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दोस्तो,
कई बार यूँ लगता है कि ये जो अदबी ख़ुतूत हम पढ़ रहे हैं अगर ये दुनिया के मशहूर लोगों के ख़त न होते तो इससे क्या फर्क पड़ता। इन्हें पढ़ते हुए क्या यूँ नहीं लगता कि ओह ऐसा ही तो मेरे मन में भी चल रहा था। कई दोस्त पूछते हैं कि आपके ख़तों की पोटली में क्या किसी आम आदमी को भी जगह मिलेगी कभी? तो दोस्तों, मेरे लिए ये ख़त नाम नहीं हैं, भावनाएं हैं। इन्हें चुनते वक़्त लिखने वाले के कद पर बाद में ध्यान जाता है, ख़त के मजमून पर पहले। चलिए, फिर भी शिकायत दूर करते ही हैं आपकी। इस बार जो ख़त है वो १९७६ में किसी प्रेमी ने अपनी प्रिया को लिखा था। उसने अपना नाम छुपा लिया, और प्रेमिका का भी। ख़त उजागर कर दिया। ये ख़त काफी पहले ‘कथादेश’ पत्रिका के प्रेम विशेषांक में प्रकाशित हुए थे जिसका संपादन कथाकार देवेन्द्र ने किया था। (कब यह अंक आया था यह याद नहीं, किसी को याद हो तो बता सकते हैं ) उसी पत्रिका से ये ख़त चुराकर रख लिया था आज आपसे साझा कर रही हूँ। मेरी भूमिका इन ख़तों को आप तक पहुँचाने वाले डाकिये से ज्यादा नहीं है...-------------------
कई बार यूँ लगता है कि ये जो अदबी ख़ुतूत हम पढ़ रहे हैं अगर ये दुनिया के मशहूर लोगों के ख़त न होते तो इससे क्या फर्क पड़ता। इन्हें पढ़ते हुए क्या यूँ नहीं लगता कि ओह ऐसा ही तो मेरे मन में भी चल रहा था। कई दोस्त पूछते हैं कि आपके ख़तों की पोटली में क्या किसी आम आदमी को भी जगह मिलेगी कभी? तो दोस्तों, मेरे लिए ये ख़त नाम नहीं हैं, भावनाएं हैं। इन्हें चुनते वक़्त लिखने वाले के कद पर बाद में ध्यान जाता है, ख़त के मजमून पर पहले। चलिए, फिर भी शिकायत दूर करते ही हैं आपकी। इस बार जो ख़त है वो १९७६ में किसी प्रेमी ने अपनी प्रिया को लिखा था। उसने अपना नाम छुपा लिया, और प्रेमिका का भी। ख़त उजागर कर दिया। ये ख़त काफी पहले ‘कथादेश’ पत्रिका के प्रेम विशेषांक में प्रकाशित हुए थे जिसका संपादन कथाकार देवेन्द्र ने किया था। (कब यह अंक आया था यह याद नहीं, किसी को याद हो तो बता सकते हैं ) उसी पत्रिका से ये ख़त चुराकर रख लिया था आज आपसे साझा कर रही हूँ। मेरी भूमिका इन ख़तों को आप तक पहुँचाने वाले डाकिये से ज्यादा नहीं है...-------------------
22.8.76
प्रिय ....
