Wednesday, May 30, 2018

रेखा चमोली की डायरी के साथ एक यात्रा


यह 2012 की याद को पलट के देखना है. उस रोज जब मुठ्ठियों में 20 मई का दिन था और सामने उत्तरकाशी का रास्ता. अगर स्मृति दोष नहीं है तो संभवतः वह 25 मार्च 2012 का दिन था, मैं पहली बार उत्तरकाशी के रास्तों पर थी. फ्योली के फूलों से भरा रास्ता खूबसूरत पहाड़ और एक नयी दुनिया में जाने का नए लोगों से मिलने का बहुत कुछ नया जानने सीखने का उत्साह सफ़र को खुशनुमा बना रहा था. मैं बावरी सी सब कुछ देख सुन रही थी, महसूस कर रही थी.

पहले भी कई बार उत्तरकाशी गयी हूँ, वहां के शिक्षक साथियों से मुलाकातें की हैं, स्कूलों में जाना हुआ है, नदियों से दोस्ती हुई है, लोगों से प्यार हुआ है. उत्तराखंड में देहरादून के बाद उत्तरकाशी से ही पहले पहल की दोस्ती हुई. आज जब कई बरस बाद उत्तरकाशी के रास्ते पर हूँ तो लग रहा है स्मृति के वो पन्ने भी साथ हैं.

मैं रास्तों में बादलों की लुका-छिपी, फूलों की बहार ढूंढ रही थी लेकिन यह मौसम कोई और था. पहाड़ों में आग लगी हुई मिली. बादलों की लुका-छिपी की जगह धुआं नज़र आ रहा था. रास्तों में हरियाली कम नदियों में पानी कम लेकिन मन में उत्साह जरा भी कम नहीं. उत्साह की मुख्य वजह थी शिक्षिका रेखा चमोली की डायरी 'शिक्षक की स्कूल डायरी' जिसे अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने प्रकाशित किया है का विमोचन और डायरी पर शिक्षकों से बातचीत का अवसर.

रेखा शैक्षिक अनुभवों से समृद्ध शिक्षिका हैं. यह समृध्धि उनके काम के बरसों से नहीं उनके काम की गहराई से मापी जा सकती है. मैं उनसे कई बार मिली हूँ, औपचारिक व अनौपचारिक हर स्तर पर बातचीत की है, उनकी कवितायें पढ़ी हैं और रेखा को महसूस किया है. मैंने पाया है कि रेखा अपने लिखे में, अपने दिखे में और अपने जिए में एक सी हैं. मेरे तईं यह बात बेहद मूल्यवान है. शायद यही वजह है कि रेखा मैम अब प्यारी रेखा यानि सहेली रेखा में बदल चुकी है. रेखा की डायरी पर विस्तार से अलग से बात करनी होगी लेकिन यह तय है कि अब तक जितने भी पन्ने पलटे हैं उनके भीतर एक पॉजिटिव अनरेस्ट दिखा है, कुछ करने की शदीद इच्छा, बहुत कुछ जानने की, सीखने की इच्छा. मैं इन इच्छाओं का बहुत सम्मान करती हूँ इसलिए जहाँ भी ये इच्छाएं हैं वहां होना चाहती हूँ. क्योंकि कुछ भी करने से पहले इच्छा का होना जरूरी है. वरना बिना इच्छा के, बिना बेचैनी के, बिना सीखने की कोई चाह के भी कई किताबें लिखने वालों को, भाषण देने वालों को भी जानती ही हूँ.

मेरे लिए यह बेहद खूबसूरत अवसर था कि मैं भावनाओं, काम और अभिव्यक्ति में ईमानदार रेखा चमोली की किताब के विमोचन में उनके साथ रही. ऐसे साथ हमेशा आपको कुछ सिखाते हैं, परिमार्जित करते हैं. इसी अवसर पर मुझे डायरी पर शिक्षकों के साथ संवाद करने का भी अवसर मिल रहा था. कोई भी बाहरी संवाद असल में पहले भीतरी संवाद ही होता है इस लिहाज से शिक्षकों के साथ संवाद असल में मेरे ही सीखने, जानने, महसूसने और कुछ अब तक के जाने हुए को साझा करना था. यह बातचीत 3 अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग शिक्षक समूहों के साथ होनी थी. सबसे पहले हम बडकोट पहुंचे.

