Thursday, December 15, 2011

तेरे होने से 'होना' जाना



वो बारिशों के गांव में रहती थी. बारिश की बूंदों पर पांव रखते हुए उसने बचपन की दहलीज को लांघा था. वो बारिश की बूंदों को हथेलियों में और आसमान से गिरती ओस को पलकों पर सहेजना सीख गयी थी. अपने दुपट्टे के किनारों में वो सुनहरी धूप के कुछ वक्फे बांधकर रखती थी. उसके इस हुनर से कुदरत भी नावाकिफ थी. वो जंगल के रास्ते होकर बारिश के गांव से पार जाती थी. गांव के उस पार जहां दूसरी दुनिया रहती थी. वो दुनिया जिसमें उसकी चाहतों का सूरज उगता था. वो दुनिया जहां पहुंचकर उसके चंपई गालों पर चमक पैदा हो जाती थी और उसे अपनी मुस्कुराहटों को काबू करने में खासी मशक्कत करनी पड़ती थी.

लड़के की एक झलक पाने के लिए वो रास्तों को अपने सर पर रखकर भागती फिरती थी. अपनी अंजुरियों में बारिश को समेटे वो उसके सामने अचानक जा खड़ी होती. अपने कंधे पर पड़ी बूंदों से भीगकर वो बिना न$जर उठाये मुस्कुरा देता था. उसकी कूची से जितने भी रंग बिखरे होते थे, लड़की की खिलखिलाती आवाज का जादू अपनी अंजुरी में समेटी बारिश से सब बहा देता. फिजाओं में खिलखिलाहटें तैरतीं और कैनवास पर बारिश. रंग पानी से झगड़ा करते लेकिन हार जाते और गहरे लाल रंग की लकीर कैनवास पर बिखर जाती. बाकी के सारे रंग उसके आसपास चुपचाप बैठ जाते. कैनवास के इस खेल से वो दोनों बेखबर थे.

एक-दूसरे की पीठ से पीठ टिकाये वो जाते हुए लम्हों पर अपने दस्तखत करते जाते. दिन के बीतने की आहट लड़की के जाने का संदेशा होती थी. वो दिन को समेटकर चल पड़ती फिर जंगल के रास्ते बारिश के गांव. लड़का उसे हंसकर विदा देता और नया कैनवास उठा लेता. उस रोज उसने देखा कि लड़की की आंखों का काजल वहीं गिर गया है. उसने कैनवास पर उस काजल से काली रात रचनी चाही लेकिन जाने कैसे कैनवास पर दो सूनी आंखें चमकने लगी. लड़का घबरा गया. उसने अपनी आंखें बंद कर लीं. सारी रात वो बरसती बूंदों को अपनी पलकों पर समेटता रहा. सुबह का इंतजार करता रहा. लड़की रोज की तरह अंजुरी में बारिश लेकर आई लेकिन लड़के के तमतमाते चेहरे को देख उसने बारिश को सुभीते से दरवाजे पर रख दिया. दुपट्टे से हाथ पोछे और लड़के के माथे को छुआ. तपता हुआ माथा. लड़की की छुअन से लड़के ने आंख खोली. वो बेहद घबराया हुआ था. उसने लड़की कसकर भींच लिया.
'सुनो, मैं अब तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा. किसी की नहीं सुनूंगा...समझीं तुम. तुम्हारी भी नहीं...'
लड़की हंस दी.
'तो मैं कहां जहां रही हूं तुम्हें छोड़कर.'
'कल तुम्हारी आंखों का काजल यहां गिरा था. मैंने सोचा उससे रात रचता हूं. मुझे यह ख्याल ही नहीं रहा कि इसके बगैर तुम्हारी आंखें कितनी सूनी हो जाएंगी.'
'बस, इतनी सी बात. पगले, मेरी आंखों की चमक तुम्हारे होने से है किसी काजल से नहीं.'
'फिर मुझे डर क्यों लगा?'
'ये डर तुम्हारी कमजोरी है कि तुम मुझे खो दोगे.'
'तुम नहीं डरतीं?'
'नहीं. मैं जानती हूं कि मैं तुम्हें कभी नहीं खोने वाली.'
'क्यों नहीं डरतीं तुम?'
'क्योंकि मैं यह जानती हूं कि यह कायनात मुझसे है, मैं इस कायनात से नहीं. जानते हो मुझमें यह भरोसा कहां से आया?'
'कहां से? ' लड़का उसके दुपट्टे में लिपटा बैठा था.
'मेरे बाबा ने एक बार कहा था कि जो इंसान प्यार में होता है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. जिस दिन मैं तुमसे मिली मेरे सारे डर जाते रहे.' लड़की ने उसकी नाक खींचते हुए कहा.
'तुम्हें ठंड लग रही है ना?'
लड़के ने 'हां' में सर हिलाया.
'जिस दुपट्टे में छुपे बैठे हो उसके कोने में धूप के टुकड़े बंधे हैं. एक टुकड़ा खोल कर पहन लो. एकदम ठीक हो जाओगे.'
'धूप पहन लूं?'
'हां. जैसे मैं बारिश पहनती हूं.'
'तुम मुझे अपनी पनाह में ले लो ना?' लड़के ने अब समर्पण कर दिया.
'चलो ले लिया.' लड़की हंस दी.
दूर कहीं अंगीठी जल रही थी. लड़की उस आग की ओर चल दी.
'कहां जा रही हो?'
'तुम्हारे लिए आग लेने?'
थोड़ी ही देर में वहां आग जलने लगी. लड़के की नाक में कहवे की खुशबू घुलने लगी. उसने कैनवास की ओर विरक्ति से देखा और लड़की की ओर आसक्ति से.
'अब हम साथ-साथ रहेंगे. हमेशा.' लड़के ने घोषणा की. लड़की मुस्कुराई. उसी पल उन दोनों ने उस जलती आग को साक्षी मानकर वक्त के उस लम्हे पर अपने प्यार के हस्ताक्षर किये.

