मेरी आंखें निकाल दो
फिर भी मैं तुम्हें देख लूंगा
मेरे कानों में सीसा उड़ेल दो
पर तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुंचेगी
पगहीन मैं तुम तक पहुंचकर रहूंगा
वाणीहीन मैं तुम तक अपनी पुकार पहुंचा दूंगा
तोड़ दो मरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
ह्दय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
ह्दय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
और अगर मेरे मस्तिष्क को जलाकर खाक कर दो-
तब अपनी नसों में प्रवाहित रक्त की
बूंदों पर मैं तुम्हें वहन करूंगा।
(अनुवाद- धर्मवीर भारती )
9 comments:
"बहुत ही कठोर है कविता........."
nishtha ka arth hi yahi hai.
सुन्दर कविता का धर्मवीर भारती जी का अनुवाद पढ़वाने के लिए धन्यवाद!
घोर प्रेम की कविता ....विकटता लिए हुये .
यह कविता बहुत कुछ कहती है। धन्यवाद की इतनी सुंदर रचना आपने पढ़वाई।
घोर निष्ठा!!
ye kavita hum pahunchane ke liye shukriya...behad sakht hai ye rachna
avavharik parantu sunader....badhai
तोड़ दो मरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
...
अंततः मैं तुम तक पहुँच ही जाऊंगा .
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