यूँ तो भीतर एक उथल-पुथल सी हमेशा चलती रहती है कि जो कर रही हूँ उसमें कितनी सार्थकता है. जिन रास्तों पर दौड़ रही हूँ, वो कहीं पहुंचेंगे भी या नहीं. यह बात, जिन्दगी के रास्तों की नहीं अपने पेशेवर काम के संदर्भ में कर रही हूँ. हर दिन खुद के ‘किये’ पर सवाल करना जैसे आदत हो, और ‘न किये पर’ सवाल करना और पक्की आदत. इन्हीं उहापोह के बीच काम करना आसान करने के जो भी बिंदु मिलते हैं उन्हें सहेजती चलती हूँ. क्योंकि यहीं से और गति के साथ चलने की ऊर्जा मिलती है.
ऐसे ही कुछ अनुभवों से भरा-पूरा गुजरा जून का महीना. जिन सरकारी शिक्षकों के काम करने की नीयत पर, जिनके काम की गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगाने से न कभी सिस्टम हिचकिचाता है, न समाज यह उन्हीं सरकारी शिक्षकों की बाबत है. अपनी छुट्टियों के दिनों में परिवार के साथ समय बिताने, सिनेमा देखने जाने, रिश्तेदारों के यहाँ जाने आदि को स्थगित करके बिना किसी सरकारी आदेश के, शुद्ध रूप से अपनी इच्छा से अगर अपनी छुट्टियों के चार दिन (कुछ तो 8, और कुछ 12 दिन भी) अपनी कक्षा कक्ष प्रक्रियाओं को बेहतर कर पाने के उद्देश्य से किसी कार्यशाला में जाते हैं तो यह सामान्य बात नहीं है. उनके भीतर सीखने की, बेहतर करने की, अपने बच्चों को नए-नए तरीकों से, रोचक तरह से पढ़ाने की यह इच्छा बेहद उत्साहजनक है.
बीते जून में पूरे उत्तराखंड में हुई 80 कार्यशालाओं में करीब 1600 शिक्षकों ने इन कार्यशालों में भाग लेकर शिक्षा को लेकर फैली उन भ्रांतियों को मुंह चिढ़ाया है जिनके तहत शिक्षा जगत के सिर्फ नकारात्मक पक्ष को ही बार-बार सामने रखा जाता रहा है.
जब भी इन शिक्षकों से मिलती हूँ, मन में एक ही सवाल होता है कि आखिर क्या है जो उन्हें अपने काम के प्रति इतनी सकारात्मकता से भरता है. क्या है जो व्यवस्थागत अडचनों के बावजूद उनका रास्ता आसान करता चलता है. पाया कि इन शिक्षकों में अपने काम को लेकर एक आदर भाव है. यह बात उत्तराखंड के शिक्षकों के (सब नहीं) संदर्भ में ही कह रही हूँ. कितने ही शिक्षक मिलते हैं जो अपने परिवार का समय स्कूलों में लगा रहे हैं. कुछ निजी सहयोग से अपने स्कूलों को संवार रहे हैं. अपने बच्चों की एफडी तोड़कर अपने स्कूल की दीवारें व छत पक्की बनवाना कोई मामूली बात तो नहीं है. लेकिन इन शिक्षक साथियों को अपने पेशे के प्रति इस तरह के गैर मामूली लगाव का कोई भान भी नहीं है. यह इल्म न होना उनके काम के सौन्दर्य को बढाता है. अगर आप इनसे मिलेंगे और उनकी तारीफ करेंगे तो ये शिक्षक साथी संकोच से भर उठेंगे. हालाँकि ये शिक्षक लगातार यह मानते हैं कि उन्हें और नए तरीके जानने की जरूरत है ताकि बच्चों को बेहतर ढंग से सिखा सकें. इसीलिए वो अज़ीम प्रेमजी फाउन्डेशन के टीचर्स लर्निग सेंटर्स या स्वैच्छिक शिक्षक मंच (वीटीएफ) में छुट्टी के दिनों में या काम के दिन में स्कूल की छुट्टी के बाद आते हैं. गर्मी और जाड़े की छुट्टियों में खुद की क्षमता संवर्धन हेतु आते हैं. बिना किसी सरकारी आदेश के बिना कहीं से कोई शाबासी मिलेगी ऐसी इच्छा के.
