- प्रतिभा कटियार
(कल के लिए पत्रिका के दिसंबर अंक में छपी इस कहानी को ब्लॉग पर सहेज रही हूँ बस )
(कल के लिए पत्रिका के दिसंबर अंक में छपी इस कहानी को ब्लॉग पर सहेज रही हूँ बस )
सड़कें किसी मुर्दा देह की तरह ठंडी और अकड़ी हुई पड़ी थीं. उन पर रेंगने वाले लोग और धमाचौकड़ी मचाती गाडियां मानो सीने पर प्रहार करके मुर्दे की सांसें लौटा लाने की कोशिश कर रहे हों. नाकाम कोशिश.
दिसंबर की सर्द रात में शहर की एक ऐसी ही मुर्दा सड़क पर चलते हुए स्वाति ने आनंद को चूम लिया था. अचानक सड़कों की सांसें मानो लौट आई थीं. वे फटी आंखों से उन्हें देख रही थीं. चूंकि यह कार्रवाई महज कुछ सेकेंड्स में संपन्न हो गई थी इसलिए सिवाय उस कचहरी के पास वाले पीपल के पेड़ के, रामआसरे मिठाई वाले के बंद शटर और अभी-अभी अपनी मुर्दगी छोड़ लौटी सड़क के इस घटना की किसी को भनक भी न मिली.
आनंद के भीतर इस घटना का क्या प्रभाव पड़ा कहना जरा मुश्किल है क्योंकि आनंद बाबू खुद को छुपाकर रखने वाले प्राणियों में से हैं. अपनी शख्सियत पर बड़ा सा ताला लटकाकर रखते हैं वो. उनके होठों के आसपास एक मुस्कुराहट को जरूर देखा गया.
दोनों के कदम एक लय में बढ़ रहे थे. स्वाति ने अपने शॉल को मजबूती से कसते हुए कानों को बांधा. ठंड खूब बढ़ गई है नईं?
स्वाति ने आनंद से पूछा.
अभी-अभी कम हुई है कुछ.
आनंद ने शरारत से कहा.
अच्छा? स्वाति हंस दी.
काफी दूर तक सन्नाटा उनके साथ चलता रहा.
आनंद...मुझे कुछ कहना है.
स्वाति ने सन्नाटे को परे धकेलते हुए कहा.
आनंद को स्वाति की शरारतों की तो आदत थी, उसके खिलंदड़ेपन की, उसके धौल-धप्पों की भी लेकिन उसकी गंभीर आवाज से वो डर जाता था.
बोलो? आनंद ने उसके चेहरे में वो तलाशना चाहा, जिसे कहने के लिए स्वाति शब्द तलाश रही थी. चेहरा एकदम निर्विकार था. वहां कोई भाव नहीं था.
मैं मां बनना चाहती हूं. स्वाति ने एक झटके में अपना वाक्य पूरा किया और खुद को खामोशी की चादर में समेट लिया.
ओह...ये क्या हुआ, सोचते हुए सड़क वापस अपने आलस के खोल में मुर्दा होकर सोने चली गई. मानो उसे यकीन हो कि अब यहां कुछ भी ऐसा नहीं बचा जिसे देखने के लिए उसे अपनी नींद खराब करनी चाहिए.
गहराती रात में स्वाति की ये ख्वाहिश मानो पूरी फिजा में तैर गई. सर्द लहर का एक झोंका दोनों की हड्डियों तक को कंपा गया.
घर चलें? आनंद ने कहा.
स्वाति की आंखें भर आईं जिसे उसने हमेशा की तरह समेट लिया.
ठीक है?
उसने आनंद की ओर मुस्कुरा कर देखा. ये विदा की बेला के पल थे. आनंद से उसकी मुलाकातों का अंत अक्सर ऐसे ही होता है. अचानक जैसे कोई राग विखंडित हो गया हो. वो अचानक बातों को बीच में अधूरा छोड़कर चल देता है. फोन काट देता है. स्वाति पहले लड़ती थी उसकी इन हरकतों पर लेकिन अब उसे इसकी आदत हो गई है.
चलो तुम्हें छोड़ दूं?
नहीं, मैं चली जाऊंगी. तुम जाओ. स्वाति ने आनंद की आंखों में झांकते हुए कहा.
ठीक है. मिलते हैं फिर. बाय.
विदा की औपचारिकताएं अगर ढंग से न निभाई जाएं तो मिलन का सारा मजा जाता रहता है. एक किरकिराहट सी शामिल हो जाती है पूरी मुलाकात में. आनंद उस मुर्दा सी सड़क पर स्वाति की ख्वाहिश के साथ उसे अकेला छोड़कर चला गया.
स्वाति अपने कमरे में लौट आई थी. कमरा जिसे लोग उसका घर कहते हैं. जिस पर उसके नाम की चिठ्ठियाँ और पार्सल आते हैं. उसने कमरे की बाजुओं में खुद को सौंप दिया. बिस्तर पर निढाल सी पड़ गई.
सर्दी की रातों में कोहरे की चादर के बीच यूं सड़कों पर टहलना उसे बहुत पसंद है. वो कोहरे की खुशबू को अपने भीतर भर लेती है. उसी खुशबू में कॉफी की खुशबू मिक्स करना उसे काफी रोमैंटिक लगता है. लेटे-लेटे ही स्वाति ने सैंडल उतारकर फेंके और जीन्स की बटन खोलकर कमर को जरा राहत दी.
कॉफी की तलब ज्यादा थी या मन का अनमनापन कहना मुश्किल था. लेकिन कॉफी की तलब का उसके पास इलाज था सो अपने जिस्म को उठाकर किचन तक ले जाना ही उसने मुनासिब समझा.
जारी...
12 comments:
aah !puri nahi hui....maza aa raha th..waiting....
aah !puri nahi hui....maza aa raha th..waiting....
दिमाग़ को स्तब्ध करती ठंड,
कुछ नहीं सूझता, क्या कर बैठेगा।
phir ?
विदा की औपचारिकताएं अगर ढंग से न निभाई जाएं तो मिलन का सारा मजा जाता रहता है.
jaane ki hadbadi me yea baat kise dhyan rahti hai !
अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी ।
aagey kya hua?
सही कहा...क्या कमेन्ट दूँ ..!!
सोच नहीं पा रही हूँ...बस स्तब्ध हूँ...!!!
इस कहानी को सबसे पहले मैंने पढ़ा था ..महीनो पहले.. :-)
सहेज के रखी है..तुम जल्दी दिल्ली से लौट आओ..नहीं अगला हिस्सा मैं ही चिपका दूंगी. :-)
अभी तक की कहानी में ...यहाँ स्वाति पर तन से ज्यादा मन हावी नज़र आया ...
अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा
कहानी ने उत्सुकता बढ़ा दी। शिल्प से पठनीयता बरकरार
very good story.
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