Thursday, January 22, 2015

घर उगने का इंतजार



रोज सुबह
उगता है एक घर
सूरज के साथ,
कभी टहनियों पर
जा टिकता है,
कभी रास्तों पर साथ चलता है
कभी किसी मोड़ पर
छूट ही जाता है बस.

कभी किसी आंख में
बस जाता है
तो कभी किसी आवाज में ही
बना लेता है ठिकाना
कभी तो श्मशान के
किनारे धूनी सी रमा लेता है
घर, जहां मिलता है
वजूद को विस्तार ,
जहां हर सपने को
मिलता है निखार
जहां दु:ख की वीणा को
सुख के राग से
झंकृत किया जाता है
जहां पहुंचकर
जिस्म को अलगनी पर
टांगकर
रूह को कैसे भी विचरने को
आजाद छोड़ दिया जाता है,
ईंट, पत्थरों से घिरी दीवारों में
लौटकर रोज
आवाजों के वीतराग
में डुबो देती हूं खामोशियां
और अगली सुबह
सूरज के साथ
घर के उगने का
इंत$जार होता है.

5 comments:

vijay kumar sappatti said...

जीवन एक बहुत से विचारों से जुदा हुआ सपना ही तो है जी . बहुत सुन्दर कविता .
मेरे ब्लोग्स पर आपका स्वागत है .
धन्यवाद.
विजय

मन के - मनके said...

हर घर के अनेक वजूद होते हैम जैसे इंसानों के.

रश्मि शर्मा said...

जिस्म को अलगनी पर
टांगकर
रूह को कैसे भी विचरने को
आजाद छोड़ दिया जाता है....बहुत सुंदर

Rs Diwraya said...

अति सुन्दर
http://tinyurl.com/q8oqmm6
सौजन्य-@[699991806774491:]

Rahul Paliwal said...

और अगली सुबह
सूरज के साथ
घर के उगने का
इंत$जार होता है.

Waaah!