नवनीत बेदार को उनके नजदीकी यहाँ तक कि उनके गुरुजन भी अक्सर ‘बेदार साहब’ के नाम से बुलाते हैं | वो तब से साहब हैं जब वर्तमान वाले चर्चित ‘साहब’, ‘साहब’ नहीं बने थे | शाहजहाँपुर में पैदा हुआ यह शख्स न सिर्फ घनघोर यारबाज़ है बल्कि बेतरह लड़ाकू और पढ़ाकू भी | मुझे याद है जब बिलकुल कड़क कलफ लगे झक्क सुफैद कुर्ता-पायजामा पहने बेदार साहब से मैं पहली बार मिला था | वो जेएनयू का सतलज हॉस्टल था और बेदार साहब की धज जेएनयू के मिजाज़ से मेल नहीं खा रही थी | मैं किसी ‘इंकलाबी’ काम से ही यहाँ आया था | साहब को देख कर इन्कलाब से रिसाव शुरू हो चुका था | मैंने कहा ‘नमस्ते सर!’ और अपना परिचय दिया | साहब उठकर खड़े हुए...मेरी पीठ पर धौल मारी और कहा ‘चलो पहले चाय पीकर आते हैं’ फिर बेतकल्लुफ़ी से कहा ‘यार ये सर-वर मत कहा करो...सीधे नाम लेकर बुलाया करो!’ मैं अब समझ रहा था कि जेएनयू लिबास में नहीं मिजाज़ में बसता है | मैंने उनकी बात आंशिक रूप से मान ली और अब मैं उन्हें ‘नवनीत सर’ कह के बुलाता हूँ |- प्रियंवद अजात
इस अनुभव से गुजरते हुये मुझे एक वाक्या याद आ गया। जे. एन. यू. के दिनों में एक मित्र के साथ पुरुषोत्तम अग्रवाल जी के यहां बैठा था, हम किसी चर्चा में मशगूल थे कि इसी दौरान एक मित्र ने बीए के विद्यार्थियों को ‘बच्चे’ कह दिया। मुझे याद है मित्र के इस सम्बोधन पर तुरंत पुरुषोत्तम सर ने नाराज़ होते हुए टोका और उसे समझाया कि लोकतंत्र में आप एक मतदाता हो चुके व्यक्ति को किसी भी हालत में बच्चा नहीं कह सकते। इस वाकये के कुछ दिन पहले ही स्कूल आफ सोशल सांइसेज़ में मैंने एक छात्र को अपने प्रोफेसर को नाम से पुकारते देखा था, मुझे उस वक्त एक छात्र का अपने प्रोफेसर का सीधे नाम लेना अजीब लगा। यह शायद इसलिए कि मेरे सामाजीकरण के दौरान मैंने अपने से बड़ों को पुकारते वक्त नाम के साथ जी,सर या भाई कहते ही पाया था। जब पुरुषोत्तम अग्रवाल सर से इस संदर्भ में और बातचीत हुई तो मुझे उस छात्र का अपने प्रोफेसर का नाम लेकर पुकारना भी समझ में आया और मन में लोकतंत्र की समझ भी कुछ मजबूत हुई ।
आज जब क, प फ ब के साथ संवाद की ये घटना घटी तो अपनी लोकतंत्र की समझ पर मेरा भरोसा थोड़ा और बढ़ गया। मुझे लगता है कि किसी को ‘बच्चा’ कहना एक बेहद गैरजिम्मेदाराना और सामंती सोच का परिणाम है। इसमें उम्र की दृष्टि से माने जाने वाले अवयस्क भी शामिल हैं। यहाँ बच्चा कहने के पीछे दो भाव छुपे नज़र आते हैं- एक- आपको अभी समझ नहीं है, आपने अभी दुनिया नहीं देखी है और आपको अभी बहुत कुछ (मुझसे) सीखना है। और ‘मैं’ जो आपको बच्चा कह रहा हूं, बहुत दुनिया देख चुका हूं और मेरे पास आपके सीखने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन आप बच्चे हैं इसलिए आप मुझसे सीखने लायक भी नहीं हैं। या ये भी समझा जा सकता है कि आप अभी बहुत छोटे हैं मुझसे बात न करें। मुझे बात करने के लिए बराबर वाले चाहिए।‘ ये सब सामंती मानसिकता के व्यवहार हैं, बच्चे बड़ों के बीच में न बैठें, उनके कहे को सर झुकाकर मान लें, जबानदराज़ी तो बिल्कुन न करें। वरना पछताएंगे। (घर में तो ऐसे मौकों पर तुरंत पूजन भी शुरू हो जाता था।) और किसी बड़े ‘महान’ के विरुद्ध कुछ भी कह देना और सवाल पूछ लेना तो ब्लास्फेमी टाइप कुछ हो जाता है।
