कभी सोचा था कि रेत के समंदर में खुद को छुपा दूँगी और सैकड़ों रतजगों से मुक्त हो जाऊंगी. कुछ आवाजें थीं जो सहराओं को चीरते हुए आयीं थीं और रूह को अपने साथ उड़ा ले गयीं थीं. चाँद आसमान की देहरी पर होता था और शाम हथेली पर खिलखिला रही होती थी, ठीक उस वक़्त कोई हवा का झोंका आता और अपने साथ उड़ा ले जाता. मन के वो सारे कोने महकने लगते, जो सदियों से कैद पड़े थे. वो आवाज किसी साज सी थी. फ़ोन के उस पार एक संसार उगने लगा. उस संसार में मै भी उगने लगी. ये उगना असल में अपने ही भीतर जन्म लेना था. सदियों से भटकती रूह की आवाज को सुनना था. उस पार जो आवाज थी उसमे प्यार था, इस पार जो आवाज थी उसमे ऐतबार था. कहीं कोई बाँहों का हार नहीं, जिन्दगी के किसी मोड़ पर मिलने का वादा भी नहीं, कोई उम्मीद भी नहीं बस निश्चल, निर्मल, कामना रहित प्रेम. जो शिराओं में दौड़ता फिरता था, जिसके होने से जिन्दगी में रंग भरने लगे थे.
वो आवाज एक खुशबू थी, फूलों की चादर, रेत का समन्दर. उस आवाज में एक घर बनने लगा. उसमे ख्वाब अंगड़ाई लेने लगे. कभी जंगल, कभी बस्ती, कभी पर्वत, कभी समंदर में डूबती उस आवाज में न जाने कैसी ताजगी थी, न जाने कैसा सम्मोहन कि मन खिंचने लगा था. जाने क्यों रेत के सहरा में मुक्ति की कामना जगती दिखी थी. एक रोज वो आवाज टूट गयी. उस आवाज का जादू गुम हो गया. उस आवाज का टूटना मेरा भी टूटना था. मेरे घर का टूटना था. अजीब सी आकुलता थी, आँख भरी भरी सी रहने लगी. हम अब मौन में रहने लगे. शब्दों में ख़ामोशी को और ख़ामोशी को शब्दों में गढ़ने लगे. हम एक- दुसरे से झूठ बोलने लगे. भीतर-भीतर रोते हुए हम मुस्कुराने लगे. लेकिन उस आवाज का टूटना इस समूची स्रष्टि में बसी खूबसूरती का टूटना था. दरकना था उस विश्वास का जो एक से दूसरे तक होते हुए पूरे ब्रह्मांड में सच्चाई पर यकीन को संप्रेषित करता था.
राजस्थान के किसी गाँव में उस आवाज को ढूंढकर गले से लगाना था. उसे बताना था कि तुम महज एक आवाज नहीं पूरी स्रष्टि के लिए भरोसा हो. रेत के उन टीलों पर भले ही हमने धूप को आँचल में न समेटा हो लेकिन उस आवाज को अपने आँचल में समेटा ज़रूर था. हम एक दूसरे के पीछे भागते फिरते थे. सारा दिन हम ठिठोलियों में खोये रहते और सारी रात अपनी आवाज को छुपकर रख देते तकिये नीचे और बस रोते रहते. चाँद हमारे कमरे की ताका झांकी करता तो हम पर्दा गिराकर उसे बाहर का रास्ता दिखाते.
सवाल राजस्थान का नहीं था, सवाल किसी व्यक्ति का नहीं था, सवाल किसी एक आवाज का भी नहीं था सवाल था विश्वास के टूटने का. इस दुनिया में कुछ भी टूटे लेकिन विश्वास नहीं ही टूटना चाहिए. हमने न जाने क्या क्या कहा, क्या क्या सुना लेकिन राजस्थान का एक कोना हमारी आँखों की बदलियों के बरसने से भीगा ज़रूर. हमारी खिलखिलाहटों से महका ज़रूर. हमने हाथ में हाथ लिया और हथेलियों को कस लिया. उँगलियों में उँगलियों को फंसाकर जोर से दबाया. जी भर के गले लगे, जी भर के रोये, और शायद कुछ टूटने से बचा लिया. जो टूट चूका था उसके टुकड़े चुने और रेत की चादर उठाकर उसके भीतर उन टुकड़ों को सुला दिया.
तभी दशमी का चाँद खिला. नगाड़ों को गूँज उठी, मेहँदी की खुशबू आई, राजस्थानी खाने की महक छाई, ऊँट ने अपनी गर्दन हिलाई और हमने अपनी उदासियों को हथेलियों में भरकर हवाओं में बिखेर दिया. अंजुली में आत्मविश्वास भरा. कोरों पर उभर आई किसी याद को पीछे धकेला और मन को प्रेम से भर जाने दिया. न हवा महल, न आमेर का किला, न चोखी धाडी, सारा सुख सिमटकर रह गया जवाहर कला केंद्र में मिले दोस्तों में और न्यू संग्नेरी के उस घर में जहाँ हम असल में एक-दूसरे को एक दूसरे में खोज रहे थे...रेत के जिस समन्दर में हमेशा के लिए सो जाना था, वहां रात रात भर जागते ही रहे...बाजरे की रोटी, लहसुन की चटनी दाल बाटी चूरमा, कढ़ी, गट्टे की सब्जी, प्याज की कचौरी, मिर्ची बड़ा सब एक तरफ रह गए बस एक आइसक्रीम को मिलकर खाना, आधी रात को सड़कों पर खाक छानते हुए ऊंघते हुए शहर को देखना और हथेलियों में हथेलियों का घंटो फंसाए रहना याद रह गया...कौन कहता है राजस्थान में पानी की कमी है. वहां के लोगों के दिलों में प्रेम की नदी बहती है और उनकी आँखों में नमी रहती है. मैंने भी कुछ मोती चुराए हैं...कुछ नयी यादें बनायीं हैं. वो शहर उसकी आँखों में दीखता है, उन आँखों का भूगोल के नक़्शे में कोई जिक्र नहीं है...
16 comments:
जादू है पूरा ....:)
परिवेश को भूलकर उसी में खो जाती भावों की गूढ़ता।
bahut hi achha laga aapke shabdon se bhawnaaon ko jeena
आपके शब्द कौशल को नमन...लाजवाब आलेख.
नीरज
गाली खाने वाला काम काहे कर रही हो बेट्टा !
यूँ कि हम सोच रहे हैं ....कि अगर सुन्दर लिखने कि रेसिपी में दर्द का होना ज़रूरी है ..तो भगवान करे तुम बहुत बुरा लिखो !
खोपचे में आओ ज़रा ..एक बढ़िया बात बताते हैं..
shabdo ne rooh ka naksh bana dala
@ babu- मीठी लगी है तेरी गाली रे...
:-) :-)
aapki post hamesha hi ehsason ke samdar me le jati hai...sunder..
एक अद्भुत बुनावट और माहौल का सृजन करता हृदयस्पर्शी लेखन ...निःशब्द!
उफ़ !!! क्या लिखा है ....इधर रेत के धोरे और उधर आपकी कलम.
वर्षा जी आपसे मिलकर इस यात्रा को पूर्णता मिली. उस प्यार भरे आलिंगन की खुशबू अमानत है मेरी.
शानदार, वहां के लोगों के दिलों में प्रेम की नदी बहती है। वाकई दिल को छू गई यह पोस्ट।
pratibhji aapka dil aur nazariya donon hi bade hain
हृदयस्पर्शी!
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