Thursday, February 26, 2009
सुनो तो...
Tuesday, February 24, 2009
Monday, February 23, 2009
बधाई
Saturday, February 21, 2009
ek mulakat gulzar sahab se
Labels: paratibha
Thursday, February 19, 2009
खराशें के बहाने....
मैं कोई समीछ्क नही, न ही थियेटर एक्सपर्ट हूँ फ़िर भी जीवन की दूसरी कलात्मक विधाओं की तरह नाटकों में भी मेरी थोडी बहुत रूचि है। पिचले दिनों एक नाटक देखा खराशें। गुलज़ार साहब की पोएट्री और कहानियो को आपस में जोड़कर इस नाटक को सलीम आरिफ ने निर्देशित किया। नाटक में अगर सच कहें तो मज़ा नहीं आया। मंच पर अतुल कुलकर्णी और यशपाल शर्मा की उपस्थिति और लुबना सलीम की बढ़िया acting के बावजूद पूरा नाटक टूटा-टूटा, बिखरा-बिखरा सा लगा। मुझे ऐसा तब लगा, जब मंच पर बोले जा रहे samwad और कवितायें मुझे pahle से shabd dar shab yaad थे। यानी जिनके लिए इस दुनिया में जाने का पहला मौका था, उनकी मुश्किलसमझी जा सकती है। कविताओं पर natak नई बात नहीं है। दिअरी, कविता, लेटर्स, कहानिया ये सब नाटकों का हिस्सा होते हैं। ऐसे नाटकों में itani शिद्दत होती है की वे दर्शकों को दोनों हाथों से पकड़ लेते है। उनका दिल, दिमाग स्टेज से जुड़ जाता है। नाटक में एक रिदम का होना बेहद जरूरी है। वो रिदम जो पल भर को भी खंडित न हो। अगर वो एक पल भी दर्शकों को मिल गया तो नाटक और दर्शक के बीच गैप बनाना शुरू हो जाता है लाय टूट जाती है। फ़िर दर्शकों को खुजली होने लगती है। जाहिर है यह खुजली नाटक को डिस्टर्ब करती है।यह बात सही है की पूरा दोष नाटक पर नहीं थोपा जा सकता न ही दर्शकों पर। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है की नाटक की औडिएंस को भी थोड़ा अपडेट होने की जरूरत है। आमतौर पर बड़े natak एक खास किस्म के एलिट क्लास की औडिएंस के सामने जा खड़े होते हैं( कम से कम लखनऊ में ).नाटक की असल में समझने वाले और उसे एन्जॉय करने वाले अक्सर auditoriaym के bahar खड़ा नजर आता है। एक खिसियाहट दोनों तरफ़ है। नाटक करने वालोंमें भी और देखने वालों में भी। बहरहाल, अच्छी बल्कि बहुत बात यह है की भले ही गडबडियां हुईं, नाटक ने अपना इम्पेक्ट उतना नहीं chhoda. इन दिनों नाटकों को लेकर अजीब सा फैशन उभरने लगा है की natakon ke बारे में बात बौधिक जुगाली करने के काफी काम आता है। फैशन हो या kuch aur लेकिन अच्छी बात यह है की नाटकों का युग लौट रहा है। फिलहाल, इस नाटक में सबसे बढ़िया लगी मंच सज्जा जो बेहद saada होते हुए भी अपना पूरा प्रभाव छोड़ रही थी। मंच पर लगी पेंटिंग्स उस दौर को बयाँ कर रही thi जिस दौर की थीम नाटक की थी। यह नाटक बटवारे के बाद दिलों पर पड़ी ख़राशों को बयां करता है। समय भले ही बदल गया लेकिन हालत अब तक वैसे ही है, वही भय, खौफ, जखम...सब kuch॥
एक अच्छा नाटक बनते बनते रह सा गया...
Sunday, February 15, 2009
गुलज़ार के संग एक शाम
कल की रात बड़ी उजली थी
कल की रात तेरे संग गुजरी...
