एक अरसा हुए शाम की चाय अपनी तन्हाई के साथ पीने की आदत सी हो चली है। इसमें एक किस्म का सुख है। चाय की हर सिप के साथ घूंटना जिंदगी की तमाम तल्खियों को और होठों के आसपास महसूसना उस कड़वाहट में लिपटी थोडी सी मिठास को भी। चाय पीने का असल सुख इस तरह अपने साथ चाय पीने के दौरान ही महसूस हुआ। जिंदगी जीने का सुख भी।
चाय के साथ किसी भी तरह की भरावन चाय के सुख के साथ साझेदारी लगती है...और अक्सर नागवार भी। मैं इसे किसी के साथ बांटना नहीं चाहती। न नमकीन, बिस्किट या पकौड़ों के साथ न किसी व्यक्ति के साथ। अतीत की किसी याद के साथ भी नहीं... चाय के दो कप... किसी नई कहानी की शुरुआत से मालूम होते हैं...कहानी जिसका न आपको आदि पता है, न अंत...
ये तन्हाई मेरी पूंजी है...चाय उस पूंजी से उपजा सुख...हर घूंट के साथ जिंदगी को घूंटने सरीखा...जिंदगी आहिस्ता-आहिस्ता गुजर रही है...पूरी तरह महसूस होते हुए...हर पल...बिल्कुल चाय के हर घूंट की तरह।
सामने लीची के पेड़ पर फिर से खूब बौर आई है...पंछियों का खेल आसमान में चल रहा है बच्चों का नीचे..चाय की प्याली मुझे देखकर मुस्कुराती है और उसे देखकर मैं...
कोई पूछता है क्या कर रही हो इन दिनों, तो बस एक ही जवाब आता है लबों पर कि जी रही हूं इन दिनों...चाय का सुख जीना भी जीना है बच्चू, तुमने जिया है कभी इसे...?
1 comment:
बहुत शानदार रचना।
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