Saturday, November 27, 2010

डायरीनुमा कुछ अगड़म बगड़म-2

मुझे कभी-कभी सिस्टमैटिक होने से बड़ी शिकायत होती है. बल्कि यूं कहूं कि एक अजीब सी ऊब होती है. कभी-कभी तो यह ऊब इस कदर बढ़ जाती है कि घबराहट में तब्दील होने लगती है. सजा संवरा घर, हर काम का एक वक्त मुकर्रर, जिंदगी एकदम करीने से. ये भी कोई जीना है.
मैंने हमेशा कल्पना की एक सजे-संवरे सुलझे, साफ-सुथरे घर की. अपनी इस कल्पना को साकार करने के लिए काफी मशक्कत भी की. लेकिन मुझे आकर्षित किया हमेशा बिखरे हुए घरों ने. जहां घर भले ही बिखरे हों पर मन एकदम ठिकाने पर. इन दिनों मैं उसी उलझाव को जी रही हूं. सब कुछ बिखरा हुआ है. संभालने का मन भी नहीं. और बिखेर देने का मन है. किताबों की ओर देखने का दिल नहीं चाहता. आइस पाइस खेलने का दिल चाहता है. इक्कम दुक्कम भी. दुनिया की खबरें जानने का मन नहीं करता, मां के संग गप्पें लड़ाने का मन करता है. तेज आवाज में बेसुरा सा गाने को जी चाहता है. जिंदगी को उलट-पुलट करने को जी चाहता है. सूरज को चांद के भीतर छुपा देने का मन होता है. धरती का घूमना रोक कर चांद को घुमाने का मन करता है. सब उल्टा-पुल्टा. मन भी कितना अजीब होता है.

7 comments:

M VERMA said...

सूरज को चांद के भीतर छुपा देने का मन होता है.'
चाँद की शीतलता मुझे लगता है कि सूरज की तपन को भी शीतल कर सकने का सामर्थ्य रखती है. सुन्दर है यह अगड़म बगड़म
हो सके तो तेज आवाज में बेसुरा गाते हुए रिकार्ड कर लें और हमें भी सुनायें.

पारुल "पुखराज" said...

लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं :)

Sanjay Grover said...

mera to aur bhi bura haal hai.

Baharhaal, kabhi yahaaN aayeN :

http://www.paagal-khaanaa.blogspot.com

shaayad kuchh sukoon mile..

Rangnath Singh said...

जिसके पास जो नहीं है उसे उसी की तलाश है। हम तो अराजकता,अव्यवस्था,अनियमितता और आत्म-अवहेलना से जार-जार हुए लोग हैं। हमें अपने उस विलोम की तलाश है जो आपके पास है। :-)

देवेन्द्र पाण्डेय said...

सुंदर।

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत अधिक व्यवस्थित जीवन से ऊबने लगता है मन कभी कभी।

Ashok Kumar pandey said...

प्रकाश कांत की कहानी में एक जगह एक पात्र कहता है…'घर बहुत सजे संवरे हों तो लगता ही नहीं कि उनमें कोई रहता है'