बीत गयी शामों से चुरा ली थी
खाली हुए चाय के कप की खनक
उतरती शाम की उदासी
और तुम्हारे बटुए से गिरा वो एक सिक्का
तुम्हारी मेहनत की कमाई का वो सिक्का
मेरे प्रेम की कमाई उस शाम में जड़ गया है
वो शाम अब भी महक रही है
खाली हो चुके उन चाय के कपों में
तुम्हारी चुस्कियां अब भी बाकी हैं
बीत चुकी वो शाम हर रोज बीतती है
आहिस्ता आहिस्ता
मैं उसके खर्च होने से डरती हूँ
4 comments:
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (28-05-2018) को "मोह सभी का भंग" (चर्चा अंक-2984) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
सुंदर
प्रेम बढ़ता है हर रोज
जितना खर्च होता है
हर नया दिन
प्रेम को अमरता देता है,
शाम खर्च होती है
पर प्रेम संचय होता है।
बेहतरीन लिखती हैं आप।
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