उस लड़की को भीगते देख
मत होना नाराज उस पर
न भागना उसकी मदद को
न ताकीद देना उसे
जल्दी घर पहुँचने की
बुखार से बचने की
कि उसने जान-बूझकर
अपनी छतरियां गुमाई हैं
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तेज़ क़दमों से सड़कें नापते हुए
जिन्दगी की भागमभाग को सहेज पाने में
सिरे से नाकाम होते हुए
झुंझलाते हुए
जब आप हों कहीं पहुँचने की जल्दी में
मौसम साफ़ देख न रखा हो छाता ही साथ
न रेनकोट ही
कि अचानक आ जाए तेज़ बारिश
संभलने का मौका न दे रत्ती भर
तर-बतर कर दे सर से पाँव तक
किसी दुकान में
किसी बस स्टैंड में ठहरकर
बारिश से बचा लेने की
गुंजाईश तक न मिले
तो समझ लेना
यह बारिश नहीं प्रेम है...
4 comments:
सच यह प्रेम ही है बारिश से, बूंदों से और खुद से। जिंदगी ही भागमभाग में बचा ही कंहा पाती है स्त्री खुद से प्रेम करने का वक़्त.... ढूंढती है चंद लम्हे बूंदों की टिप टिप चेहरे पर महसूसने के लिए....
बहुत सुंदर कविता प्रतिभा जी।
सादर
अपर्णा बाजपेयी
अनोखी शब्दावली कितनी प्यारी है .. मनमोहक
यही सच है.
बहुत बढ़िया
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