स्वैच्छिक प्रतिभाग कितना महत्वपूर्ण होता है इसका उन्हें अंदाजा है और यही बात काफी हद तक उनकी कक्षाओं में भी दिखती है. कोई भी तब बेहतर सीखता है जब या तो उसकी सीखने की प्रबल इच्छा होती है या जरूरत. इसलिए स्कूलों में सबसे पहले बच्चे का आने का मन होना, स्कूल में उसका रहने का मन होना, स्कूल में खुश महसूस करना कुछ भी सीखने-सिखाने से पहले की जरूरतें हैं. बच्चे जितना अपने शिक्षक से लगाव महसूस करते हैं उतना जल्दी सीखते हैं. सीखने को लेकर आत्मविश्वास भी जरूरी है. यह बात कि सीखा जा सकता है, सीखने की क्षमता है, बड़ों और बच्चों दोनों को सीखने की ओर बढाता है.
सीखने-सिखाने से जुडी कुछ इन्हीं संवेदनशील बातों का ध्यान रखते हुए गर्मी की छुट्टियों में अजीम प्रेमजी फाउन्डेशन द्वारा कार्यशालाएं आयोजित की गयीं और उनमें शिक्षकों का प्रतिभाग उत्साहजनक रहा. यूँ तो यह बदलाव की एक बहुत छोटी सी शुरुआत है. लेकिन इन्हीं छोटी-छोटी रोशनियों में आने वाले कल का उजाला छुपा है. ‘कुछ बदल गया है’ के उत्सव के तौर पर नहीं ‘कुछ बदलने की इच्छा’ के तौर पर शिक्षकों के इस प्रतिभाग का सुख तो महसूस किया ही जा सकता है. बाकी सफर तो अभी शुरू हुआ है...
स्वैच्छिक प्रतिभाग कितना महत्वपूर्ण होता है इसका उन्हें अंदाजा है और यही बात काफी हद तक उनकी कक्षाओं में भी दिखती है. कोई भी तब बेहतर सीखता है जब या तो उसकी सीखने की प्रबल इच्छा होती है या जरूरत. इसलिए स्कूलों में सबसे पहले बच्चे का आने का मन होना, स्कूल में उसका रहने का मन होना, स्कूल में खुश महसूस करना कुछ भी सीखने-सिखाने से पहले की जरूरतें हैं. बच्चे जितना अपने शिक्षक से लगाव महसूस करते हैं उतना जल्दी सीखते हैं. सीखने को लेकर आत्मविश्वास भी जरूरी है. यह बात कि सीखा जा सकता है, सीखने की क्षमता है, बड़ों और बच्चों दोनों को सीखने की ओर बढाता है.
सीखने-सिखाने से जुडी कुछ इन्हीं संवेदनशील बातों का ध्यान रखते हुए गर्मी की छुट्टियों में अजीम प्रेमजी फाउन्डेशन द्वारा कार्यशालाएं आयोजित की गयीं और उनमें शिक्षकों का प्रतिभाग उत्साहजनक रहा. यूँ तो यह बदलाव की एक बहुत छोटी सी शुरुआत है. लेकिन इन्हीं छोटी-छोटी रोशनियों में आने वाले कल का उजाला छुपा है. ‘कुछ बदल गया है’ के उत्सव के तौर पर नहीं ‘कुछ बदलने की इच्छा’ के तौर पर शिक्षकों के इस प्रतिभाग का सुख तो महसूस किया ही जा सकता है. बाकी सफर तो अभी शुरू हुआ है...
3 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (08-07-2018) को "ओटन लगे कपास" (चर्चा अंक-3026) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/07/blog-post_7.html
बहुत अच्छा लगा कि आपने शिक्षकों के योगदान को इतना महत्त्व दिया, वरना लोग तो शिक्षक की नौकरी को हाफ डे जॉब और मजे की नौकरी मान बैठे हैं। प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका हूँ, जहाँ शिक्षकों को वेतन कम देते हुए ज्यादा से ज्यादा काम लेने की परंपरा बन गई है और बच्चों की बोर्ड में सफलता का श्रेय स्कूल प्रशासन या प्रिंसिपल को मिलता है।
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