Wednesday, July 4, 2018

इस लम्हे के टूटकर बिखर जाने से पहले...


सुनो,

यह कोई खत नहीं है, बात है. इसे पढना मत. सुनना.

रात भर बारिश हुई है. मध्धम लय की बारिश. बिलकुल तुम्हारी याद के जैसी. बीच-बीच में जैसे याद की लय तेज़ होती है न, वैसे ही बारिश की भी लय बढ़ी. लेकिन उसे अपना सम पता है. जाये कितना ही ऊपर नीचे लेकिन ठहरती वहीं हैं अपने सम पर.

बरसती रात के बाद की सुबहों के लिए तुम्हें मेरा पागलपन तो याद ही होगा. अब वो पागलपन नहीं रहा. तमाम पागलपन भी उसी सम पर जाकर ठहर गया है. पता है आंगन में लगे अनार की पत्तियां मुस्कुरा रही हैं. वो जब मुस्कुराती हैं तो कितनी भली लगती हैं, तुम्हें बताना चाहती हूँ.

हल्के हरे को जैसे नर्म हाथों से कथ्थई रंग ने छू भर दिया हो. बरसकर थमी बूँदें पत्तियों पर अटकी हुई हैं. उन पर पड़ रही हैं ठंडी धूप की किरणें. मैं एकटक इन पत्तियों को देख रही हूँ. जैसे कोई जादू. ऐसा सौन्दर्य, कितनी शीतलता है इस लम्हे में. कितना सघन सौन्दर्य. मैं इन पलों के सजदे में हूँ.

इस सुख को जीते हुए इस लम्हे के टूटकर बिखर जाने का डर भी है. डर है कि अभी धूप तनिक तेज़ हो जाएगी और यह लम्हा टूटकर बिखर जाएगा. या बहुत तेज़ आ जाएगी बारिश तब भी तो गुम हो जायेगा न यह लम्हा. या कोई मुझे पुकार लेगा कहीं से, कोई फोन आ जायेगा ज़रूरी या कोई मेहमान बजाएगा कॉलबेल और यह लम्हा गिरकर छन्न से बिखर जाएगा. या हो सकता है ऐसा कुछ भी न हो और यह लम्हा वहीं अटका रहे. मैं ही इस लम्हे से बेज़ार हो जाऊं, हालाँकि इसकी संभावना कम ही है. देखो न, ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा लेकिन ऐसा कुछ हो जाएगा की आशंका इस लम्हे में शामिल हो चुकी है. हालाँकि मैं चाहती थी इस लम्हे में सिर्फ मैं और तुम होते, चुप और साथ.

हवा से पत्तियां हिलने लगी हैं. जैसे मध्धम लय पर नृत्य कर रही हों हौले-हौले, अपने पंखों पर अटकी बूंदों को गिरने दिए बगैर. 'नृत्य कर रही हैं' बारिश के ठीक बाद बहती मंद हवा की लय पर झूमती पत्तियों को देखते जाना सुख है. इस सुख को महसूस करते हुए मौन में तुमसे संवाद करना सुख है.

इस लम्हे के टूटकर बिखर जाने से पहले या इस लम्हे की यात्रा पूरी होने से पहले मैं इस लम्हे से खुद को अलग कर लेना चाहती हूँ. इस तरह तीव्र इच्छाओं को महसूस करना, उन्हें पालना-पोसना और जब वो मुक्कमल हकीकत में ढलने लगें उनसे मुंह मोड़ लेना मैंने तुमसे ही सीखा है.

पहले मुझे बहुत बुरा लगता था ठीक उस वक़्त जब बमुश्किल होने वाली मुलाकातों में मिलन का सुख जब कोरों पर अटका होता था तुम्हारा कहना, 'तो अब मैं चलूँ?'. वो अटका हुआ सुख एकदम से कितना निरीह कितना कातर हो जाता था, एक शब्दहीन उदासी मुझे घेर लेती थी, तुम बिना नज़र मिलाये चले जाते थे, बिना मुड़कर देखे भी बारिश में भीगते हुए या धुप में सूखते हुए. तुम चले जाते थे. वो शब्दहीन उदासी मेरे साथ वापस लौटती. मैं बरसों इस उदासी के साथ रही हूँ. मुझे सुखों की आहट से डर लगने लगा है. वो आसपास से गुजरते भी हैं तो घबरा जाती हूँ कि उन सुखों के आने से पहले उनके खो जाने का डर आता है. यह खो जाने का डर इतना बड़ा होता है कि उसके आगे सारे सुख बौने लगते हैं. सबसे ज्यादा बौना लगता है तुम्हारे आने का, तुमसे मिलने का सुख कि तुम्हें खो देने का डर सबसे बड़ा जो है. जानती हूँ तुम्हें इस बारे में बात करना पसंद नहीं. अब मुझे भी पसंद नहीं.

इतने बरसों बाद मैंने भी तुम्हारी तरह कुछ हद तक सुखों के टूटने से पहले उनसे खुद को अलग करना सीखा है. कुछ हद तक ही. वो सारा जिया हुआ उस न जिए हुए के आगे किस कदर छोटा है, कितना कम है समझ पाती हूँ अब. 'होना' असल में 'न होने में' ही तो छुपा है. वो छुपा है होने की इच्छा में.