गुलज़ार साहब की लिखी ये नज़्म सचमुच जी उठी
बीती रात। आसमान से हलकी झरती उस की बूंदों
के बीच जेनेसिस क्लब ख़ुद गुलज़ार साहब की आवाज
में महक उठा जब उहोंने एक एक कर अपनी नज्मों को
पढ़ना शुरू किया। उस रात वो आसमान सचमुच जरीवाला
नीला आसमान हो गया था। और ये कोई कल्पना नहीं थी।
वहां मौजूद हर शख्श अपने भीतर एक गुलजार को उगता
हुआ महसूस कर रहा था।
रात भर सर्द हवा चलती रही
रात बहर बुझाते हुए रिश्ते को तप हमने
मुझको इतने से काम पर रख लो
जब भी सीने पर झूलता लौकेट
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से सीधा
करता रहूँ उसको....
इस नज्म को पढ़ते हुए उनके चेहरे पर
जोप शरारत के भावः थे वे उनकी उम्र को बहुत पीछे
छोड़ रहे थे...
उनकी पेर्सोनाल्तिटी के तमाम शेड्स यहाँ मौजूद थे।
पाकिस्तान के बटवारे के दर्द को बयां करने वाली नज़्म
भमीरी का जादू था तो जुलाहे से रिश्तों को बुनने के
तरकीब सीखने की ख्वाहिश भी थी...
उन्होंने अपने चाहने वालों के सवालों के जवाब भी दिए
और एक जवाब में शरारत से कहा की मुझे इन दिनों
फुर्सत तो मिल जाती है पर जाना नहीं मिलती।
सफ़ेद लिबास में सजे उस शायर की बहकी बहकी सी
बातें सबको अपनी गिरफ्त में रही थी। मौका वैलेंटाइन डे
का और इस कदर रोमेंटिक रात भला कौन भूल पायेगा।
गुलज़ार साहब पिछले दो दिनों से लखनऊ में हैं। मेरी उनसे
अलग से हुई मुलाकात का जिक्र और बहुत कुछ अभी बाकी
है। फिलहाल आज उनके प्ले खराशें देखने जाने का वक़्त है।
इस बारे में भी कल बात होगी...फिलहाल इतना ही...
Thursday, February 12, 2009
दूरियां
रहाऔर दूर चला आया
मैं दूर चला आया
और सोचता रहा
तुम सोचती रहीं
और दूर चली गईं
तुम दूर चली गईं
और सोचती रहीं
इस तरह हमने तय की दूरियां।
- मंगलेश डबराल
Tuesday, February 10, 2009
एकांत की खातिर
तन्हाई के लिए भी जरूर चाहिए। दूर कमरे
में बैठा जो मेरी तन्हाई की हिफाज़त कर सके।
साथ के लिए तो बहुतों ने किसी न किसी को
चाह होगा पर किसी ने एकांत खातिर भी किसी
को चाहा हो नहीं जानती।
मैंने जरूर चाहा है........
अमृता की डायरी से.....
Sunday, February 8, 2009
प्यार
मेरे लिए यही प्यार है, और जिसे आप प्रेम की संज्ञा देते
हैं- बलिदान, वफादारी, इर्ष्या, उसे दूसरों के लिए
बचाकर रखिये, किसी दूसरे के लिए।
मुझे यह नहीं चाहिए। सचमुच नहीं।
- मारीना
Sunday, February 1, 2009
is vasant men
इस वसंत के किनारे रुको
इसके फूलों में
इसके पानी में
इसकी हवा में
डूब जाओ थोडी देर को
सुनो इसके पदों की आवाज़
छुओ इसकी पत्तियां
सौंप दो अपने को
एक नाद सुने देगा
दिखाई देंगे देवदूतों के चेहरे
तुम्हारे भीतर प्रेम
बस धीमे से एक बार
नाम लेगा किसी का
तुम अमर होगी इस ऋतू में
फूल, पानी, हवा, वृक्ष और पत्तियां
तुम्हें धन्यवाद देंगी
नदियों में तुम्हारे लिए
आशीष होगा!
अलोक श्रीवास्तव की कविता