ऐसा पहली दफ़ा हो रहा है कि मैं अपने शहर को छोड़कर किसी और तथा अजनबी शहर को छोड़कर किसी और अजनबी शहर की बारिश में हूँ। वहाँ की बारिशें इतनी अधिक प्यारी और पुरख़ुलूस हो रही हैं कि मेरे ज़ेहन में उसका अक्स ताज़िन्दगी बना रहेगा। वहाँ की बारिश में भीगना, छोटी सी पहाड़ी का बादलों से घिर जाना, रात में बारिश की बौछारों की धुंधलाती बत्तियों का जो नूर होता है, वह सब मेरे साथ चलता रहता है। यहाँ भी।
आज भी पहले की तरह चाहा यही था कि हल्की-फुल्की बारिश में नहाते और हवा की जाने किन-किन बातों पर सिर हिलाते दरख़्तों की कतारों के बीच से गुज़रती गीली सड़क पर पीली बत्तियों की रोशनियों के रिफलेक्शंस देखूंगा और इसी बहाने अपने भीतर के छूटे शहर को जी लिया जायेगा। यह एक छोटा सा मगर बहुत अजीज़ सा सुख था, जिसे अंधेरे में अकेले चलते हुए चुपचाप जीना चाहता और यकीनन उसे मैंने जिया भी। लेकिन आखिरकार उस सुख ने अपनी कीमत मांग ही ली। दरअसल, रात को दफ्तर से अपने कमरे तक पहुंचने के लिए मैंने कार नहीं ली। पैदल चलना चुना। मगर, थोड़ी देर में मैंने पाया कि एक शदीद बारिश के बीच में हूं। ग़ालिबन बारिश ने मुझे इतना अकेला देखकर घेरने की ठान ली हो। घर (?) तक के रास्ते के बीच मैं नहा-नहा गया। कमरे में देह सुखाने के लिए पंखा चलाया और देर रात तक खिड़की से पलंग सटाकर बारिश को आसमान से घटते एक जादू की तरह देखता रहा। बारिश को देखना और सुनना दोनों ही मेरे लिए एक चमत्कार था। इसी की वजह है कि आज दिन भर से धीमी-धीमी आंच में तप रही है अपनी देह। जैसे जूड़ी ताप में भीतर ही भीतर से सुलगता जान पड़ता है शरीर।
इस समय पूरे शरीर को चारों तरफ से लपेटकर लेटे-लेटे, तुम्हें यह ख़त लिख रहा हूँ। ख़त लिखते हुए काफ़्का की याद हो आयी। वह जीवन भर हल्के-हल्के बुख़ार में तपता रहा था। अपनी ही देह की धीमी आंच में तपते हुए उसने लिखे थे अपनी मिलेना को ख़त। तुम ही सोचो, काफ़्का को कहाँ पता होगा कि उसके द्वारा बुख़ार में लिखे गये ख़तों से एक दिन समूचा वर्ल्ड लिट्रेचर उसी तरह धीमी-धीमी आंच में तप उठेगा। दरअसल, आज सारे विश्व साहित्य को काफ़्का का बुख़ार चढ़ चुका है। मार्क्सवादी लेखक चाहे इसे न मानें लेकिन काफ़्का ने जो अपने अकेलेपन की आंच से अभिशप्त रहकर लिखा, वह कालातीत है। वह इतना डूबकर लिखता था कि उसे पढ़ते हुए अपनी आत्मा भी तपने लगती है। मुझे ऐसी ठिठुरन से भरी बारिश की रात में उसे पढऩा, उसे छूने की तरह जान पड़ता है। जब वह ख़त लिखता था तो शायद उसे इस बात का यकीन रहता होगा कि वह उसकी मित्र मिलेना को मिले या न भी मिले। मुझे तो लगता है उसका नाम ही उसके न मिलने का संकेत था। वह हिन्दी जानता होता तो अपनी मिलेना के नाम का अर्थ निकाल लेता। अर्थात जो मिले-ना वही मिलेना। मैं तुम्हें उसी मिलेना के बरअक्स रखकर अकसर सोचता हूँ। तुम्हारा नाम आगे से ....के बजाय मिलेना ही लिखा करूंगा। कभी-कभी इच्छा होती है कि तुम्हें काफ़्का की सारी किताबें भेंट कर दूँ। तुम्हारे जन्मदिन पर ताकि तुम जान पाओ कि आत्मा के भीतर भी बुख़ार होता है, उसे नापने के लिए अभी कोई थर्मामीटर नहीं बना है। शायद मिलेना ही उस थर्मामीटर की तरह थी, जिसमें वह अपना बुख़ार देखा करता था।
