Saturday, September 15, 2018

फेवरेट सिनेमा- जापानीज़ वाइफ


एक फिल्म देखी थी जापानीज़ वाइफ. यह धीरे-धीरे सरकती हुई फिल्म है ठीक वैसे ही जैसे आहिस्ता-आहिस्ता नसों में उतरता है प्यार. कोई हड़बड़ी नहीं पूरे धैर्य के साथ. यह फिल्म जेहनी सुकून की तलाश को पूरती है, सुख क्रिएट करती है और उसे सहेजकर आगे बढती है. अपर्णा सेन की यह फिल्म मेरी प्रिय प्रेम कहानियों में से एक है. इस फिल्म को देखते हुए प्रेम की साधारणता के साथ उसकी उच्चता को एक साथ महसूस किया मैंने. 

यह कहानी दो ऐसे प्रेमियों की है जो पत्रों के माध्यम से एक दुसरे को जानते हैं. स्नेहमोय (राहुल देव) एक स्कूल टीचर है और उसकी दोस्ती जापान की मियागी (Chigusa Takaku)से हो जाती है. यह दोस्ती खतों के माध्यम से होती है फिर यह खतों के माध्यम से ही प्रेम में बदलती है और फिर ब्याह में. इस दौरान स्नेहमोय के घर में एक विधवा स्त्री संध्या अपने 8 बरस के बच्चे के साथ आती है, उस बच्चे के साथ स्नेहमोय का भावनात्मक लगाव फिल्म में खिलता है साथ ही संध्या की चुप चुप सी उपस्थिति में एक अलग सा खिंचाव है. रिश्तों के पेचोखम में उलझाये बगैर फिल्म प्रेम की सादगी को संभाले हुए आगे बढती रहती है.

इस ज़माने में जब वाट्सप पर फेसबुक पर सेकेंड्स में सन्देश जा पहुँचते हों, वीडियो कॉल के जरिये दुनिया के किसी भी कोने में बैठे किसी भी व्यक्ति से झट से कनेक्ट किया जा सकता हो उस दौर की प्रेम की कहानी को महसूस करना जब कि चिठ्ठियाँ खुदा की किसी नेमत ही मालूम हुआ करती थीं और डाकिया बाबू खुदा के बंदे लगते थे अलग ही अनुभव देता है. ट्रंक कॉल के पैसे जमा करना, कॉल न लगना या आवाज न आना, बात भी न हो पाना और पैसे भी लग जाना, आँख भर-भर चिठ्ठी का इंतजार करना और चिठ्ठी मिलने पर सुख से छलक पड़ना. प्रेम में मिलने का अपना महत्व है लेकिन यह प्रेम कहानी लौंग डिस्टेंस रिलेशनशिप की कहानी एक अलग ही परिभाषा गढ़ती है प्रेम की. प्रेमी जो कभी मिले नहीं उनके प्रेम की प्रगाढ़ता किस तरह फिल्म में खिलता है इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है. फिल्म के दृश्य, बारिश, जंगल, नदी सब प्रेम को कॉम्प्लीमेंट करते हैं.

मुझे इस प्रेम कहानी का अंत और भी खूबसूरत लगता है हालाँकि इसके अंत से काफी सारे व्यावहारिक लोग असहमत हो सकते हैं लेकिन चूंकि प्रेम की शुरुआत और अंत सिर्फ प्रेम है किसी घटना का कोई आकार लेना नहीं इस लिहाज से इस कहानी का अंत कुछ भी होता इसे इतना ही खूबसूरत होना था. टिपिकल बॉलीवुड अंत से इसे बचाकर अच्छा ही किया है अपर्णा सेन ने. 15 बरस का प्रेम और एक भी मुलाकात नहीं...झर झर झरते आंसुओं के बीच इस प्रेम कहानी को देखना मैं कभी भूल नहीं पाती.

राहुल बोस मेरे प्रिय कलाकार हैं उन्होंने इस बार भी मोहा है लेकिन फिल्म के अन्य कलाकारों राइमा सेन, मौसमी चटर्जी और Chigusa Takaku ने भी अच्छा अभिनय किया है. अनय गोस्वामी की सिनेमोटोग्राफ़ी कमाल की है.

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

30 पहले पहुँच गया चिट्ठी पढ़ते ही।

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 15/09/2018 की बुलेटिन, ध्यान की कला भी चोरी जैसी है “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-09-2018) को "मौन-निमन्त्रण तो दे दो" (चर्चा अंक-3097) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी