Sunday, February 24, 2019

सुर और शब्दों की संगत ने यादगार बनायी शाम



देश दुनिया के हालात मन बेचैन करने को उतावले थे ऐसे में कुछ पल को कविता की छांव में रख देने को जी चाहा तो 'क' से कविता की 34 वीं बैठक में ठौर मिला. इस बार की बैठक के संयोजन की जिम्मेदारी ली थी सप्तक कॉलेज ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स की निदेशक स्वाति सिंह ने. बैठक हेतु प्रेम और इंसानियत के इर्द-गिर्द कवितायें पढ़ने का मन बना.

बैठक का आगाज़ रमन नौटियाल ने 'क' से कविता की बैठक की शुरुआत से लेकर अब तक की यात्रा और उद्देश्य के बारे में संक्षिप्त जानकारी देने और सभी का एक-दूसरे से परिचय देकर हुआ. कार्यक्रम में रामधारी सिंह दिनकर, कबीर, बशीर बद्र, केदारनाथ सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, अश्वघोष, माखनलाल चतुर्वेदी, गीत चतुर्वेदी, गुलज़ार, पुष्कर, दुष्यंत कुमार, बहादुर शाह ज़फर, सुमित्रानंदन पंत, आशुतोष, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अकबर इलाहाबादी, नज़ीर, शबीह अब्बास, मज़रूह सुल्तान पुरी, इंदीवर आदि कवियों व गीतकारों की रचनायें साझा की गयीं. अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम भजन भी सुना और पुलवामा के शहीदों को स्मृति नमन भी किया. इस मौके पर नामवर जी को भी याद किया गया. संगीत की संगत थी तो बहुत से गीत तरन्नुम में प्रस्तुत किये गए.
कार्यक्रम में तूलिका, तनिष्का, शैलजा सहित कक्षा 2 में पढ़ने वाले  पार्थ सारथी जैसे नन्हे साथियो ने भी अपनी प्रिय कवितायेँ सुनायीं.

इस बार की बैठक में सतेंद्र शर्मा, हृदयेश जोशी, प्रवीण भट्ट, दीपिका पांथरी, आसिम चौधरी, रिया शर्मा, कुसुम भट्ट, नीरज डंगवाल आदि नए दोस्त भी 'क' से कविता परिवार का हिस्सा बने.


वक़्त खत्म होता जा रहा था लेकिन बैठक समेटने का किसी का मन नहीं हो रहा था. कुछ पल की सही राहत तो थी इस बैठक में और थे ढेर सारे सपने इस धरती को कविताओं से, प्रेम से, सौंदर्य से, संगीत से भर देने के.

गीता गैरोला जी ने सभी साथियों का आभार प्रकट करते हुए आने वाली बैठकों को और बेहतर करने और नए युवा साथियो को जोड़ने की बात कहते हुए कार्यक्रम के समापन की घोषणा की. 

Wednesday, February 13, 2019

मीठी यादों वाली खिड़की और लोक की यादें


- प्रतिभा कटियार

जैसे ही कानों में टकराता है ‘लोक’ शब्द कोई खिड़की खुलती है ज़ेहन में. वो खिड़की जो उम्र के कई बरसों को रिवाइंड करके ले जाती है एक ऐसी दुनिया में जिसमें बचपन सहेजा रखा था. फ्रॉक वाले दिनों की याद, चूल्हा जलाने की जिद, सीखना कुएं से पानी भरने की कवायद, मटके पर मटके रखकर, और एक मटका कमर में टिकाकर, दुसरे हाथ में बाल्टी लेकर बहुत आराम से चलती चाची, बुआ, मौसी, जीजी को हैरत से देखना और जिद करना अपने सर पर भी मटका रखकर चलने की. एक रोज जीजी ने हंसकर छोटी सी मटकी रख दी थी सर पर. आधी ही भरी थी फिर भी घर तक पहुँचते-पहुँचते गर्दन मेले में मिलने वाली गर्दन हिलाने वाली सेठानी की तरह लचक रही थी. उस रोज रास्ता कितना लम्बा लगा था.

