यूँ गाल खींचने वाले लोग एकदम पसंद नहीं थे. मैं कभी कभी-शीशा देखकर गाल पिचकाया करती थी. कितना हास्यास्पद लगता है यह सब अब. घर पहुंचकर योजनायें बनतीं खेतों का रूख किया जाता, सब मिलकर हरी धनिया मिर्च का नमक, पानी की बाल्टी और एक चादर. कभी साथ में रोटी सब्जी भी. और फिर दोपहरें खेतों में गुलज़ार होतीं. हम लकड़ियाँ बीनते, भुट्टे भूनते, मटर भूनते, आलू भूनते, ज्वार, बाजरे के भुट्टे भूनते, नमक से खाते, पेड़ के नीचे सो जाते. फिर घूमने निकल जाते. इस बीच चाची और जीजी लोग चारा काट लेते या साग तोड़ लेते. दादी बहुत तेज़ साग तोड़ती थीं. एक ख़ास तरह साडी का पल्ला बनाया जाता जिसमें तोड़कर साग डाला जाता.
इसके अलावा बारियाँ भी थीं जिनमें सब्जियां उगाई जाती थीं जो शाम को क्या बनेगा के आधार पर तोडा जाता. हम बच्चे कभी-कभी बड़ों की ऊँगली छुड़ाकर भाग निकलते और बागों का रुख करते. कैथा, अमरुद, इमली, बेर तोड़ते, खाते कम, जमा ज्यादा करते.
तालाबों के किनारे तितलियाँ पकड़ते, गन्ने के रस को पीने से ज्यादा उसके निकाले जाने को देखने का सुख था. धान उड़ाया जाता जहाँ वहां का दृश्य अपलक देखते. वापस लौटकर जाने पर जीवन से भरे जीवन के वो दृश्य अब धूमिल पड़ते नज़र आते हैं. उन यादों में अब आधुनिकता के तमाम मुलम्मे चढ़ गए हैं. ढूंढती हूँ गाँव में अपना बीता हुआ बचपन.
कुएं, तालाब, नहरों के किस्से- कुँए बहुत से थे गाँव में. एक कुयाँ एकदम घर के सामने था. लेकिन उस कुँए का पानी मीठा नहीं था. उससे दाल नहीं पकती थी. साबुन साफ़ नहीं होता था. तो सामने वाले कुँए का पानी रोज के ऊपरी खर्च के लिए भरा जाता था और बाकी पानी के लिए मीठे कुँए का रूख किया जाता. पानी भरने का जयादा काम स्त्रियों के हिस्से ही होता था. कभी कभार चाचा लोग पानी भरते थे. लेकिन उनके पानी भरने का वक़्त अलग होता था. सुबह और शाम का वक़्त स्त्रियों का था. जिसमें भाभियाँ, चाचियाँ, जीजी, बुआ वगैरह जाया करती थीं. पानी भरने जाना एक उत्साह जनक समय था जिसकी पूरी तैयारी होती थी. खासकर शाम के वक़्त. घंटे भर पहले से स्त्रियाँ तैयार होना शुरू करती थीं. कलशियाँ चमकाई जाती थीं. घूँघट एकदम नपा होता था. कुँए की जगत पर खिलखिलाहटों का चुहलबाजियों का रेला लगा होता. पानी की कलशी घुड्प करके कुँए में डूबती, फिर गिर्री पर चढकर उसे खींचा जाता. मुझे यह सब खेल लगता था. लेकिन जब भी मैंने पानी खींचने की कोशिश की मुझसे हुआ नहीं. जीजी कहती ‘तू खुद ही कुँए में लुढक जायेगी.’ मुझे कुँए से दूर रहने को कहा जाता. मैं दूर बैठकर इन सबकी हंसी ठिठोली देखा करती. किसी नयी बहू के कुँए पर आने की रस्म भी गजब थी. खूब सज धज के वो कुँए पर जाती. पानी भरती. उसकी निगरानी करती ननद की हवलदारी.
ऐसा ही नहर किनारे जाने पर हुआ करता था. दिन के काम निपटाकर कभी नहर में कपडे धोने के बहाने निकलती टोली. हंसी के बगूले उड़ाती, नहर की धार से होड़ लगाती जिन्दगी.
त्योहारों की आमद और उड़ती एक खुशबू- स्मृतियों की खिड़की जब खुलती है तो उसमें पकवानों की खुशबू और त्योहारों की रंगत भी खुलती है. हर त्योहार पर खेत, कुँए, नहर, नदियाँ, पेड़ों को पूरा महत्व मिलता था. जानवरों को खूब रगड़-रगड़ कर नहलाया जाता. उनके शरीर पर रंगों के गोले बनाकर उन्हें सजाया जाता. उनके गले के लिए नयी प्यारी-प्यारी घंटियाँ लाई जातीं. उनके रहने की जगहों की ख़ास साफ़-सफाई की जाती. रंगों और रौशनी से उन्हें सजाया जाता.
