जिंदगी अपनी रफ़्तार से चलते-चलते दो कदम पीछे को लौटती है. मुस्कुराती है, निगाह भर देखती है खुला आसमान। उसमे बनने-बिगड़ने वाली आकृतियां। धान के खेतों के बीच से गुजरते हुए उसकी खुशबू को साँसों में जज्ब करते हुए बचपन का जाने कौन सा टुकड़ा स्मृतियों से बाहर आकर खड़ा हो जाता है.
वही छोटी फ्रॉक वाली कोई लड़की, कटोरा भर धान के बदले आइसक्रीम देने वाले भैया की साइकल के पीछे भागती। बच्चों के रेले में अपना छोटा सा गिलास हाथ में लिए भैंस के पास पहुँचने की होड़ में, कि झाग वाला दूध जो भैंस के थन से सीधे गिलास में गिरता है लेने की हड़बड़ी, दूध से मूंछें बनाकर मुस्कुराना। तेज़ गर्मियों से बचने के लिए दादी का पल्लू थामे मिटटी वाले घरों में दोपहर बिताना, दादी के सोते ही चुपके से निकल भागना। चारा काटने वाले मशीन में पूरा लटक जाने के बाद भी उसे हिला तक न पाने की चिड़चिड़ाहट, अमिया चुराने, खेतों से बाकी बच्चों के साथ 'सीला' (खेतों में गिरे अनाज के दाने) बीनना, सर पर अनाज के गठ्ठर को रखकर चलने की ज़िद और फिर एक छोटा सा गठ्ठर रख दिए जाने की ख़ुशी। रस्ते भर गर्दन का लचर पचर हिलना और बाकी लड़कियों का मजाक उड़ाना।
चाची, बुआ जिज्जी के साथ कुँए से पानी लेने जाना। रस्सी डालना और डाँटा जाना कि 'गिर जइहो बिट्टा, नगीचे मत जाओ' कलशी के पानी में गड़प से गिरने की आवाज सुनने को वही कुँए की जगत पे बैठ जाना। घूंघट की आड़ से झांकती मुस्कुराहटों को खिलखिलाहटों में बदलते देखना, ठीक उसी वक़्त सूरज का डूबने के बहाने छू लेना उन तमाम खिलखिलाहटों के रेवड़ को, सुरमई आँखों को. फिर वो एक साथ कई कलशे लेकर लौटता झुण्ड और मेरी जिद पर धर दी जानी छोटी सी कलशी सर पर बहुत कम पानी वाली। चूल्हे पर रोटी बनाना सीखने की ज़िद और हाथ जला लेना, त्योहारों पर जानवरों की पीठ पर रंग के गोले बनाकर सजाना उन्हें, नई घंटी पहनाना। खूब सारा लुका छुपी और कभी छुपे ही रह जाना और बाकी बच्चो का खेल ख़त्म करके घर चले जाना।
बस दो कदम पीछे लौटने पर स्मृतियों की कितनी नाज़ुक परतें खुलती हैं, कि तभी कोई आवाज देता है चाय तैयार है.… मुस्कुराती आँखों से बादलों में छुपे उस सूरज की बदमाशी पर मुस्कुराती हूँ जो मुझ जैसी आलसी को भी सुबह जल्दी उठाकर बुलाता तो है लेकिन बादलों में छुप जाता है.
चाय वाकई अच्छी है, मैं दोस्त से कहती हूँ... ये दिन की अच्छी शुरुआत है.…
(ऊधमसिंह नगर, डायरी )
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उम्दा
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