'सच्ची ट्रेजडी बाहरी परिस्थितियों और घटनाओं के कारण घटित नहीं होती, वह घटित होती है क्योंकि वह व्यक्ति जिसके साथ ट्रेजडी घटित होती है, वैसा है जैसा कि वह है. ट्रेजिक हीरो अपनी ट्रेजडी अपने साथ लाता है जो वह है उस कारण वह अभिशप्त होता है ' - सिडनी कासलमैन
इन दिनों रंगमंच पर कुछ किताबें पलट रही हूं. जानने को जितना भी विस्तार मिले कम ही लगता है. पिछले दिनों रंगमंच के एक साथी ने कहा,' दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो एक्टिंग न करता हो'. यह कहकर उसने मेरी उस बात को धडाम से गिरा दिया कि 'मुझे एक्टिंग करनी नहीं आती' . लेकिन मुझे तो सचमुच एक्टिंग करनी नहीं आती. अगर आती होती तो जीवन आसान न हो जाता. यह बात मैं खुद से कहती हूँ. नाटक में इसे 'स्वगत' कहते हैं.
जिंदगी ढेर सारे मास्क लिये खड़ी रही लेकिन मुझे अपने चेहरे पर लगाने लायक कोई मास्क नहीं मिला. जब भी कोशिश की कि कोई मास्क लगाकर जिंदगी को आसान बनाया जाए, इतनी घुटन हुई कि बिना मास्क के जिंदगी के जोखिम उठाना ही बेहतर आॅप्शन लगा..
रंगमंच से जुड़ाव सिर्फ नाटक देखने तक का रहा हो ऐसा भी नहीं. नाटकों को पढ़ने, रंगमंच से जुड़े दोस्तों से जुड़ने और कुछ नाटक लिखने से भी जुड़ाव रहा. नाटकों की समीछायें लिखने से भी. सोचती हूं तो खुद को काफी करीब पाती हूं रंगमंच के. लेकिन अजीब सा डर है जो रंगमंच से सीधे जुड़ने के बीच आता रहा. शायद वो मास्क लगाने का डर था, या लोगों के हुजूम का. भीड़ मुझे कभी अच्छी नहीं लगती. डर लगता है. मुझे याद है मेरी दोस्त ज्योति जब इप्टा में थी और मैं उसके नाटक देखने जाया करती थी, मंच पर वो होती थी और रोएं मेरे खड़े होते थे. वो कभी गल्तियां नहीं करती थी और मैं हमेशा नर्वस रहती थी. मेरी बेटी जब पहली बार मंच पर थी तो मैं कांप रही थी. मेरे आंसू बह रहे थे. हालांकि अपने दोस्तों को नाटक की भूमिकाओं में खुद को खोते हुए देखती हूं तो बहुत अच्छा लगता है. कुछ देर को वो अपना 'मैं' उतारकर रख देते हैं. एक किरदार को पहन लेते हैं. उसका सुख, उसका दुख, उसका जीवन, उसकी भाव-भंगिमाएं, उसका मौन, उसके शब्द. कम से कम उतनी देर उनका 'मैं' राहत में होता है. वो दूर बैठकर हमारे भीतर बसे दूसरे शख्स को देखता है, तालियाँ बजाता है लेकिन बात इतनी आसान भी नहीं, अभिनेता का अस्तित्व किरदार के अस्तित्व में लगातार सांस लेता रहता है.
हम जिन चीजों में कमजोर होते हैं उनके प्रति आसक्ति होती ही है. जाने अनजाने न जाने कितनी बार अभिनय की तरफ खिंचाव हुआ है. नाटकों को देखने का जुनून, रंगमंच से जुड़े लोगों से मिलने की बात और अब सोचती हूं अपनी पहली कहानी (जिसने पहचान दी थी) अभिनय ही थी. सोचा तो कभी नहीं था इस बारे में फिर भी...
न...न....एक्टिंग करनी नहीं. बस सीखनी है. हालांकि बिना सीखे भी मास्क वाले चेहरों में और बिना मास्क के चेहरों में भेद करना खूब आता है मुझे, शायद इसीलिए एकान्त ही मुझे रास आता है भीड़ नहीं...
जिंदगी ढेर सारे मास्क लिये खड़ी रही लेकिन मुझे अपने चेहरे पर लगाने लायक कोई मास्क नहीं मिला. जब भी कोशिश की कि कोई मास्क लगाकर जिंदगी को आसान बनाया जाए, इतनी घुटन हुई कि बिना मास्क के जिंदगी के जोखिम उठाना ही बेहतर आॅप्शन लगा..