घरों में पकवानों की खुशबू उडती जो पूरे गाँव में उड़ती फिरती. सुख दुःख साझा होते थे सबके. पकवान किसी के भी घर के हों, स्वाद सबके साझे होते थे. या तो मेरी बचपन की स्मृतियों में वर्ग भेद या जाति भेद है नहीं या उस लोक में जिसमें ये स्मृतियाँ बनीं उसमें वो थे नहीं क्योंकि मैंने हमेशा सबको एक-दूसरे के सुख-दुःख में साझा खुश होते और उदास होते ही देखा.
दीवाली में सबके घर के पकवान एक-दूसरे के घर जाते, छोटे लोग बड़ों से आशीर्वाद लेने जाते. पकवान चखते, बच्चे चहकते. होली में रंगों की टोली निकलती. स्त्रियों की अलग, बच्चों की अलग, पुरुषों की अलग. फाग गाई जाती. ढोलकी बजती, मंजीरा बजता. खुशबू वाले रंग उड़ते और गुझिया, पापड़ का स्वाद सजता. जैसे पूरा गाँव एक ले में एक सुर में बंधा हुआ. उन स्मृतियों में कहीं भी दिखावा नहीं था. सब कुछ जैसा था, वैसा ही था. सहज और मिठास भरा. बिलकुल लोक की भाषा की तरह.
बचपन के खेल- बहुत सारे खेल हुआ करते थे उन स्मृतियों में. हम सब बच्चे, सब माने सब. हर जाति वर्ग के बच्चे सब साथ खेलते थे. किसी की कोई हेकड़ी नहीं चलती थी. लेकिन एक बात याद है जरूर उन खेलों की याद के साथ जितनी आसानी से हम अपने घरों से निकल जाते थे खेलने उतनी आसानी से सारे बच्चे नहीं निकल पाते थे, खासकर लड़कियां. उन्हें खेलने के लिए निकलने से पहले जल्दी जागकर घर के काम निपटाते होते थे ताकि खेलने की मनाही न हो. कुछ को खेतों में भी काम करना होता था. कभी काम रह जाता तो वो डांट भी खाया करते थे. कभी-कभी जब हम उनका हाथ बंटाने लगते ताकि वो जल्दी से काम से आज़ाद होकर खेल सकें तो उनके माँ बाप उन्हें डांटते थे कि ‘हमें’ काम क्यों करने दिया. उस वक़्त उस डांट का मतलब समझ में नहीं आया था, अब आता है. बहरहाल लोक के उन खेलों में पोसम्पा से लेकर छुक छुक चलनी, आइस, पाइस, छुपम छुपाई, ऊंचा नीचा गिलास, खो खो सब शामिल होता था. और सोचिये, छुपम छुपाई की रेंज थी पूरा गाँव. कभी कभी तो हम छुपे ही रह जाते और बच्चे खेल ख़त्म करके घर चले जाते. सच्ची, बड़ा बुरा लगता था उस समय तो.
विवाह, लोक गीत और कहावतें- लोक की यादें खुलें लोक के गीतों की खुशबू न बिखरे ऐसा भला कहाँ संभव है. मौका विवाह का हो या बाल बच्चा होने का या रोजमर्रा का जीवन. विवाह के दौरान बन्ना बन्नी, मंडप जिसे मडवा कहा जाता था, पूड़ी बेलने के गीत, चक्की के गीत, कुँए से पानी भरने के गीत, विदाई गीत, गाली गीत सब, नकटा गीत सब तो गाये जाते थे. फसलों के गीत, खेत में रोपाई के गीत, मौसमों के गीत, खेल गीत, श्रृंगार गीत क्या-क्या नहीं होता था. ऐसा मालूम होता था कि हर अवसर के लिए कोई गीत था. ऐसा ही हाल था मुहावरों का. माँ नाना जी, मौसियाँ, चाचा, बुआ इन सबके पास जैसे खजाना था मुहावरों का. माँ ज्यादातर बात मुहावरों में करती थीं, अब भी करती हैं. उन मुहावरों की मिठास जीवन की सबसे मीठी बात लगती है. विवाह के मौके पर किये जाने वाला नकटा भी खूब याद है जिसे विवाह के मौके पर बारात जाने के बाद (जिसका अर्थ होता है समस्त पुरुषों का जाना) रात भार जागकर किय जाता था. इसमें कुछ स्त्रियाँ ही पुरुषों का स्वांग करती थीं. हंसी मजाक के लहजे में सारी रात नाटक होते. इनमें स्त्रियाँ अपने भीतर का तमाम अवसाद भी निकालती थीं ऐसा मुझे अब लगता है.