यह बारिश और धूप के बीच का संबंध था. छाया और धूप के बीच का. दिन और रात के बीच का, कहे और अनकहे के बीच का. वक्त के वो सारे लम्हे जिन पर उन दोनों अपने प्यार की मुहर लगायी थी, सदियों के लिए सुरक्षित हो गये. वो लम्हे अब भी वहीं ठहरे हुए हैं. उनकी खुशबू अब भी फिजाओं में तैर रही है. मौसम के हर रंग में उन दोनों का प्यार मुस्कुराता है.
दूर कहीं गांव से कोई औरत लालटेन लिए आ रही थी. ये वही लड़की है जो हर प्यार करने वाले को राह दिखाती है सदियों से.

19 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

उफ्फ, पर बारिश सा बेमिज़ाज जीवन।

आनंद said...

'सुनो, मैं अब तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा. किसी की नहीं सुनूंगा...समझीं तुम. तुम्हारी भी नहीं...'
लड़की हंस दी.
'तो मैं कहां जहां रही हूं तुम्हें छोड़कर.'
'कल तुम्हारी आंखों का काजल यहां गिरा था. मैंने सोचा उससे रात रचता हूं. मुझे यह ख्याल ही नहीं रहा कि इसके बगैर तुम्हारी आंखें कितनी सूनी हो जाएंगी.'
'बस, इतनी सी बात. पगले, मेरी आंखों की चमक तुम्हारे होने से है किसी काजल से नहीं.'
'फिर मुझे डर क्यों लगा?'
'ये डर तुम्हारी कमजोरी है कि तुम मुझे खो दोगे.'
'तुम नहीं डरतीं?'
'नहीं. मैं जानती हूं कि मैं तुम्हें कभी नहीं खोने वाली.'
'क्यों नहीं डरतीं तुम?'
'क्योंकि मैं यह जानती हूं कि यह कायनात मुझसे है, मैं इस कायनात से नहीं.
......
एक एक शब्द जैसे दोहरा दिया है आपने ..हुबहू वही शब्द तो हैं ये ..
क्या कहूँ बस जी लूं जरा इनको फिर से ......इतनी सुबह कोई किसी को रुलाता है भला !

vandana gupta said...

क्या कहूँ इस मोहब्बत पर …………सिर्फ़ वारी जाती हूँ।

***Punam*** said...

यह बारिश और धूप के बीच का संबंध था. छाया और धूप के बीच का. दिन और रात के बीच का, कहे और अनकहे के बीच का. वक्त के वो सारे लम्हे जिन पर उन दोनों अपने प्यार की मुहर लगायी थी, सदियों के लिए सुरक्षित हो गये. वो लम्हे अब भी वहीं ठहरे हुए हैं. उनकी खुशबू अब भी फिजाओं में तैर रही है.

और फिर रह जाता है एक प्यारा सा एहसास ...तमाम उम्र के साथ.....!!

दीपक 'मशाल' said...

laga jaise ki 'Saudagar' ke Pran baba se prem ki kahani sun raha hoon.. :) maza aaya

Rajiv said...

Adbhut!!!!

Rajiv said...

adbhut!!!!

Nidhi said...

सारे एहसासों को अपने में जज़्ब करने की कोशिश में हूँ...बहुत खूबसूरत लिखा है...सारे दृश्य आँखों के आगे घटित हो रहे हों ,जैसे.

बाबुषा said...

*
हाँ, मिली थी वो लालटेन वाली औरत ...राह दिखायी..और गुम हो गयी !
आगे अंधेरी सुरंगें थीं..ऊबड़ खाबड़ रास्ते थे...
छाले उग आये पाँव पर....लेकिन चलना नही छोड़ा ..दोनों ने ..
ठीक किया न ?
ये जो रेत पर बहते हुए लहू से एक पगडण्डी बन गयी है ..क्या उस पर चलेंगी आने वाली नस्लें ?
*
अपन कुछ जमा नही रखते..आंसू जमा कौन करे..
ख़ूब रुलाया ..
जियो बेट्टा !

के सी said...

बहुत बढ़िया.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सटीक और सार्थक।

सागर said...

ek sath itne khunsurat ehsaaso ko ek rachna me piroya hai aapne....

Swapnrang said...

रंग पानी से झगड़ा करते लेकिन हार जाते और गहरे लाल रंग की लकीर कैनवास पर बिखर जाती. बाकी के सारे रंग उसके आसपास चुपचाप बैठ जाते......

अनुपमा पाठक said...

लम्हों पर अपने दस्तख़त करते जाना क्या होता है... यह ऐसी प्रवाहपूर्ण लेखनी ही जानती है...! शुभकामनाएं!

डॉ .अनुराग said...

तेरी शक्ले ....तेरी दास्ताने ...कितनी अलग अलग है प्यार !

सतीश कुमार चौहान said...

दिल में बसने वाली बाते
,

varsha said...

anupamaji ki baat ko mera bhi samarthan

Puja Upadhyay said...

Wow!!!
कितनी कितनी खूबसूरत रचना है...खो गयी इसमें, ये लड़की, ये बारिश, ये धूप...कैनवास...उफ़

Pallavi saxena said...

कई सारे जज़्बातों को एक साथ समेट कर रख दिया है आपने बहुत सुंदर प्रस्तुति आभार ....