Monday, March 14, 2011

एक ख़त

अवसाद के घने अंधेरों के बीच एक मित्र का एक ख़त रौशनी बनकर उभरता है. सोचती हूँ क्यों न उसे साझा किया जाये. 

प्रिय मित्र, 

मैंने हमेशा से यह महसूस किया है कि वह जो हमारे भीतर बैठा एक और ’मैं’ है...। जिसका जन्म हमारे जीते जी बीच में कहीं हो गया था। उसके साथ हमारे संवादों ने, जिसे हम अपना सारा लिखा हुआ कह सकते हैं, उस ’मैं’ को इतना पानी दिया है वह एक हरा भरा पेड़ बन चुका है। जिसकी छांव में हम खुद को इतना सुरक्षित महसूस करते हैं जितनी सुरक्षा शायद हमने अपनी माँ की कोख़ में महसूस की थी। पर इन संवादों में हमारा लगातार उसके साथ एक द्वंद चल रह होता है। वह दरख़त जितना बड़ा होता जाता है कि हमारा जीना उसके सामने एकदम ही निर्थक जान पड़ता है। सार्थकता की लड़ाई जो उस दरख़त के और हमारे बीच चल रही होती है वह हमारे कर्म में जीवंत्त्ता बनाए रखती है। 

जहाँ से मेरी समस्या शुरु होती है वह है... शांति.. उस दरख़्त और मेरे बीच की। जब हम ’सम...’ पर बहुत समय तक बने रहते है। जहाँ वह मुझे और मैं उसे स्वीकार कर लेता हूँ। 
जैसा कि मैंने पहले कहीं लिखा है... कि “लिखता मैं नहीं हूँ लिखता तो कोई ओर है. मैं तो बस उसे सहता हूँ।“
हमें हमारे एकांत से बहुत अपेक्षाएं हैं..। शायद इसी वजह से जब हम अपने एकांत में प्रवेश करते हैं तो वह, हमारा एकांत, हमसे क्या अपेक्षा रखता है? इसे हम सुन भी नहीं पाते। हम अपने एकांत में अपनी पूरी गंदगी लिए प्रवेश करते हैं और अपेक्षा करते हैं कि हमारा एकांत हमारे सारे पाप धो देगा.... और अंत में जब हम इससे बाहर आएगें तो हमारे पास नए विचार... और किसी नई कृति की शुरुआत होगी। शायद यह अपेक्षाएं ही      है जिसके कारण हमारा एकांत भी हमें हमारी निजी समस्याओं से भरा लगता है..हम बहुत देर वहाँ भी ठहर नहीं पाते...। हमारी अपेक्षा, चाहे हमारे एकांत से हो, चाहे वह हमारी पीड़ाओं से हो, या चाहे हमारे अवसादों से.... वह सबका एक जैसा स्वाद कर देती है।
और क्या हम सोच-समझकर किसी भी बात को कह सकते हैं...। हम शायद एक स्थिति पर रहते हैं.. बरसों... और बहुत समय बाद वह बात हमारे भीतर से कहीं निकलती है और हमें लगता है कि वाह! क्या बात कह दी मैंने ही। पर उस बहुत समय तक एक स्थिति पर रहने की पीड़ा का क्या? वह तो हमें ही भोगना है और इसलिए नहीं कि वह बहुत असहनीय है, ना... वह बहुत सुंदर स्थिति है...। यह वह ही स्थिति है जिससे हम काई के नीचे की झील को महसूस कर पाते हैं। जैसे हमें जब बुखार आता है तो हम कहते हैं कि मेरी तबियत खराब है... जबकि सत्य यह है कि शरीर भीतर लड़ रहा है... वह भीतर पल रहे रोगों को खत्म करने की कोशिश में है। सो बुखार आने की स्थिति को मैं स्वस्थ कहूंगा... अस्वस्थ नहीं।

जब अवसाद, खालीपन.. और असहजता के दिन चल रहे होते हैं तो हम उस वक़्त उस काई को हटाने की कोशिश में लगे होते है जिससे हमें शांत नीला पानी दिखे...। 

फिर मिलते हैं
- मानव

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

यह पत्र बहुत ही गहराई लिये है, मानव का मन बहुत गहरा है। एकांत को सम्हाल पाना सम्भव नहीं, व्यस्तता से अधिक भार लिये होता है एकांत। एकांत जीवन का विष निकाल देता है और यदि सम्हाल न पायें तो व्यग्रता बढ़ा देता है।

Unknown said...

कितनी बार पढ़ चुकी हूँ इस ख़त को. कितना गहरा, कितना साफ़, कितना ठंडक पहुँचाने वाला.

शुक्रिया प्रतिभा जी, इसे हमसे शेयर करने के लिए.