रंगमंच से जुड़ाव सिर्फ नाटक देखने तक का रहा हो ऐसा भी नहीं. नाटकों को पढ़ने, रंगमंच से जुड़े दोस्तों से जुड़ने और कुछ नाटक लिखने से भी जुड़ाव रहा. नाटकों की समीछायें लिखने से भी. सोचती हूं तो खुद को काफी करीब पाती हूं रंगमंच के. लेकिन अजीब सा डर है जो रंगमंच से सीधे जुड़ने के बीच आता रहा. शायद वो मास्क लगाने का डर था, या लोगों के हुजूम का. भीड़ मुझे कभी अच्छी नहीं लगती. डर लगता है. मुझे याद है मेरी दोस्त ज्योति जब इप्टा में थी और मैं उसके नाटक देखने जाया करती थी, मंच पर वो होती थी और रोएं मेरे खड़े होते थे. वो कभी गल्तियां नहीं करती थी और मैं हमेशा नर्वस रहती थी. मेरी बेटी जब पहली बार मंच पर थी तो मैं कांप रही थी. मेरे आंसू बह रहे थे. हालांकि अपने दोस्तों को नाटक की भूमिकाओं में खुद को खोते हुए देखती हूं तो बहुत अच्छा लगता है. कुछ देर को वो अपना 'मैं' उतारकर रख देते हैं. एक किरदार को पहन लेते हैं. उसका सुख, उसका दुख, उसका जीवन, उसकी भाव-भंगिमाएं, उसका मौन, उसके शब्द. कम से कम उतनी देर उनका 'मैं' राहत में होता है. वो दूर बैठकर हमारे भीतर बसे दूसरे शख्स को देखता है, तालियाँ बजाता है लेकिन बात इतनी आसान भी नहीं, अभिनेता का अस्तित्व किरदार के अस्तित्व में लगातार सांस लेता रहता है.
हम जिन चीजों में कमजोर होते हैं उनके प्रति आसक्ति होती ही है. जाने अनजाने न जाने कितनी बार अभिनय की तरफ खिंचाव हुआ है. नाटकों को देखने का जुनून, रंगमंच से जुड़े लोगों से मिलने की बात और अब सोचती हूं अपनी पहली कहानी (जिसने पहचान दी थी) अभिनय ही थी. सोचा तो कभी नहीं था इस बारे में फिर भी...
न...न....एक्टिंग करनी नहीं. बस सीखनी है. हालांकि बिना सीखे भी मास्क वाले चेहरों में और बिना मास्क के चेहरों में भेद करना खूब आता है मुझे, शायद इसीलिए एकान्त ही मुझे रास आता है भीड़ नहीं...
9 comments:
बहुत ही अच्छी जानकारी मिली आभार |
वहुत सुन्दर प्रस्तुति! शुभ संध्या!
क्या कहने,
ज्ञानवर्धक
आपकी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार ९/१०/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी
स्वयं को किसी चरित्र में ढाल पाना गहन साहित्यिक अभिव्यक्ति है।
'प्रतिभा' का संकोच ...
एक और नई बात कर बहुत अच्छा लग रहा है मौसी |
सही कहा |
"जिंदगी ढेर सारे मास्क लिये खड़ी रही लेकिन मुझे अपने चेहरे पर लगाने लायक कोई मास्क नहीं मिला. जब भी कोशिश की कि कोई मास्क लगाकर जिंदगी को आसान बनाया जाए, इतनी घुटन हुई कि बिना मास्क के जिंदगी के जोखिम उठाना ही बेहतर आॅप्शन लगा..
पर एक सच्चाई यह भी है कि सभी इस तथ्य को जानते है पर स्वीकारने वाले बहुत ही कम है|
सादर नमन |
पुराने दिन याद आये..इप्टा के कुछ दोस्त याद आये.अच्छा लिखा है...बहुत.
प्रतिभा, लिखती तुम हो लेकिन शब्द मेरे होते हैं. पढ़ते हुए हमेशा यही लगता है अरे प्रतिभा को ये कैसे पता चल गया. बस तुम जैसी जादूगरी नहीं है लेखन में, हाँ सोच बिलकुल वही की वही. हमेशा ऐसे ही लिखती रहो, ये दुआ है.
Post a Comment