ऐसे ही एक रोज खेतों से गठ्ठर लाने की हुमक उठी थी और जिद कि मुझे भी उठाना है गठ्ठर. मौसा जी हंस दिए थे. एक छोटा गठ्ठर रख दिया था सर पर. हालत वही हुई जो पानी की कलशी उठाते वक़्त हुई थी. लोक की उस दुनिया की यादों में नाना के रात भर चलने वाले किस्से अब भी मुस्कुराते हैं. अलाव की खुशबू और उसकी आंच साँसों की ऊष्मा हो मानो.

कटोरी भर अनाज से बदल कर एक छोटी सी डंडी वाली बर्फ खाना, होंठ रंगने वाली टिकिया से नयी दुल्हनों का श्रृंगार होना, हालाँकि लिपिस्टक की आमद होने लगी थी गाँव में तब तक.

ऐसी न जाने कितनी ही यादें हैं जो अब भी बचपन को जियाये हुए हैं. और भी बहुत कुछ है इन यादों में.

दादी के पिटारे में थे लोक के खाने, लड्डू, पापड़, खील, भुना मकई, बाजरा, सत्तू. बाबा की पोटली में थीं कुछ चुनी हुई कहानियां. बाबा को ज्यादा कहानियां नहीं आती थीं लेकिन वो उन्हीं कहानियों को तरीका बदल बदल कर बार बार सुनाते थे. हम बच्चे कटोरे में मकई, खील लेकर पूरे गाँव में घूमते-फिरते थे. ये गांवों के आधुनिकता के पाँव पड़ने से पहले के दिनों की बात है. जब गांवों में गाँव बचा था और बचे थे रिश्तों में रिश्ते.

खेतों और मेड़ों से होकर गुजरा जीवन का रास्ता- हम साल में दो तीन कभी चार बार भी गाँव जाया करते थे. करीब 2 से 3 किलोमीटर का रास्ता पैदल का होता था. सारा रास्ता पिकनिक मनाने सा लगता था. सारे रास्ते कोई नहर साथ चलती रहती. एक तरफ नहर दूसरी तरफ खेत. खेतों में लगी मटर की फलियाँ, चना, कभी साग, कभी गन्ना सब अपना ही तो था. नहर में पाँव डालकर बैठना और बाकियों को नहर में कूद कूदकर नहाते देखना. पूरा गाँव हमें जानता था. आज जैसा नहीं था कि 5 बरस से रहते हुए अपने पडोसी का नाम तक पता न हो. जो भी करीब से गुजरता मेरे गाल खींचता, कहता रसगुल्ला. मेरे गाल फूले होते थे तब और मुझे यूँ गाल खींचने वाले लोग एकदम पसंद नहीं थे. मैं कभी कभी-शीशा देखकर गाल पिचकाया करती थी. कितना हास्यास्पद लगता है यह सब अब. घर पहुंचकर योजनायें बनतीं खेतों का रूख किया जाता, सब मिलकर हरी धनिया मिर्च का नमक, पानी की बाल्टी और एक चादर. कभी साथ में रोटी सब्जी भी. और फिर दोपहरें खेतों में गुलज़ार होतीं. हम लकड़ियाँ बीनते, भुट्टे भूनते, मटर भूनते, आलू भूनते, ज्वार, बाजरे के भुट्टे भूनते, नमक से खाते, पेड़ के नीचे सो जाते. फिर घूमने निकल जाते. इस बीच चाची और जीजी लोग चारा काट लेते या साग तोड़ लेते. दादी बहुत तेज़ साग तोड़ती थीं. एक ख़ास तरह साडी का पल्ला बनाया जाता जिसमें तोड़कर साग डाला जाता.

इसके अलावा बारियाँ भी थीं जिनमें सब्जियां उगाई जाती थीं जो शाम को क्या बनेगा के आधार पर तोडा जाता. हम बच्चे कभी-कभी बड़ों की ऊँगली छुड़ाकर भाग निकलते और बागों का रुख करते. कैथा, अमरुद, इमली, बेर तोड़ते, खाते कम, जमा ज्यादा करते.