मुझे अक्सर ही एक सवाल कौंध-कौंध कर कोंचता रहता है कि वस्तुत: काफ़्का मिलेना को क्या देना चाहता था? अपना प्यार या कि अपना बुख़ार? वह देना चाहता था या कुछ लेना चाहता था? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे जो बुख़ार था वह मिलेना का ही बुख़ार था?और क्या मैं तुम्हें मिलेना के बरअक्स रखकर अपना बुख़ार देने की हिमाकत तो नहीं कर डालूंगा? और यह देह इसी तरह धीमी-धीमी आंच को लपट में लिपटी देह के चारों ओर खामोश खड़े लोग देखते रहेंगे कि कैसे सब कुछ किस तरह राख बनता है। घेरकर खड़ी भीड़ को पता भी नहीं चलेगा कि कौन सी वह चिंगारी थी, जिसने किसी लम्हे में लपट का रूप ले लिया। मैं जब यहां के घने जंगलों से गुजरता हूं तो लगता है, ये सारे हरे-भरे पेड़ एक दावानल के बीच हैं। वह दावानल मेरे भीतर है- मैं वाकई उस जंगल को स्वाहा कर देना चाहता हूं, जो मेरे भीतर है और भटका रहा है। वह हरा नहीं, सूखा जंगल है। एक चिंगारी मेरे भीतर है जो कभी भी लपट बन सकती है। पर यह भी तय है कि तब जंगल ही नहीं मैं भी स्वाहा हो जाऊंगा। हो सकता है कभी वह हरा हो उठे लेकिन बारिश बाहर होती रहती है। वह शहर को भिगोती है, मकान को भी भिगोती है, देह को भी लेकिन आत्मा को नहीं। वह उसी तरह धीमी-धीमी आंच में तपती रहती है। शायद लेखक बनने और बने रहने के लिए यह जरूरी भी है। जरूरी है कि वह अपनी आत्मा में इसी तरह झुलसता रहे। जले नहीं, सिर्फ झुलसता रहे।
मैं चाहता हूं कि तुम जान सको झुलसना क्या होता है। और उसके बगैर लेखक होना संभव हो सकता है?...मरते हुए भी मरने से बचे रहना लेखक बनना है क्योंकि मर जाना तो मुक्त हो जाना है लेखक सिर्फ मरने की यातना के भीतर जाने को बाध्य है। वह निरंतर एक दावानल में और दावानल के साथ है। काफ़्का इसका सबसे बढिय़ा उदाहरण है। काफ़्का का मृत्युबोध मिलेना का भय था। लेकिन वह काफ़्का की ताकत। यह कैसी विचित्र बात थी कि कि प्यार करने वालों के बीच मृत्यु और उसका बोध एक सूत्र बनाये हुए था। मुझे हमेशा लगता है कि एक दिन तुम मेरे मृत्युबोध से डर जाओगी और पीछे रह जाओगी और मैं मृत्यु से भिड़ता हुआ, मृत्यु से आ जाऊँगा। हम दोनों के बीच फिर भी एक अनाम से सेतु बना रहेगा। मैं तुम्हें ढूंढता रहूंगा। जो मिलेना वही होगी तुम। एक अलभ्य और एक अप्राप्य। पता नहीं क्यों ऐसा होता है कि ज्यों ही रात होती है-मैं मृत्यु पर बहुत बेकली से सोचने लगता हूँ। क्या ऐसा तो नहीं कि सचमुच ही मृत्यु कहीं मेरी प्रतीक्षा नहीं कर रही हो. या ऐसा भी हो कि मैं मृत्यु के साथ ही रह रहा होऊं इस कमरे में। मैं उसे धक्का देकर बाहर नहीं कर सकता, इस कमरे से. मृत्यु को धक्का देकर बाहर कर दूं तो निश्चय ही वह मेरी तरह भीगेगी और बाद इसके, मेरी ही तरह एक धीमी आंच में तपने लगेगी।
पश्चिम के लिए मृत्यु एक ठंडापन है। एक बर्फ सी ठंडी चीज, जिसमें सब कुछ जम जाता है। मगर भारतीयों के लिए मृत्यु को धक्का देकर बाहर कर दूँ तो निश्चय ही वह भी मेरी ही तरह एक धीमी आंच में तपने लगेगी। पश्चिम के लिए मृत्यु एक ठंडापन है। एक बर्फ सी ठंडी चीज, जिसमें सब कुछ जम जाता है। मगर, भारतीयों के लिए मृत्यु एक आग है। स्वाहा हो जाना है। हां, उस भीतर के सूखे जंगल को भी, जो मेरे भीतर है। हरा हो जाने की प्रतीक्षा में और हरियाली का अर्थ है, मिलेना। हरियाली का अर्थ वाकई मिलेना है? क्या वह हमेशा मिलेना ही रहती है? काफ़्का की मिलेना की तरह। मेरे ख्याल से बाहर की बारिश, भीतर होने लगे तो हरियाली आ सकती है। पर बारिश है कि हो तो रही है और सिर्फ बाहर भर हो रही है....
तुम्हारा
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प्रस्तुति: प्रतिभा
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