Saturday, January 20, 2018

पहाड़ तू तो मेरा दगढ़िया ठैरा


- चन्द्रकला भंडारी

हाँला पहाड़,तू कैसे सोच सकता है कि तेरी याद नहीं आती. तूने ही तो दी थी मुझे कठोर जीवन की आपाधापियों के लाधने की शिक्षा. मैं कैसे बिसर सकती हूँ असौज(सितम्बर और अक्टूबर का महीना जिसमें पहाड़ में खूब काम होता है एक तरफ घास काटना,खेतों में अगली फसल की तैयारी करना,जाड़ों के लिए कच्ची और सुखी लकड़ियों का इंतजाम करना इन महीनों में तो पहाड़ की औरत शायद ही कभी दिन का भात खाती होगी) के महीने में नमकीन पसीना पोंछते हुए पीठ पर गाज्यो के पुले ढोते हुए अँधेरे होने से पहले घर पहुचनें की डर और बारिश की तनिक आशंका होने पर गाज्यो को एक जगह सारकर फटाफट लुटे की तैयारी करना. इजा तैयार रहती थी कि लगभग सौ पुलों याने एक लूटा बनाना. 

इजा कभी स्कूल नहीं गयी लेकिन उसका हिसाब किताब एकदम फिट रहता था. कडाके के ठण्ड में मैं और दीदी फटी एडियों को क्रैक क्रीम के बजाय कटोरी में मोम तेल की बत्ती बनाकर चीरों(विवाइयों) को डामना (भरना). सल्ला रुख से निकले छ्युल से सुबह सुबह चूल्हा जलाना और शाम को गोपत्योल व बांज की लकड़ियों से सगढ जलाना. बेशक तू शिकायत कर सकता है कि मैं भूल गई हूँ नहीं मेंरे मुंह में अभी भी भड्डू की दाल,कूण का भात,लोहे की भाद्याली का कापा, चुड़कानी और भांग की चटनी का निराला स्वाद सोचते ही उदेख लगने लगता है. एक बात तो कहना ही भूल गयी हाँ असोज में काम की असंता लगी रहती थी उसके बावजूद शाम की रामलीला में जाने का जोश. रामलीला के 11 दिनों में भी कुछ विशेष दिन सीता का स्वयम्बर,अंगद रावन संवाद,लक्षमण शक्ति,राजतिलक के लिए पिताजी से इजाजत लेने के लिए भूमिका बनाना. और पिताजी भी इस एवज में हमसे ज्यादे काम की अपेक्षा कर काम करवा लेना. मैं और दीदी शाम की ख़ुशी के चलते फट से निपटा देते थे. कोई थकान नहीं. आज मैं खोजने लगती हूँ महीने की संक्रान्ति के दिन चावल पीसकर देलीं में एपण बनाना और त्योहारों में सिंघल और बड़े. क्यों नहीं सीखा इजा से सिंघल बनाना. इजा के हाथ के तो तेरे जैसी जीवटता और मिठास थी. 

पहाड़ तू तो मेरा दगढ़िया ठैरा. अब तेरे को ना बोलूं तो किसे बोलूं घने जंगलों में लकड़ियाँ बीनना उन जंगलों में जंगली जानवरों का हमको देखा अनदेखी करना,टेढ़े-मेड़ें संकरों रास्तों से आसानी से पार कराकर घर में इजा का भद्याली में रखा हुआ चुड़कानी भात खाकर नौले में फोंला लेकर पानी भरने की हुड़क. अच्छा तुझे लग रहा रहा होगा ना ये तो गप लगा रही होगी. सच्ची बताऊँ आज भी मैं भिटोली का इन्तजार करती हूँ. घुघुतिया,उतरैणी को उसी तरह मनाती हूँ जैसा तेरे साथ मनाया करती थी बस एक अंतर आया आज मैं उसी रौ में काले कव्वा काले कव्वा नहीं कह पाती हूँ अडोस पड़ोस के साथ कॉम्पटीशन नहीं कर पाती हूँ. बच्चों को बताती हूँ तेरे साथ तो जब तक कौआ आकर हरे पत्ते में से कुछ उठा न ले तब तक पुकारते रहा करती थी. न जाने तूने कितनी परेशानियों को धैर्य से लड़ना सिखाया. कैसे भूल सकती हूँ तेरी जीवटता को. मेरे दगडी यार पहले प्यार की तरह तेरी आत्मीयता को भला मैं कैसे भूल सकती हूँ.

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

वाह जैसे लिखे हुऐ में से पहाड़ की भीनी भीनी खुश्बू आ रही हो

विकल said...

स्थानीय समाज के भूगोल, इतिहास, संस्कृति और समग्र सामाजिकता के कुछ आयाम उजागर करता मार्मिक संस्मरण . सुन्दर .