बड़कोट- बडकोट एक क़स्बा है. पहाड़ों को मसूरी या नैनीताल में ढूँढने वालों के लिये इसका नाम न सुना होना लाजिमी हो सकता है. लेकिन यह पहाड़ों से घिरा सुंदर सा शहर है. छोटा, सादा, सुंदर. छोटी-छोटी सब्जी की दुकानें, फलों की दुकानें, छोटी-छोटी रोजमर्रा की ज़रूरत के सामान की दुकानें. छोटी सी मार्किट जिससे गुजरना भला लगता है. बहुत सारे अजनबी लोग जो अजनबी नहीं प्यारे लगते हैं. किसी पर भी भरोसा करने को जी चाहता है. कमरों में ताला लगाने की जरूरत नहीं लगती. लोग झिड़कते नहीं किसी बात पर. हर कोई अपने काम में व्यस्त है लेकिन किसी को कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं है. मैं यहाँ पहली बार आई हूँ और महसूस कर रही हूँ कि ऐसी ही तो किसी जगह की तलाश थी. कितनी शांति है यहाँ. अजनबियत से भी ऐसा अपनापन जो कई बार अपनों के बीच भी मिसिंग लगता है.

मैं और रेखा दोनों डायट बडकोट समय से पहले ही पहुंचकर लोगों से मिलना चाहते थे. रेखा की काफी यादें जुडी हैं बडकोट से. उसके लिए यह नया नहीं है. रेखा ने यहीं डायट बडकोट से बीटीसी की ट्रेनिंग ली है. यह शहर उसके लिए पहचाना है, लोग पहचाने हैं. मैं उसके पहचाने हुए के बीच अपना अजनबी होना छुपा रही हूँ. रेखा जिस प्यार से, सहजता से लोगों से मिलती है वह मुझे बहुत विरला सा लगता है. उसमें सचमुच का अपनापन होता है. यहाँ लोग भी रेखा को खूब प्यार करते हैं, सम्मान करते हैं.

कार्यक्रम ठीक-ठीक हो जाने का सुख हमारे साथ शाम से हो लेता है. यह ठीक से होना क्या है आखिर? तालियाँ, प्रशंसा या कुछ अकुलाहट, कुछ सवाल. कार्यक्रम के अंत में शिक्षकों के सवालों ने मुझे मोहा. वो सवाल कि कैसे लिखने के दौरान आती हैं अडचनें, कैसे दूर किया जा सकता है? नियमित कैसा हुआ जाय? क्या हर कोई लिख सकता है सचमुच? रेखा कैसे वक़्त निकालती होंगी लिखने का? डायरी को बेस्ट फ्रेंड के रूप में पाना और पलटकर खुद को देखना, अपने भीतर कुछ सुधार कर पाना आदि.

सफल होना असल में सवालों से भर जाना ही तो है. अगर पुराने सवाल थे तो नए सवालों से उन्हें बदल लेने से भी है. अगर भीतर शांति थी अब तक तो उसे एक बेचैनी, एक अकुलाहट से भर देना और शुरू करना सोचना कि कुछ न कुछ तो अब करना होगा. कि जब आप जैसे आये थे वैसे ही वापस न जा रहे हों. मैं तो वैसी ही वापस नहीं जा रही थी लेकिन देख पा रही थी कि काफी शिक्षक साथी अपनी अकुलाहट को लेकर बात कर रहे थे. कुछ भावों में डूबे हुए थे . कुछ ठान चुके थे कि आज से ही शुरू हो जायगा डायरी लेखन.

