Tuesday, February 15, 2011

डायरीनुमा कुछ अगड़म-बगड़म




नब्ज कुछ देर से थमी सी है...


इन दिनों आसपास ढेर सारे ख्याल घूमते रहते हैं. अजीबो-गरीब से. यूं कुछ न कुछ ख्याल तो हमेशा ही साथ होते हैं लेकिन इन दिनों इन ख्यालों में अजब सी होड़ मची हुई है. सब एक-दूसरे से टकराते हैं. लड़ते हैं, भिड़ते हैं. मेरे कब्जे में कोई नहीं. मैं बस दर्शक हूं. देख रही हूं. देखती हूं कौन करीब आता है, कितने करीब आता है. कितनी देर टिकता है. कितना और कैसा असर छोड़ जाता है. 


एक ख्याल जो ज्यादातर सारे ख्यालों को पीछे छोड़ देता है, वो है मृत्यु का ख्याल.  न..न..इसे लेकर नकरात्मक सोचने की जरूरत नहीं. बेहद रूमानी सा ख्याल है यह. कई बार अपने सपने में अपने ही शरीर को सफेद फूलों से सजा रही होती हूं. कई बार जल्दी-जल्दी काम समेट रही होती हूं कि मृत्यु से पहले कुछ छूट न जाए. मेरे जाने के बाद कहीं किसी को कोई परेशानी न हो. एक बार एक कहानी भी लिखी थी इस खामख्याली पर. 


बहुत पहले प्रियंवद की एक कहानी पढ़ते हुए मृत्यु की रूमानियत से सामना हुआ था. शांत, स्थिर, मोहक, आकर्षित करती हुई मृत्यु. उसके आसपास कोई शोर नहीं. कोई हलचल नहीं. सफेद फूलों की तरह बेहद लुभावनी. 


मृत्यु का ख्याल दो ही स्थितियों में आसपास होता है. एक....अरे वही, जिंदगी का रोना-धोना. जिंदगी से थककर, हारकर, पस्त होकर. ये काफी उबाऊ है. इसमें कहीं कोई रूमानियत नहीं. लेकिन जो दूसरी स्थिति है, वो कमाल है...जिंदगी से प्यार होने की स्थिति. कुछ ऐसा पा लेने की चरम सीमा, जिसका होना सिर्फ ख्वाब ही रहा हो अब तक. सुख की अंतिम स्थिति. जब बेसाख्ता मुंह से निकले कि काश इन पलों में दम ही निकल जाए...


दु:ख तो कभी इतना बड़ा नहीं हुआ कि मृत्यु का ख्याल करीब फटके. क्योंकि  जिसने मरीना के जीवन को छूकर देखा हो वो खुद को आसानी से दुखी तो नहीं कह सकता. 

सुख, वो न जाने किस गांव रहता है...कभी-कभी उस गांव के आसपास से गुजरी हूं शायद, लेकिन रास्ता भटक गई हूं अक्सर. ढूंढती हूं. रुक जाती हूं. फिर चल पड़ती हूं. पीछे पलट-पलट कर देखती हूं. असमंजस में हूं कि आखिर ये मृत्यु का ख्याल क्यों आसपास मंडराता है? क्यों दूसरे ख्यालों से होड़ में जीत जाता है. क्यों मुझे लुभाता है. कई बार दिल चाहता है हाथ बढ़ाकर छू लूं इस ख्याल को. गुनगुनाती हूं... दफ्न कर दो मुझे कि सांस मिले, नब्ज कुछ देर से थमी सी है...कहीं से बांसुरी की आवाज आ रही है शायद...देखूं तो कहां से...

6 comments:

के सी said...

देखो कहां से आ रही है बांसुरी की आवाज़ ?

कुश said...

मेरे मरने पर रोये वो जो खुद हमेशा जिंदा रहेगा.. ये ग़ालिब का ख्याल है..

प्रवीण पाण्डेय said...

जब जब भी सुख ढूढ़ने का प्रयास किया है, नहीं मिला है। जब जीवन जीने लगा, दौड़ा दौड़ा आया सुख।

Swapnrang said...

ghanghor ekant ki talash.....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी सुन्दर पोस्ट की चर्चा तो आज के चर्चा मंच पर भी है!

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

"जब मैं कोई पत्ता झरता हुआ देखता हूँ, तो कहीं भीतर एक हलका सा रोमांच उमगने लगता है। वह अपने झरने में कितना सुंदर दिखाई देता है, अपनी मृत्यु में कितना ग्रेसफ़ुल। आदमी ऎसे क्यों नहीं मर सकता - या ऎसे क्यों नहीं जी सकता?"
- निर्मल वर्मा