तालाबों के किनारे तितलियाँ पकड़ते, गन्ने के रस को पीने से ज्यादा उसके निकाले जाने को देखने का सुख था. धान उड़ाया जाता जहाँ वहां का दृश्य अपलक देखते. वापस लौटकर जाने पर जीवन से भरे जीवन के वो दृश्य अब धूमिल पड़ते नज़र आते हैं. उन यादों में अब आधुनिकता के तमाम मुलम्मे चढ़ गए हैं. ढूंढती हूँ गाँव में अपना बीता हुआ बचपन.

कुएं, तालाब, नहरों के किस्से- कुँए बहुत से थे गाँव में. एक कुयाँ एकदम घर के सामने था. लेकिन उस कुँए का पानी मीठा नहीं था. उससे दाल नहीं पकती थी. साबुन साफ़ नहीं होता था. तो सामने वाले कुँए का पानी रोज के ऊपरी खर्च के लिए भरा जाता था और बाकी पानी के लिए मीठे कुँए का रूख किया जाता. पानी भरने का जयादा काम स्त्रियों के हिस्से ही होता था. कभी कभार चाचा लोग पानी भरते थे. लेकिन उनके पानी भरने का वक़्त अलग होता था. सुबह और शाम का वक़्त स्त्रियों का था. जिसमें भाभियाँ, चाचियाँ, जीजी, बुआ वगैरह जाया करती थीं. पानी भरने जाना एक उत्साह जनक समय था जिसकी पूरी तैयारी होती थी. खासकर शाम के वक़्त. घंटे भर पहले से स्त्रियाँ तैयार होना शुरू करती थीं. कलशियाँ चमकाई जाती थीं. घूँघट एकदम नपा होता था. कुँए की जगत पर खिलखिलाहटों का चुहलबाजियों का रेला लगा होता. पानी की कलशी घुड्प करके कुँए में डूबती, फिर गिर्री पर चढकर उसे खींचा जाता. मुझे यह सब खेल लगता था. लेकिन जब भी मैंने पानी खींचने की कोशिश की मुझसे हुआ नहीं. जीजी कहती ‘तू खुद ही कुँए में लुढक जायेगी.’ मुझे कुँए से दूर रहने को कहा जाता. मैं दूर बैठकर इन सबकी हंसी ठिठोली देखा करती. किसी नयी बहू के कुँए पर आने की रस्म भी गजब थी. खूब सज धज के वो कुँए पर जाती. पानी भरती. उसकी निगरानी करती ननद की हवलदारी.

ऐसा ही नहर किनारे जाने पर हुआ करता था. दिन के काम निपटाकर कभी नहर में कपडे धोने के बहाने निकलती टोली. हंसी के बगूले उड़ाती, नहर की धार से होड़ लगाती जिन्दगी.

त्योहारों की आमद और उड़ती एक खुशबू- स्मृतियों की खिड़की जब खुलती है तो उसमें पकवानों की खुशबू और त्योहारों की रंगत भी खुलती है. हर त्योहार पर खेत, कुँए, नहर, नदियाँ, पेड़ों को पूरा महत्व मिलता था. जानवरों को खूब रगड़-रगड़ कर नहलाया जाता. उनके शरीर पर रंगों के गोले बनाकर उन्हें सजाया जाता. उनके गले के लिए नयी प्यारी-प्यारी घंटियाँ लाई जातीं. उनके रहने की जगहों की ख़ास साफ़-सफाई की जाती. रंगों और रौशनी से उन्हें सजाया जाता.

घरों में पकवानों की खुशबू उडती जो पूरे गाँव में उड़ती फिरती. सुख दुःख साझा होते थे सबके. पकवान किसी के भी घर के हों, स्वाद सबके साझे होते थे. या तो मेरी बचपन की स्मृतियों में वर्ग भेद या जाति भेद है नहीं या उस लोक में जिसमें ये स्मृतियाँ बनीं उसमें वो थे नहीं क्योंकि मैंने हमेशा सबको एक-दूसरे के सुख-दुःख में साझा खुश होते और उदास होते ही देखा.

दीवाली में सबके घर के पकवान एक-दूसरे के घर जाते, छोटे लोग बड़ों से आशीर्वाद लेने जाते. पकवान चखते, बच्चे चहकते. होली में रंगों की टोली निकलती. स्त्रियों की अलग, बच्चों की अलग, पुरुषों की अलग. फाग गाई जाती. ढोलकी बजती, मंजीरा बजता. खुशबू वाले रंग उड़ते और गुझिया, पापड़ का स्वाद सजता. जैसे पूरा गाँव एक ले में एक सुर में बंधा हुआ. उन स्मृतियों में कहीं भी दिखावा नहीं था. सब कुछ जैसा था, वैसा ही था. सहज और मिठास भरा. बिलकुल लोक की भाषा की तरह.

बचपन के खेल- बहुत सारे खेल हुआ करते थे उन स्मृतियों में. हम सब बच्चे, सब माने सब. हर जाति वर्ग के बच्चे सब साथ खेलते थे. किसी की कोई हेकड़ी नहीं चलती थी. लेकिन एक बात याद है जरूर उन खेलों की याद के साथ जितनी आसानी से हम अपने घरों से निकल जाते थे खेलने उतनी आसानी से सारे बच्चे नहीं निकल पाते थे, खासकर लड़कियां. उन्हें खेलने के लिए निकलने से पहले जल्दी जागकर घर के काम निपटाते होते थे ताकि खेलने की मनाही न हो. कुछ को खेतों में भी काम करना होता था. कभी काम रह जाता तो वो डांट भी खाया करते थे. कभी-कभी जब हम उनका हाथ बंटाने लगते ताकि वो जल्दी से काम से आज़ाद होकर खेल सकें तो उनके माँ बाप उन्हें डांटते थे कि ‘हमें’ काम क्यों करने दिया. उस वक़्त उस डांट का मतलब समझ में नहीं आया था, अब आता है. बहरहाल लोक के उन खेलों में पोसम्पा से लेकर छुक छुक चलनी, आइस, पाइस, छुपम छुपाई, ऊंचा नीचा गिलास, खो खो सब शामिल होता था. और सोचिये, छुपम छुपाई की रेंज थी पूरा गाँव. कभी कभी तो हम छुपे ही रह जाते और बच्चे खेल ख़त्म करके घर चले जाते. सच्ची, बड़ा बुरा लगता था उस समय तो.

विवाह, लोक गीत और कहावतें- लोक की यादें खुलें लोक के गीतों की खुशबू न बिखरे ऐसा भला कहाँ संभव है. मौका विवाह का हो या बाल बच्चा होने का या रोजमर्रा का जीवन. विवाह के दौरान बन्ना बन्नी, मंडप जिसे मडवा कहा जाता था, पूड़ी बेलने के गीत, चक्की के गीत, कुँए से पानी भरने के गीत, विदाई गीत, गाली गीत सब, नकटा गीत सब तो गाये जाते थे. फसलों के गीत, खेत में रोपाई के गीत, मौसमों के गीत, खेल गीत, श्रृंगार गीत क्या-क्या नहीं होता था. ऐसा मालूम होता था कि हर अवसर के लिए कोई गीत था. ऐसा ही हाल था मुहावरों का. माँ नाना जी, मौसियाँ, चाचा, बुआ इन सबके पास जैसे खजाना था मुहावरों का. माँ ज्यादातर बात मुहावरों में करती थीं, अब भी करती हैं. उन मुहावरों की मिठास जीवन की सबसे मीठी बात लगती है. विवाह के मौके पर किये जाने वाला नकटा भी खूब याद है जिसे विवाह के मौके पर बारात जाने के बाद (जिसका अर्थ होता है समस्त पुरुषों का जाना) रात भार जागकर किय जाता था. इसमें कुछ स्त्रियाँ ही पुरुषों का स्वांग करती थीं. हंसी मजाक के लहजे में सारी रात नाटक होते. इनमें स्त्रियाँ अपने भीतर का तमाम अवसाद भी निकालती थीं ऐसा मुझे अब लगता है.

शब्दों का सफ़र- सोचती हूँ तो उन स्मृतियों में कितने सुंदर शब्द हुआ करते थे जिनकी अब सिर्फ यादे हैं. नाना जी अमरुद को हमेशा बिहीं कहा करते थे. कुँए से पानी निकालने वाली रस्सी को उघानी कहा जाता था और ताला चाबी को कुलुप और उघन्नी कहा जाता था. हम बाबा और नाना को नन्ना कहा जाता था. बिट्टा, लल्ला जैसे रस में भीगे हुए लगते थे. ‘बिट्टा तुम किते जाय रई’ अगर कहीं से कोई पूछ ले तो लगता है निष्प्राण होती देह में रक्त संचार बढ़ गया हो. यह है लोक से जुड़े अपनेपन की ऊष्मा का असर.

आज यह लोक की याद क्यों – अजीब लग सकता है कि अब जब कि समय इतना बदल चुका है तो इस सब को याद करने की क्या वजह हो सकत है भला. लोक की ताकत को क्या हम स्कूली शिक्षा से उस तरह से जोड़ पा रहे हैं जैसा उसे जुड़ना चाहिए था. अगर जोड़ पा रहे हैं तो बहुभाषिकता को समस्या की तरह देखा क्यों जा रहा है, उसे संसाधन की तरह क्यों नहीं देखा जा रहा है. दूर देश में अपनी बोली अपनी भाषा के दो शब्दों के छींटें अगर कान में पड़ते ही सुकून महसूस होता है तो उसी बोली भाषा को कक्षा में वो स्थान क्यों नहीं मिल सकता.

देहरादून के एक प्राथमिक स्कूल का अनुभव याद आता है जहाँ शिक्षिका ने साझा किया कि एक छत्तीसगढ़ का बच्चा आया था स्कूल में. वो कई महीनों तक बोलता ही नहीं था. क्योंकि उसे सिवाय छतीसगढ की भाषा के और कुछ बोलना आता ही नहीं था. और जब वो बोलता था कक्षा के बाहर भी तो उसके साथी उसका मजाक उड़ाते थे. कक्षा में भी वो इस डर से चुप ही रहता था, डरा हुआ खामोश.

राजस्थान में एक शिक्षक ने ऐसा ही अनुभव साझा किया जहाँ वो बच्चों से उनकी लोक की भाषा में ही संवाद किया करते थे जिसे सुनकर एक बारगी लोगों को लगता कि बच्चे अपने शिक्षक का सम्मान नहीं कर रहे. जैसे कि बच्चे बोलते, ‘मास्टर तु म्हाने ठीक तरया स्यूं पढ़ा कोनी रयो आ बात समझ म कोनी आ री’. मास्टर को पता था कि इस बोली में बच्चों से संवाद के ज़रिये उसने दिल में जगह बना रखी है जिसमें सम्मान की तासीर इतनी गाढ़ी है कि उससे ज्यादा कुछ हो ही नहीं सकता.

लोक की इसी ताकत को एनसीएफ ने कक्षाकक्ष और कक्षा शिक्षण की ताकत बनाने की बात भी कही. यह बात लोक के सम्मान और प्यार को सहेजने की बात है. सभ्य होने की की दौड़ में लोक से दूरी बननी कब और कैसे शुरू हो गयी पता नहीं लेकिन यह जरूर महसूस होता है कि इस दूरी ने जिन्दगी का मीठापन चुरा लिया है. जिन स्मृतियों की छुअन भर से झुरझुरी होती है उस लोक की भाषा उसकी संस्कृति उसकी ताकत को यूँ ही तो नहीं जाने दे सकते.

(अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन से प्रकाशित पत्रिका प्रवाह में प्रकाशित)

Monday, February 11, 2019

राजनीति से दूर रखने की राजनीति


- प्रतिभा कटियार

नई बहू आई थी घर में, गाँव में. बच्चों में बहू को देखने का चाव था कि जरा घूँघट हटे और एक झलक मिले. बडी-बुजुर्ग महिलाओं और जवान ननदों की यह चिंता कि घूँघट कहीं हट न जाए. नयी बहू का उत्साह रसोई में तरह-तरह के व्यंजनों में, साज-श्रृंगार में छलकता रहता. इसी बीच आ गए चुनाव और नयी बहू का वोट इसी गाँव में पड़ना तय हुआ. घर में ही नहीं पूरे गाँव में एक पार्टी, एक नेता की लहर थी. सोचने-समझने की कोई गुंजाईश किसी के लिए थी ही नहीं. महिलाएं भी वोट डालने के उत्साह में थीं. उसी जगह वोट डालने के उत्साह में जहाँ डालने को घर के मर्दों ने कहा था. नयी बहू ने अपनी ननद से पूछा, ‘दीदी आप किस पार्टी को वोट दोगी?’ ननद ने इतराते हुए कहा, ‘जहाँ सब घर के लोग डालेंगे.’ ‘सब लोग यानि सब आदमी?’ बहू ने पूछा, ‘हाँ, तो और क्या? अम्मा, चाची, ताई सब वहीँ डालते हैं.’ ‘लेकिन क्यों? वो पार्टी महिलाओं के लिए क्या करने वाली है?’ ‘ऐ भाभी, इत्ता न सोचते हम, ये सब सोचना हमारा काम नहीं. भैया, चाचा लोग कुछ गलत थोड़ी न कह रहे होंगे.’ भाभी कुछ समझती इससे पहले देवर जी पर्ची लेकर आ गये और सबको समझाने लगे किस तरह वोट देना है, कौन से खाने में मुहर लगानी है. नई बहू ने कुछ कहना चाहा तो उसको समझाया गया ‘तुम नयी हो अभी, यही कैंडीडेट ठीक है यहाँ के लिए. सवाल न करो, जल्दी चलो वोट देने.’ बहू ने सोचा कि उसका वोट तो उसका है, वो तो वहीँ डालेगी जहाँ उसे डालना है. लेकिन जब वो पोलिंग बूथ पर पहुंची तो पता चला उसका वोट पड़ चुका था.

यह किस्सा 2014 के चुनाव का है और एकदम सच्चा है कि मैं उस बहू को करीब से जानती हूँ. यही वजह है कि कितने प्रतिशत महिलाओं ने वोट डाला इन आंकड़ों को देख मैं खुश नहीं हो पाती. आंकड़ों में शामिल वो बहू भी तो है हालाँकि उसने तो वोट भी नहीं डाला था, आंकड़ों में वो ननद और सास भी हैं जिन्होंने घर के मर्दों की मर्जी से वोट दिया, जहाँ वो चाहते थे. उदाहरण भले यह एक हो लेकिन ऐसी महिलाएं बहुत हैं.

राजनीति पर बात करना महिलाओं को क्यों पसंद नहीं होता होगा, क्यों साड़ी, चूड़ी और व्यंजन की बात करना उन्हें पसंद होता होगा. क्योंकि दूसरों की बात मान लेने की आदी महिलाओं की पसंद नापसंद भी एक ख़ास ढांचे में ढाला गया. उन्हें जानबूझकर राजनैतिक हस्तक्षेप से दूर रखा गया. उस वक्त जब उनके सौन्दर्य की प्रशंसा, पकवान के स्वाद की तारीफ की जा रही थी, उन्हें समर्पण की देवी कहकर भरमाया जा रहा था ठीक उसी वक़्त देश दुनिया की राजनीति के दाँव-पेच चले जा रहे थे.

उन्हें सवाल न करना सिखाया गया और सवाल न करने, बात मानने वाली महिलाओं के लिए तमगे गढ़े गए और बदले में उन्हें एक कम्फर्ट जोन भी परोसा गया. घर में होने वाले राजनैतिक डिस्कशन्स के दौरान चाय देकर सीरियल देखने का या सब्जी बनाने का, होमवर्क कराने का कम्फर्ट. कभी तो घर के किसी सूने कोने में रो लेने का कम्फर्ट भी. कितनी गहरी राजनीति थी यह महिलाओं को राजनैतिक चर्चाओं से, भागीदारी से दूर रखने की. ‘तुम परेशान मत हो, मैं संभाल लूँगा सब’ कहकर कितनी ही महिला सीट के लिए चयनित ग्राम प्रधानों की मुश्किल हल की है उनके घर के पुरुषों ने. उस वक़्त भी चुपचाप हर बताई गयी जगह पर हस्ताक्षर करती जाती स्त्रियाँ क्या सच में कुछ नहीं सोचती होंगी.

महिलाएं अब भी सॉफ्ट टारगेट हैं, उनसे (सबसे नहीं) वो लिखवाया जा रहा है जो लिखवाया जाना पहले से तय है, वो बुलवाया जा सकता है, जो सबको सुनना अच्छा लगता है, उनसे वो करवाया जा सकता है जिसकी पितृसत्ता को जरूरत है. महिलाओं का अपनी चुनौतियाँ, अपना गुस्सा, अपना सुख-दुःख साझा करने वाला कोई समाज बनने ही नहीं दिया गया.

वोटर होना उनकी राजनैतिक भागीदारी की शुरुआत बने यह होना अभी बाकी है. पति के नाम उसकी राजनैतिक सत्ता सँभालने के लिए रबर स्टैम्प बनने से इंकार करना बाकी है, पंचायतों में सिर्फ महिला सीट होने की वजह से उनके नाम का इस्तेमाल हो जाने और खुद को कठपुतली की तरह काम करने से रोकना अभी बाकी है. बाकी है अपनी डिग्रियों को किनारे रख अपनी शिक्षा को असल शिक्षा में तब्दील करना और सोचना खुद से, खुद के लिए. बाकी है हिम्मत से सामना करना बाहर निकलने पर आने वाली मुश्किलों का सामना करना. बाकी है धता बताना है उन तमाम चालाकियों को जो सुरक्षा और सुविधा के नाम पर उनका रास्ता रोके हैं.

राजनीति में शामिल होकर ही राजनीति का शिकार होने से बचा सकता है. सिर्फ वोट देने, इलेक्शन लड़ने से, ऊंचे पद हासिल करने भर की बात नहीं है यह, महिलाओं को अपनी शक्ति और अपनी जरूरत को महसूस करना होगा और उसके लिए लड़ना भी सीखना होगा.

इसकी शुरुआत आने वाले चुनाव से की जा सकती है सिर्फ वोटर बनने की नहीं जागरूक वोटर बनने की जरूरत है. राजनैतिक विमर्श में शामिल होना, तमाम पार्टियों के घोषणापत्रों को ठीक से पढ़ना, उनके इरादों को भांपना और तय करना एक ठीक उम्मीदवार. अगर नहीं है कोई उम्मीदवार मन मुताबिक तो ‘नोटा’ है न? लेकिन अब महिलाओं की भागीदारी के आंकड़ों को असल में महिलाओं की भागीदारी में ही बदलने का वक़्त आ गया है. महिलाओं को राजनीति से दूर रखने की राजनीति को अब समझना भी होगा और उस राजनीति का शिकार होने से खुद को बचाना भी सीखना होगा.

Saturday, February 9, 2019

उगना बसंत का





एक कवि को उसकी कविता के लिए
भेज दिया जाना सीखचों के पीछे
खुलना है उम्मीदों की पांखे
कि बची है कविता में कविता
और भागते-दौड़ते जिस्मों में
बची ही जिन्दगी भी

नजरबंद किया जाना लिखते-पढ़ते लोगों को
ऐलान है इस बात का कि
नज़राना हैं ऐसे खूबसूरत लोग दुनिया के लिए
कि उनमें बचा है हौसला
सच लिखने का

गुम हुए युवा बेटे को ढूंढती माँ की धुंधलाती नज़र
उसे मिलने वाली धमकियां
सड़कों पर मिलते धक्के
बताते हैं कि कितना डरा हुआ है
सत्ता का चेहरा
और उतना ही है बेनक़ाब भी

