Tuesday, August 29, 2017

उठो न शहर गोरखपुर


सुनो गोरखपुर,

कब तक उठाते रहोगे अपने कन्धों पर
मासूमों की लाशें
कब तक अव्यवस्थाओं को
अपना चेहरा बना रहने दोगे

कब तक 'गोरख्पुरिये' शब्द को
अजीब तरह से इस्तेमाल होते देखते रहोगे
और कब तक कुछ भी हो जाने पर भी
चैन से करवट लेकर सोते रहोगे
कब तक मासूमों की मौतों को
आंकड़ों में तब्दील होते देखते रहोगे

बोलो शहर,
क्या तुम्हारे सीने में कोई दर्द की लहर नहीं उठती
कोई ज्वालामुखी नहीं फूटता
क्या सचमुच तुम्हारा जी नहीं करता कि
मासूमों की सांसों को तोड़ देने वाली सरकारों की
धज्जियाँ उड़ा दी जाएँ

बोलो शहर
अगस्त को बच्चों की मौत का महीना कहकर
पल्ला झाड़ने वालों से तुम्हें कोई शिकायत नहीं

सुनो फ़िराक गोरखपुरी के शहर के वाशिंदों
जरा अपनी आत्मा में अकुलाहट भरो
जरा निवाला तोड़ने से पहले
उन मासूमों के चेहरे याद करो जो
बरसों से वक़्त से पहले विदा होते जा रहे हैं
जरा चैन से अपने घरों में चादर ओढकर सोने से पहले
उन माओं की आँखों को याद कर लो
जो बरसों से सोयी नहीं हैं

उठो न शहर गोरखपुर
कि तुम्हारी चुप्पी अब असहनीय है....


(यह कोई कविता न समझी जाय. यह कुछ न कर पाने की कुंठा है और जो हो रहा है उसके प्रति गुस्सा है )

3 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31-08-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2713 में दिया जाएगा
धन्यवाद

Unknown said...

बहुतही सशक्त रचना।

pushpendra dwivedi said...

waah bahut khoob behtareen rachna



http://www.pushpendradwivedi.com/%E0%A5%9E%E0%A4%BF%E0%A5%9B%E0%A4%BE%E0%A4%93%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%9C%E0%A5%8B-%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%AA/