फिर से बारिश शुरू हो चुकी है. वो लम्हा अभी कुछ देर और ठहरेगा. बूंदों के साथ अनार की पत्तियों का खेल कुछ देर और चलेगा शायद. मैं उस दृश्य से बाहर हूँ हालाँकि वो दृश्य मेरे भीतर. अब वो लम्हा बीतकर भी बीत नहीं पायेगा. मेरे जिए में वो हमेशा यूँ ही महकता रहेगा. मेरा जिया जब मेरी स्मृतियों में बदल जाएगा तब इसके रंग फीके पड़ जायें शायद. क्योंकि मेरे पास अब रंग नहीं हैं. मेरी स्मृतियों के रंग भी सब उड़ गए हैं. कुछ स्मृतियाँ चटख रंगों की तलाश में कभी-कभी व्याकुल हो उठती हैं फिर उदास होकर धूसर रंगों में पनाह लेती हैं. मेरे पास अब कोई रंग नहीं हैं. मेरे सारे रंग मैंने तुम्हारे साथ विदा कर दिए थे. न, न नाराज मत हो. जानती हूँ मेरी ऐसी बातें तुम्हें पसंद नहीं लेकिन क्या करूं सच तो वही है कि अंतिम विदा के वक़्त किसी टहनी पर अटकी पीली पड़ चुकी पत्ती सा तुम्हारा हाथ अब तक थमा नहीं है. ओ हेनरी की कहानी 'द लास्ट लीफ' जैसा लगता है तुम्हारा विदा के लिए हिलता हाथ. उस पत्ती के हरे को भूरे रंग ने घेर लिया था. भूरे के कोने में पीलेपन ने भी अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी. यह पीला धीरे से भूरे को अपनी जद में लेगा और फिर हरे को. और एक रोज तेज़ हवा का झोंका, या शायद धीमी हवा भी पत्ती को पेड़ से अलग कर देगी. फिर वो पत्ती नीचे गिरेगी लहराते हुए, अपने हरे से पीलेपन की यात्रा पर इठलाते हुए. पीलेपन की ओढनी पहने वो अपने जैसी तमाम पत्तियों से मिलेगी, तमाम पीली पत्तियों से. वो खुश होगी कि डाल से बिछड़ने के अपने सबसे बड़े डर से अब वह मुक्त है. तभी एक उदास आँखों वाली लड़की वहां से गुजरेगी और अनायास उस पत्ती को अपनी हथेलियों पर रखेगी. उस पत्ती को वो सहलाएगी बार-बार. वो उसमें बचे हुए हरे को ढूंढ निकलना चाहेगी. वो लड़की उस पत्ती में वही हरा ढूंढ रही होगी, जो मैं ढूँढती फिरती हूँ जीवन में. क्या वो लड़की मैं हूँ, या वो पत्ती मैं हूँ. क्या दुनिया की तमाम लड़कियां पीली पड़ चुकी उम्मीदों वाली पत्ती में अपने हिस्से का हरा तलाशने में जुटी हैं. शायद. ऐसा ही हो काश! वो इन पत्तियों में हरा तलाश लेंगी एक दिन और इस धरती का तमाम हरा सहेज देंगी

यूटोपिया सा लगता है न सब कुछ. लेकिन यह यूटोपिया न हो तो क्या रह जाएगा भला.

बारिश अब भी हो रही है. मैं कनखियों से अनार की डाली को देखती हूँ. कुछ इस तरह कि देख भी लूं और नहीं देखा है का भ्रम भी बचा लूं. बारिश स्टेशन आने पर धीमी होती ट्रेन की रफ़्तार सी हो चली है. अब वहां उस अनार की डाल पर एक बुलबुल आकर बैठ गयी है. वो अकेली है. उसका साथी भी वहीं कहीं होगा आसपास. दादी ने बचपन में बताया था कि बुलबुल हमेशा जोड़े में रहती है. इन दिनों रोज बुलबुल के जोड़े को देखकर दादी की बात याद करती हूँ. दादी नहीं जानती थीं मेरे भीतर बुलबुल होने की इच्छा को उन्होंने ही रोपा है. बुलबुल के जोड़े को देखती हूँ तो पनीली आँखों में मुस्कान खिल उठती है.

तुम क्या कभी बुलबुल के बारे में सोचते होगे. या इन बारिश में भीगती अनार की पत्तियों के बारे में, या किन्ही भी पत्तियों के बारे में, या ओ हेनरी की 'द लास्ट लीफ' के बारे में, या विदा के वक़्त अपने उस हिलते हुए हाथ के बारे में जो अब भी हिल रहा है...

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

नदी में बहता पानी नल से निकलता पानी पीने के लिये गिलास में पानी ये पानी भी रंग बदलता रहता है। बारिश में इसे पता नहीं क्या हो जाता है। हर कोई अपने अन्दाज से अन्दाज लगाना चाहता है।

बहुत सुन्दर।

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 5.7.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3022 में दिया जाएगा

धन्यवाद

शिवम् मिश्रा said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, स्वामी विवेकानंद जी की ११६ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !