ये लम्हा फ़िलहाल जी लेने दो...
'फिलहाल' फिल्म मुझे कई कारणों से प्रिय है. बहुत सारे कारण. यह फिल्म दोस्ती पर बनी है. दोस्ती के आकाश को खिलते, निखरते देखने का सुख है इस फिल्म को देखना. यह फिल्म बनी है मातृत्व की तीव्र इच्छा और उसके तमाम एहसासों को सलीके से उभारती है, और जिस वक़्त यह फिल्म देखी थी मैं भी माँ बनने की तीव्र इच्छा में थी. यह मेघना गुलज़ार की पहली फिल्म थी. गुलज़ार साहब की बेटी के काम को देखने का रोमांच तो था ही. इस फिल्म में मेरी प्रिय अभिनेत्रियाँ सुष्मिता सेन और तब्बू थीं. फिल्म के गीत बेहद खूबसूरत थे जो आज भी फेवरेट लिस्ट में शामिल रहते हैं.
इस फिल्म को मेघना ने बहुत ही प्यार से बनाया, हर फ्रेम, हर शॉट एकदम तसल्ली से. स्क्रिप्ट एकदम बंधी हुई. न कोई जल्दबाजी न कोई ठहराव. सरोगेसी पर पहले भी फ़िल्में बन चुकी हैं लेकिन इस विषय को डील करते समय जिस तरह की इंटेसिटी जिस तरह की भावनात्मक जर्नी की जरूरत थी वो फिल्म में दिखती है. मातृत्व का एहसास दुनिया का सबसे खूबसूरत एहसास, माँ बनने की इच्छा, इमोशनल उतार-चढ़ाव, मातृत्व की उस इच्छा को एक दोस्त के द्वारा समझा जाना और दुनिया के सबसे खूबसूरत एहसास को दोस्त को तोहफे में देना.
सुष्मिता भले ही कम फिल्मों में दिखी हों लेकिन मुझे उन्हें परदे पर देखना सुखद लगता है, तब्बू को भी. इन दोनों को दोबारा कभी किसी फिल्म में नहीं देखा. यह असल में सुष्मिता और तब्बू की फिल्म है जिसमें संजय सूरी और पलाश ने रंग भरे हैं. ये लम्हा फ़िलहाल जी लेने दो, ले चलें डोलियों में तुम्हें गर इरादा करो, सोलह सिंगार करके सहित तमाम गाने अच्छे लगते हैं. इस फिल्म का जिक्र भी हो तो मन को कुछ खुश खुश सा महसूस होता है...
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