शब्दों का सफ़र- सोचती हूँ तो उन स्मृतियों में कितने सुंदर शब्द हुआ करते थे जिनकी अब सिर्फ यादे हैं. नाना जी अमरुद को हमेशा बिहीं कहा करते थे. कुँए से पानी निकालने वाली रस्सी को उघानी कहा जाता था और ताला चाबी को कुलुप और उघन्नी कहा जाता था. हम बाबा और नाना को नन्ना कहा जाता था. बिट्टा, लल्ला जैसे रस में भीगे हुए लगते थे. ‘बिट्टा तुम किते जाय रई’ अगर कहीं से कोई पूछ ले तो लगता है निष्प्राण होती देह में रक्त संचार बढ़ गया हो. यह है लोक से जुड़े अपनेपन की ऊष्मा का असर.
आज यह लोक की याद क्यों – अजीब लग सकता है कि अब जब कि समय इतना बदल चुका है तो इस सब को याद करने की क्या वजह हो सकत है भला. लोक की ताकत को क्या हम स्कूली शिक्षा से उस तरह से जोड़ पा रहे हैं जैसा उसे जुड़ना चाहिए था. अगर जोड़ पा रहे हैं तो बहुभाषिकता को समस्या की तरह देखा क्यों जा रहा है, उसे संसाधन की तरह क्यों नहीं देखा जा रहा है. दूर देश में अपनी बोली अपनी भाषा के दो शब्दों के छींटें अगर कान में पड़ते ही सुकून महसूस होता है तो उसी बोली भाषा को कक्षा में वो स्थान क्यों नहीं मिल सकता.
देहरादून के एक प्राथमिक स्कूल का अनुभव याद आता है जहाँ शिक्षिका ने साझा किया कि एक छत्तीसगढ़ का बच्चा आया था स्कूल में. वो कई महीनों तक बोलता ही नहीं था. क्योंकि उसे सिवाय छतीसगढ की भाषा के और कुछ बोलना आता ही नहीं था. और जब वो बोलता था कक्षा के बाहर भी तो उसके साथी उसका मजाक उड़ाते थे. कक्षा में भी वो इस डर से चुप ही रहता था, डरा हुआ खामोश.
राजस्थान में एक शिक्षक ने ऐसा ही अनुभव साझा किया जहाँ वो बच्चों से उनकी लोक की भाषा में ही संवाद किया करते थे जिसे सुनकर एक बारगी लोगों को लगता कि बच्चे अपने शिक्षक का सम्मान नहीं कर रहे. जैसे कि बच्चे बोलते, ‘मास्टर तु म्हाने ठीक तरया स्यूं पढ़ा कोनी रयो आ बात समझ म कोनी आ री’. मास्टर को पता था कि इस बोली में बच्चों से संवाद के ज़रिये उसने दिल में जगह बना रखी है जिसमें सम्मान की तासीर इतनी गाढ़ी है कि उससे ज्यादा कुछ हो ही नहीं सकता.
लोक की इसी ताकत को एनसीएफ ने कक्षाकक्ष और कक्षा शिक्षण की ताकत बनाने की बात भी कही. यह बात लोक के सम्मान और प्यार को सहेजने की बात है. सभ्य होने की की दौड़ में लोक से दूरी बननी कब और कैसे शुरू हो गयी पता नहीं लेकिन यह जरूर महसूस होता है कि इस दूरी ने जिन्दगी का मीठापन चुरा लिया है. जिन स्मृतियों की छुअन भर से झुरझुरी होती है उस लोक की भाषा उसकी संस्कृति उसकी ताकत को यूँ ही तो नहीं जाने दे सकते.
(अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन से प्रकाशित पत्रिका प्रवाह में प्रकाशित)
6 comments:
हम्म
आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 16 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-02-2019) को “प्रेम सप्ताह का अंत" (चर्चा अंक-3248) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वीनस गर्ल की सौन्दर्य-आभा : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
सभ्य होने की की दौड़ में लोक से दूरी बननी कब और कैसे शुरू हो गयी पता नहीं लेकिन यह जरूर महसूस होता है कि इस दूरी ने जिन्दगी का मीठापन चुरा लिया है. जिन स्मृतियों की छुअन भर से झुरझुरी होती है उस लोक की भाषा उसकी संस्कृति उसकी ताकत को यूँ ही तो नहीं जाने दे सकते.
बहुत खूब ,यथार्थ ,गांव की याद दिलाती ये रचना लाजबाब है ,सादर नमन आप को
Very nice story, Superb......
vicky
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