उत्तरकाशी- उत्तरकाशी खूबसूरत शहर है. इस शहर की नदी के किनारे मैंने अकेले काफी वक़्त बिताया है. यहाँ पहुँचते ही फिर वही कल कल कल का शोर पुकारने लगा था. हर्षा रावत जी से मिलने का तय हुआ और नदी का किनारा पकडकर चल पड़ी उनके घर. सारे रस्ते नदी बात करती रही. वो कोलाहल, वो नदी का रौद्र रूप जो आपदा बन आया होगा. मैंने पूछा नदी से, 'क्यों तुमने रुलाया इतने लोगों को? स्वभाव से तो तुम ऐसी नहीं हो? ' नदी खामोश रही. इस ख़ामोशी में उसकी भी पीड़ा दर्ज है, ठीक वैसे ही जैसे पहाड़ों से उठते धुंए में पहाड़ों की पीडा दर्ज है, पक्षियों का दर्द दर्ज है. इस दर्द की जिम्मेदारी हमारी ही है, उत्तरकाशी में पसीना पोछते लोगों का दुःख समझा जा सकता है, जहाँ कभी पंखे होते ही नहीं थे ,अब एयरकंडिशन लगे हुए है. हर्षा जी का घर नदी के ठीक सामने है. यहाँ इसी नदी की धार के बीच पत्थरों पर बैठकर मैंने और हर्षा जी ने घंटों बात की थी. यह और बात है कि बाद में वह बात एक साक्षात्कार बना था. आज हम फिर उसी जगह थे, चाय थी, शाम थी हर्षा रावत का स्नेहिल साथ था. वापसी में हमें रस्ते में तीर्थयात्रियों का सैलाब मिला ऐसा सैलाब कि पैदल व्यक्ति भी जाम में अटक जाय. हमारे धर्म हमारी आस्थाएं हमारे रास्ते आसान तो कभी नहीं करते, हाँ रोकते कई बार हैं. ऐसा क्यों होता होगा भला. शायद हमारे ही धर्मों को देखने समझने और अपनाने का कोई दोष होगा.

अगले दिन कार्यक्रम समय से तनिक देर से शुरू हुआ लेकिन चला पूरी धुन में. यहाँ काफी शिक्षक मुझे भी जानते थे लेकिन यह कार्यक्रम रेखा के शहर में हो रहा था. यह उसकी शाम थी. वो उन लोगों के बीच थी जिनके बीच पली, बढ़ी और बड़ी हुई है. अपनी दूसरी किताब के साथ इन सबके बीच होना रेखा को उत्साह से भी भर रहा था और संकोच से भी. वो सबसे मिल रही थी. लोग उसे प्यार कर रहे थे, बधाई दे रहे थे. वो संकोच को छुपाने के प्रयास में और खूबसूरत लग रही थी. यहाँ भी डायरी लेखन पर बातचीत हुई, रेखा ने अपने अनुभव साझा किये डायरी के कुछ अंश पढ़े भी गए. इन कार्यक्रमों की आत्मीयता मोह लेती है.

रामेश्वरी लिंगवाल मैडम से कई सालों बाद मिलना हो रहा था. वो बार बार गले लग रही थीं फिर चुप होकर देख रही थीं. मैं उस भीतर घट रहे को सहेज रही थी ठीक वैसे ही जैसे रेखा सहेज रही थीं सबसे मिलना. उनकी दोनों प्रधानाध्यापिकाएं, साथी शिक्षक, दोस्त, सीनियर्स सब थे. रेखा ने कुछ बहुत कमाल की बातें कहीं मसलन यह किताब या कुछ भी लिखना एक स्त्री के लिखने और पुरुष के लिखने में जो अंतर है उसे अभी समाज नहीं पाट पाया है. स्वीकार्यता का भी मसला है. एक शिक्षक को सिर्फ स्कूल आकर पढाना और घर जाने से ज्यादा कुछ करना होता है. यह डायरी किसी सफलता की कहानी नहीं बल्कि शिक्षक के सफर की दास्ताँ हैं.

कार्यक्रम बीत चुका था, सूरज ढल रहा था ठीक आँखों के सामने और नदी की पुकार बढती ही जा रही थी.