परोसी गयी हर बात पर भरोसा करती
बिना सोचे समझे व्यक्ति से भीड़ बनती
और क्रूर खेल में शामिल होती जनता
गवाही है इस बात की
कि शिकार वही है सबसे ज्यादा
उसी सत्ता की जिसके वो साथ है

अपना ही मजाक उड़ाते चुटकुलों को फॉरवर्ड करती
उड़ाती अपना ही परिहास
कैद करती खुद को खुद की मर्जी से
त्याग, समर्पण और देवी जैसे शब्दों के कैदखानों में
ये स्त्रियाँ
सदियों पुरानी पितृसत्ता की साजिश का आईना हैं

इन सबके बीच
पंछियों का लेना बेख़ौफ़ ऊंची उड़ान
बच्चों की आँखों से छलकना उम्मीद
उनका यकीन करना प्रेम पर
मानना बसंत का उत्सव
उगना है बंजर ज़मीन पर नन्ही कोंपलों का...

Sunday, February 3, 2019

देखो न कितना सुर्ख इतवार उगा है आज



धूप बिखरी हुई है हथेलियों पर
देर तक सोयी आँखों से
ख्वाब झरे नहीं अब तक

चाय की तलब और आलस में लगी है होड़
शोर है बच्चों और पंछियों का
शरारतें हैं

पिछले बरस जब बर्फ गिर रही थी इन दिनों
तुम साथ थे
इस बरस भी पहाड़ियां लिपटी हैं
नगीने जड़ी सुफेद चादर में
बर्फ बन बरस रही है तुम्हारी याद उन पर
सुना है कई बरसों के रिकॉर्ड टूटे हैं

देखो न कितना सुर्ख इतवार उगा है आज.

Friday, February 1, 2019

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा



'मुझे कहानियां लिखना नहीं आता'
'तो कहानियां लिखता ही क्यों है तू, सच लिखा कर...'

- 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' से

'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' में एक बार फिर राजकुमार राव ने अपने अभिनय कौशल का मुरीद कर लिया. लेखक की भूमिका में राजकुमार जैसे खिल रहे थे. उनकी मुस्कुराहट बड़े परदे पर रौशनी की तरह बिखरती है. अजीब बात है कि मेरे लिए यह फिल्म थी तो अनिल कपूर जूही चावला की लेकिन बन गयी राजकुमार राव और फिल्म की लेखिका गज़ल धालीवाल की. स्क्रिप्ट जितनी मजबूत थी उसे निभाया भी उसी जतन से गया है. अनिल कपूर खाना बनाने को लेकर जिस तरह पैशनेट हैं और बार बार कहते हैं कि बनना तो वो इण्डिया के नम्बर वन शेफ चाहते थे लेकिन बना बिजनेसमैन दिए गए...के भीतर कई सवाल खुलते हैं. एक तो ये अपने मन का कुछ करना हो तो नम्बर वन जाने क्यों चिपक जाता है साथ में. बिना नम्बर रेस के भी होती है न जिन्दगी शायद अभी वहां तक पहुंचना बाकी है. फिल्म जटिल विषय के साथ पूरी संवेदनशीलता से पेश आती है. यह प्रेम कहानी है. विशुद्ध प्रेम कहानी. अब तक गरीब अमीर, हिन्दू मुसलमान, प्रेम यही प्रेम की अडचनें होती आई हैं फिल्म के विषयों में लेकिन इस बार बात थोड़ी अलग है. यह अलग बात पहले भी फिल्मों में आ चुकी है, अलीगढ़, फायर, दोस्ताना जैसी फ़िल्में बनी हैं लेकिन इस फिल्म ने अलग जानर की फिल्म बनकर न रह जाने की बजाय आम पब्लिक की फिल्म बनने की राह चुनी है. शायद इसके जरिये बात दूर तक जाय. फिल्म मुझे अच्छी लगी, जरूरी भी लगी. सबसे अच्छे लगे राजकुमार राव.