मेरी लोकतंत्र की इस समझ को और मजबूती मिली हमारे दूसरे साथी रोहित धनकर से। रोहित ने भी, जो मुझसे लगभग 20 वर्ष बड़े हैं हमेशा नाम से ही बुलाने को प्रेरित किया। लेकिन क्या करें अपनी सामंती परवरिश जो ठहरी कि ‘जी’ लगाए बगैर अपुन रोहित बोल ही नहीं पाए।
हां, तो दिगंतर में रहते हुए मेरी दो तरह की समझ बनी, एक- शिक्षा, जीवन के अनुभवों का ही विस्तार है। उससे अलग कोई अजूबी चीज नहीं है जो मिल गई तो आप विशिष्ट बन जाते हैं। आप अपने अनुभवों में ही कबीर, गांधी और जायसी को नहीं ढा़ल पाए तो पढ़ने-लिखने का कोई फायदा नहीं। दिगंतर में ही रहते समय ये भी समझा कि बच्चा पैदा ही सीखने के लिए होता है और जन्मते से ही सीखना शुरू कर देता है। और इसलिए किसी के अनुभव को कमतर कहना केवल इसलिए जायज़ नहीं हो जाता कि बाई चांस वो आपके बाद पैदा हुआ है। एक नागरिक के तौर पर एक बच्चे के और एक वयस्क के अधिकार बराबर हैं और लोकतंत्र यही सिखाता है। एक और बात, हमारे यहां बचपन और बच्चे को लेकर समझ काफी कच्ची रही है। उनकी छवियां अक्सर बड़ों के मिनिएचर या लघु रूप में देखी जाती रही हैं। बच्चे के अपने वजूद को दरकिनार किया जाता रहा है और माना जाता रहा है कि वह बड़ा होकर ही कुछ बनेगा। यानी अभी वह ‘कुछ नहीं’ के आस-पास ही है। बच्चा भी स्वयं को इसी तरह से देखने का आदी हो जाता है और अपने वर्तमान को तिलांजलि देकर अपने बड़ों की अपेक्षाओं के अनुरूप बनने के प्रयास में जुट जाता है। हम सब वैसे ही कुछ-कुछ बने हैं और कुछ नहीं बन पाए हैं। हम अपने बड़ों की अपेक्षाओं के अनुरूप बनने के प्रयास में न तो वो बन पाते हैं जो बड़े हमें बनाना चाहते हैं और न ही अपनी खुदी, अपनी स्वयं की इच्छा को बचा पाते हैं।
यहाँ एक और बात ध्यान देने की है कि आमतौर पर यह भ्रम है कि सीखने की प्रक्रिया में बड़ा ही छोटे को सिखा सकता है। क्योंकि छोटा तो अपरिहार्य रूप से बड़े से ज्यादा जान ही नहीं सकता, अत: उसके पास अपने से बड़ों को सिखाने के लिए कुछ हो ये संभव ही नहीं। ऐसे में एक बात और निकलती है कि सिखाई जाने वाली चीज़, जिस पर बड़े का ही अधिकार है, वह कुछ स्थायी किस्म की है और एक परम्परा से उसके पास आई है और थाती के तौर पर उसे अपनी अगली पीढ़ी को आगे देकर जाना है। यानि ज्ञान स्थायी है, परिवर्तनशील नहीं। और परिणामस्वरूप जो थाती के रूप में परम्परा से होकर आया है वही सही है और उसके अतिरिक्त सब कुछ गलत है और अस्वीकार्य है। ( शायद पीढ़ियों के बीच का गतिरोध ‘जनरेशन गैप’ इसी में जन्म लेता है)
दूसरी बात, सवाल करना एक और बड़ी ज़हमत है जो लोकतंत्र लेकर आता है। इसीलिए किसी सामंती समाज में सवाल करना अच्छा नहीं माना जाता। यदि आप अपने से बड़े से सवाल करते हैं या उनकी बात को टोकते हैं तो उसे जबान लड़ाना, बदजुबानी करना, अभद्रता और अशिष्टता कहा जाएगा। और अगर कहीं ये सवाल किसी ऐसे स्थापित व्यक्ति से हों तो समझो कि ब्लास्फेमी हो गई। कुछ लोग धर्म-ध्वजा लेकर आपके पीछे पड़ जांएगे और आपसे आपके शिजरे के साथ आपकी जड़ें खोद-खोदकर समूलोच्छेद करने को उतारू हो जाएंगे। ज़रा सोचिए ऐसा क्यूँ होता है? दरअसल, हमें स्कूल में भी सवाल करना नहीं बल्कि उत्तर देना सिखाया जाता रहा है और जो सवाल पूछे भी जाते रहे हैं वो सवाल भी बेहद कमज़र्फ किस्म के होते हैं, मानो सवाल केवल इसलिए पूछे जा रहे हैं कि अमुक परीक्षा में पास होना है। ज़ाहिर है कि जब सवाल पूछना सिखाया ही नहीं गया तो सवाल का पूछा जाना अशिष्टता और अभद्रता तो लगेगी ही। एक छात्र के रूप में हमें जो शिक्षक ने बता दिया बस वही अंतिम सत्य है, उसके न दांए देखने की जरूरत है और न बांए देखने की।
सवाल करना दरअसल परम्परा के प्रति एक अस्वीकार को दर्शाता है। इसका कारण भी शायद वह परम्परागत ज्ञान और उसका स्वरूप ही रहा हो जिसमें कतिपय कथनों के लिए कोई तर्क आवश्यक नहीं माना गया। जो कह दिया गया उसे मान लया गया। जब कभी हितों में टकराव हुआ और उसके लिए तर्क खोजे गये या उस पर सवाल पूछे गए, तो उसे वचन के प्रति विद्रेाह माना गया और उसे दबाने के प्रयास किए गए। इसके कई उदाहरण आपको साहित्य से लेकर धर्म-परम्पराओं में देखने को मिल जाएंगे।
अक्सर बड़ों के अगम्भीर व्यवहार को बचपना और मूर्खतापूर्ण व्यवहार को बचकाना कह कर खिल्ली उड़ाने के पीछे भी आप बच्चे के प्रति व्यस्क की हिकारत देख सकते हैं। यानि फिर वही भाव कि बच्चे तो गम्भीर और ज्ञान की बात करने वाले हो ही नहीं सकते। बच्चों के गीत और प्रार्थनाएं भी कुछ इसी तरह से पेश किए जाते हैं कि ‘ हम सब बच्चे हैं नादान’…… , स्वयं को मूढ़मति के रूप में स्थापित करते हुए ऊपर वाले से ज्ञान मांगा जाता है। हमारी परम्परा में नादानी और बच्चे एक दूसरे के पर्याय से लगते हैं।
ऐसे परिवेश में एक बार फिर से समझने की जरूरत है कि बच्चे को लोकतंत्र के जानिब से देखा जाए, परम्परागत नज़रिए को ताक पे रखते हुए।
पुन: बाद में चर्चा के अंत में ‘क’ ने स्वीकार किया कि ‘बच्चे हो’ जैसा मुहावरा अपना अर्थ खो चुका है।
नवनीत बेदार को मैंने हमेशा एक बेहद सरल, सादा और स्पष्ट इन्सान के तौर पर पाया है. बजरिये देवयानी मैंने नवनीत में एक दोस्त को पाया. नवनीत के साथ बैठना, बात करना इतना सहज होता है कि लगता है दुनिया में ऐसे लोगों की कितनी जरूरत है जिनके साथ आप इस कदर सहज हो सकें कि स्त्री पुरुष का भेद मिट जाए. ऐसे ही एक मित्र हैं प्रियंवद. नवनीत के बारे में ठीक से बात कर पाने के लिए मुझे प्रियंवद ही याद आये. नवनीत का लिखा पहली बार 'प्रतिभा की दुनिया' में आया है लेकिन यह सिलसिला बनेगा इस उम्मीद से-- प्रतिभा
5 comments:
you made my day....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-09-2018) को "हिमाकत में निजामत है" (चर्चा अंक- 3090) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आप अपने अनुभवों में ही कबीर, गांधी और जायसी को नहीं ढा़ल पाए तो पढ़ने-लिखने का कोई फायदा नहीं।
बहुत सुन्दर।
बेहतरीन
नवनीत जी बेहद आत्मीय है। उनके साथ और बातें आपको जीवन के प्रति आस्था पैदा करने वाला होते हैं। निराशा के क्षणों में हुए बेहद अपनापन के साथ वे एक मार्ग देते हैं ।वह महानता के बिना किसी खोल के सहज भाव से आपका साथ देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। याह आलेख में पहले भी पढ़ चुका हूं और फिर से: पढ़ा। वास्तव में यह आलेख सिर्फ एक आलेख नहीं एक जीवन दर्शन है। आप जब भी उनसे मिलेंंगे तो सहज ही आपको इस बात का एहसास हो जाएगा । जेएनयू में वह हमारे सीनियर रहे हैं और थोड़े दिनों के लिए अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में उनके साथ काम करने का मौका भी मिला। दोनों जगह पर उनके अपनापन और व्यक्तित्व में कोई फर्क नहीं आया और गहरी आत्मीय एहसास से उन्होंने हमेशा मुझे समस्याओं से संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया है।
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