चिन्यालीसौड- यहाँ भी पहली बार आई हूँ. रेखा आज खुद अपनी गाडी ड्राइव करके आई हैं. मैं उसकी हिम्मत को देखकर दंग हूँ. संकोच के साथ हिम्मत का मिश्रण गजब का सौन्दर्य लेकर आता है. एक संयुक्त परिवार में रहते हुए सबको साथ लेकर चलना और अपने मन को भी न छोड़ने का संकल्प सामान्य बात तो नहीं. जीवन के हर लम्हे को सुंदर और सार्थक तरह से जीने की जिद रेखा को भीड़ से अलग करती है. मुझे हैरत और सुख इस बात का हुआ कि मुझे यहाँ भी खूब जानने वाले शिक्षक साथी मिले. पहचानी आखों में खुद के लिए स्नेह देखना बताता है पिछली मुलाकातों का असर. यहाँ भी हमने शिक्षकों से शिक्षक डायरी की बाबत कुछ ज़रूरी बातें कीं मसलन क्या हो जाता है लिखने से, क्या लिखना किसी समस्या का हल है, शिक्षक की जिन्दगी में क्या बदलता है डायरी लिखने से, उसकी कक्षाओं में क्या बदलाव आता है. बात एक ही थी कि डायरी लेखन पहले खुद से रिश्ता बनाने में मदद करता है फिर बच्चों से. इससे हमारा और बच्चों का सीखना कुछ हद तक आसान होने लगता है. रेखा ने अपने अनुभवों को यहाँ भी साझा किया. उसने कहा, हम कैसे शिक्षक के तौर पर याद किये जाना चाहते हैं. हमें क्या याद है कि किस शिक्षक ने विज्ञान का कौन सा सूत्र समझाया था, किसने गणित का कोई सवाल समझाया था? नहीं, हमें वही शिक्षक याद रहते हैं जो हमारे मन को छू पाते हैं, जो हमारे टूटते हौसले पर विश्वास का मरहम रखते हैं. जो सर पर हाथ फेरकर कहते हैं कोई बात नहीं, तुमसे हो जाएगा यह काम. शिक्षक को किस तरह अपने जाति धर्म, ऊंच-नीच के पूर्वाग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है, स्कूल संस्था में किस तरह इनका नकारात्मक असर पड सकता है, जो बच्चों के साथ सारी जिन्दगी के लिए पैबस्त हो जाता है इस बारे में सोचने की जरूरत है.

चिन्यालीसौड में एक और युवा शिक्षक सुंदर नौटियाल ने अपनी और अपने बच्चों की स्व प्रकाशित डायरी की बाबत जब हमें बताया तो सुखद हैरानी की बात तो थी ही. विज्ञान के शिक्षक सुंदर ने विज्ञान को कैसे खेल बनाकर सिखाना शुरू किया है क्लास में वो अनुभव भी दिलचस्प थे. यह जानना और भी सुखद आश्चर्य से भर रहा था कि इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए वो छुट्टी लेकर आये थे. ऐसी भी लगन होती है शिक्षकों में.

तीनों अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग लोगों से लगभग एक सी बात करते हुए भी हम हर बार अलग थे. इस बात में शिक्षकों के संकोच, उनके सवाल, कुछ अन्य साथी शिक्षकों के डायरी के पन्ने, कुछ बच्चों की डायरी के पन्ने और बहुत सारे साथियों के प्यार के साथ थी रेखा की डायरी. इस डायरी के बहाने हुए संवाद सार्थक संवाद रहे और इस संवाद में सभी शिक्षक साथी हर लगभग हर जगह अपनी इच्छा से शामिल हुए. क्या यह सचमुच उत्साह की बात नहीं कि इतने सारे शिक्षक साथी एक जगह जमा होकर अपनी छुट्टी के समय में से समय चुराकर एक शिक्षक साथी की डायरी के पन्ने पलटते हैं, उनसे बात करते हैं और खुद भी ऐसा ही कुछ करने की इच्छा से भर उठते हैं.

शिक्षा जगत में रेखा चमोली की इस डायरी का प्रकाशित होकर आना एक बेहद सकारात्मक घटना है. 

2 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31.05.17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2987 में दिया जाएगा

धन्यवाद

सुशील कुमार जोशी said...

एक छोटे से वार्तालाप में जैसे बहुत कुछ समेटे हुआ एक लेख। सुन्दर।