Saturday, March 27, 2010

रेनर मरिया रिल्के की कविता- निष्ठा

मेरी आंखें निकाल दो
फिर भी मैं तुम्हें देख लूंगा
मेरे कानों में सीसा उड़ेल दो
पर तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुंचेगी
पगहीन मैं तुम तक पहुंचकर रहूंगा
वाणीहीन मैं तुम तक अपनी पुकार पहुंचा दूंगा
तोड़ दो मरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
ह्दय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
और अगर मेरे मस्तिष्क को जलाकर खाक कर दो-
तब अपनी नसों में प्रवाहित रक्त की
बूंदों पर मैं तुम्हें वहन करूंगा।
(अनुवाद- धर्मवीर भारती )

9 comments:

Amitraghat said...

"बहुत ही कठोर है कविता........."

Swapnrang said...

nishtha ka arth hi yahi hai.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर कविता का धर्मवीर भारती जी का अनुवाद पढ़वाने के लिए धन्यवाद!

सुशीला पुरी said...

घोर प्रेम की कविता ....विकटता लिए हुये .

हिन्दीवाणी said...

यह कविता बहुत कुछ कहती है। धन्यवाद की इतनी सुंदर रचना आपने पढ़वाई।

प्रज्ञा पांडेय said...

घोर निष्ठा!!

Fauziya Reyaz said...

ye kavita hum pahunchane ke liye shukriya...behad sakht hai ye rachna

शिखा शुक्ला said...

avavharik parantu sunader....badhai

आनंद said...

तोड़ दो मरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
...
अंततः मैं तुम तक पहुँच ही जाऊंगा .