बहुत...बहुत...बहुत दिन हुए थे...दुनिया की हर चीज अपने ठिकाने पर धरे-धरे उकताने लगी थी। आसमान टंगे-टंगे, धरती घूमते-घूमते, बात बनते-बनते, रात ढलते-ढलते, सूरज उगते-उगते. शाखों पर फूल भी अनमने से खिलते और बिखर जाते। लयबद्ध....क्रमबद्ध...कितना उबाऊ होता है इस तरह चलते जाना...
ये जिंदगी का कौन सा रंग हुआ भला...रंग का रंग में ठहर जाना, जिंदगी का सांस में ठहर जाना...उफफ...ऐसी ही किसी उब भरी दोपहरों में एक रोज जिंदगी ने अंगड़ाई ली और मुस्कुराकर कहा, हरा...अब हरा नहीं रहेगा...सारे रंगों ने चैंककर हरे को देखा, वहां हरा नहीं था...खुशबूू थी कोई...दूर तक फैले हरे-हरे खेत और महकती हुई गेहूं की बालियों की खुशबू...वो खुशबू गुलाबी रंग की थी। धरती धानी चुनर ओढ़े इठला रही थी। पलाश ऐसे खिलखिलाकर हंसते हुए मिलते रास्तों में कि मानो हंसी का दौरा पड़ा हो...आम की बौर की महक ने धरती को दीवाना बना रखा है। उफफ ये महकते दिन...ये रंगों के ज्वार के दिन हैं। कुदरत के सारे रंग खुशबुओं में ढल चुके हैं। शाखों पर महकते हैं गुलाबी रंग के नाजुक से दिन और आसमान ने टपकती हैं दूधिया चांदनी...जब फागुन रंग चढ़ता है न तो कुदरत ऐसे ही बौरा जाती है...हरे रंग के खेतों पर आसमानी चुनर फैल जाती है।हथेलियों में समाने को व्याकुल होते हैं जिंदगी के सारे रंग कि बस हरा हरा नहीं रहता...वो कभी गुलाबी, कभी लाल, कभी पीला होने लगता है।
कभी कहा था उसने कि जब रंग अपने घर बदलने लगें तो समझो जिंदगी अब संास नहीं रही वो आस होने को है। रंग जब नाम बदलने लगें तो समझो कि मुश्किलों की विदा का मौसम है, रंग जब शक्ल बदलने लगें तो समझो कि मोहब्बतों का मौसम है...मौसम गुजरने वाला नहीं, ठहरने वाला। जिंदगी की कूची में ढेर सारे रंग थे। उम्र की दीवार पर जिंदगी के रंगों की कलाकारी देखते ही बनती थी। कि लाल को हाथ लगाओ तो हरा हाथ में लग जाता था, नीले की चाह करो तो गुलाबी आकर ठहर जाता था हथेलियों पर...कि रंग सारे थे पर अपने रंग से बाहर...अपने नाम से, अपने रूप से बाहर, अपने होने से बाहर।
किसी रोज एक नन्हे से बच्चे ने कुदरत की कारीगरी वाली गीले रंगों की तस्वीर पर अपनी शरारत उड़ेल दी। उसने उन गीलों रंगों पर अपना हाथ फिरा दिया। रंग सारे एक हो चले। ढूंढों नीला तो मिलता लाल, तलाशो पीला तो उंगलियों में धानी चिपका मिलता। सिर्फ रंग नहीं, आक्रतियां भी उलझ गयीं आपस में। ढूंढो नीले रंग का आसमान तो नज़र आता लाल रंग का समंदर...जिंदगी मुस्कुरा रही थी नन्हे की उस दिलफरेब शरारत पर। कि जहां कुदरत की सीमाएं भी टूटने को, बिखरने को आतुर हों वहीं जिंदगी के रंग उगते हैं। ये वही मौसम है...जिंदगी के रंग बिखरने का, इंद्रधनुष कितना ही रूठ ले अब रंग उसकी झोली में वापस आने वाले नहीं। कि रंगों को पंख लग चुके हैं। वो उम्मीदों की झांझर बांधे गेंहूं के धान के खेतों में नाचते फिरते हैं...खाली पड़ी शाखों पर उम्मीदों के रंग बिखरने को हैं, कहीं कोपलों ने अपनी आमद दर्ज करा भी दी है और कहीं उन शाखों पर मुस्कुरा रहा है इंतजार।
रेत को मुट्ठियों में भरकर देर तक रोकने की चाहत में उसे जर्रर्रर्र से गिरते देखा है क्या? जिंदगी वैसी ही है...वो जर्रर्रर्र से गिरना है जिंदगी का सबसे पक्का रंग जो कहता है स्थायी कुछ भी नहीं...जो है उसे जी भर के जी लेना ही है जिंदगी का सुर्ख रंग...उसके ठीक पास ही कहीं रहता है उम्मीदों वाला गुलाबी रंग और उम्मीदों वाले गुलाबी रंग का पक्का दोस्त है जिंदगी के प्रति सकारात्मक रुख बनाये रखने वाला काला मजबूत रंग...न...काले को निराशा के रंग के रूप में देखना बंद भी कीजिये...काला अब द्रढ़ इच्छाशक्ति का प्रतीक बन चुका है।
सच में ये रंगों के घर बदलने का मौसम है...उसने अपने घर के दरवाजे पर लिखा और चुपचाप भीतर जाकर सो गई। सुबह दरवाजे पर अनगिनत रंगों वाली रंगोली सजी थी...दोस्त ने पूछा ये रंगों के घर बदलने का क्या अर्थ है...वो मुस्कुराई...उसने धीरे से कहा ये सांसों के जिंदगी बन जाने वाली बात है...रंगों के घर बदलने का अर्थ है सांसों का जिंदगी बन जाना...कुदरत ने मुस्कुराकर उसके कहे का सजदा किया...! अमराइयों की खुशबू फिजाओं में बिखर रही थी....
1 comment:
कभी तो प्रकृति का बदलना हमें भाता है, और कभी दुख दे जाता है।
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