Tuesday, January 30, 2018

पुकार लेना बारिश


कई बार चाहा अपना नाम बदल लूं, नदी रख लूं अपना नाम. कभी जी करता कोई बारिश कहकर पुकारे तो एक बार. बहुत दिल चाहता कोई गुलमोहर कहता कभी. कभी मौसम कहकर पुकारे जाने का दिल चाहता कभी गौरेया, कभी तितली, कभी धान, कभी सरसों कभी रहट.  मैं अपने बहुत सारे नाम रखना चाहती थी, लेकिन मेरा एक नाम रखा जा चुका था लिहाजा उसी नाम की परवरिश करने लगी, धीरे-धीरे उसी नाम को प्यार भी करने लगी.

एक वक्त ऐसा भी आया जब मुझे मेरे नाम में ही बारिश, सूरज, नदी, गौरेया, गुलमोहर सब सुनाई देने लगा. कोई पुकारता प्रतिभा तो लगता किसी ने बारिश कहकर दी हो आवाज...और मैं रुक जाती, अगर प्रतिभा की पुकार में मुझे बारिश, मौसम, गुलमोहर या नदी न सुनाई देता तो मैं आगे बढ़ जाती। अरे हजारों प्रतिभा हैं, मैं ही क्यों रुकूं?

भाषा की दुकानों में मेरे नाम का अर्थ जो भी रहा हो मेरे लिए मेरे नाम का अर्थ अब भी वही है जो कुदरत के रंग हैं। 

मैं जो अपने बारे में बताना चाहती थी, उसे सुनने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी। लोग वही सुनना चाहते हैं जो वो सुनना चाहते हैं। इसलिए बचपन से हमें वही बोलने की प्रैक्टिस करवाई जाती है, जो लोग सुनना चाहते हैं। बहुत सारी जिंदगी जी चुकने के बाद हमें समझ में आता वो जो हम रहे हैं अब तक वो तो कोई और था, जो मुझमें जीकर चला गया।

मेरे भीतर कोई और जीकर न चला जाए इसकी पूरी कोशिश करती हूँ तुम भी देना मेरा साथ इस कोशिश में इसलिए जब पुकारना मेरा नाम तो पुकार लेना बारिश...

Sunday, January 21, 2018

मुन्नार की पुकार और जीने की तलब


जीवन से जैसे-जैसे नमी की कमी होती जाती है सपने में नदियों, झरनों, समन्दर, बारिश की आवाजाही बढ़ जाती है. पिछ्ला पूरा बरस सपने में बारिशों का बरस रहा. आँख खुलती तो एक लम्हे की फुर्सत का मुंह ताकते भागती फिरती. आंखें मूंदती तो कोई नदी पुकार लेती. यह नदी, जंगल, झरने या समन्दर और रास्तों की पुकार न होती तो जीवन कितना उदास बीतता. छोटे बच्चे जिस तरह माँ के आंचल को हथेलियों में दबाकर सोते हैं उसी तरह इन पुकारों को मुठ्ठियों में भींचकर सो जाती. इस सोने में सुख था. यह पुकार असल में यात्राओं की पुकार थी. जिन्दगी के सबसे मुश्किल दिनों में यात्राओं ने हाथ थामा था. पीठ सहलाई थी. रास्तों ने प्यार किया था, मौसमों ने कलेजे से लगाया था. भीतर की तमाम जद्दोजहद, उतार चढ़ाव, उलझनों को यात्राओं में पिघलते देखा है, महसूस किया है. यात्राओं ने सारी अकराहटों, टकराहटों को धो सोखकर, धो पोंछकर, ताजा और ऊर्जावान बनाकर वापस भेजा फिर से जिन्दगी से जूझने को. मेरा तजुर्बा कहें या ढब कि जिन्दगी से जूझे बगैर जिन्दगी हाथ नहीं आती और इसके लिए बहुत ताकत चाहिए. यह बात कि यह ताकत यात्राओं से मिलती है सबसे पहले बताई थी मेरी प्यारी दोस्त निधि सक्सेना ने. उसका यात्रा संस्मरण पढ़ते हुए हूक उठी थी बस निकल पड़ने की. बस इस हूक का उठाना ज़रूरी था. इसके बाद इस हूक को सहेजना.

यह अजीब बात है कि मेरी यात्राओं से दोस्ती तब हुई जब जिन्दगी से कट्टी हुई. लेकिन धीरे-धीरे यह बदला भी कि जिन्दगी से कट्टी हुए बगैर भी यात्राओं से दोस्ती बनी रही. 

हरा और पानी मेरी कमजोरी है. एक तिनका हरा देखकर जो जो बावली हो जाती हो अगर उसे हरे का समन्दर मिल जाए तो उसकी हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. हैवलॉक, कश्मीर, लन्दन, स्कॉटलैंड सब मुझे मंत्रमुग्ध करता रहा. उत्तराखंड के हरे ने, यहाँ की बारिशों ने तो हाथ थामकर रोक ही लिया है. 

कई सालों से मुन्नार का हरा आकर्षित करता रहा है. मुन्नार एक पुकार बनकर भीतर बसा हुआ है बरसों से. किन्ही बेहद दर्दमंद दिनों में, उदासी के लिहाफ दुबके हुए मुन्नार की टिकट करा ली. जिन्दगी ने हंसकर कहा, जाने नहीं दूँगी, कि हजार मुश्किलें जाने से ठीक पहले. लेकिन उस ख्वाब की पुकार और सामने रखी टिकट हौसला बनाये रहे. मैंने जिन्दगी से कहा, 'लड़ मत, तुझसे वहीँ मिलूंगी, मुन्नार के हरे समन्दर, झरनों के बीच, 
आज यात्रा का आरम्भ है हालाँकि मैं जानती हूँ कि अपने भीतर तो मैं बरसों से इस यात्रा में हूँ. पिछली यात्रा लंदन की थी कोई डेढ़ बरस पहले. उसके बाद अब निकलना है. ऐसा नहीं कि इस बीच कहीं जाना नहीं हुआ. बल्कि पिछला बरस तो भागते ही बीता, बैंगलोर, हैदराबाद, रायपुर, भोपाल ,जयपुर दिल्ली लखनऊ की तो बात ही नहीं. लेकिन कहीं जाना यात्रा में होना नहीं होता शायद, यात्रा पर निकलने से पहले, सामान पैक करते हुए खुद को अनपैक करना ज़रूरी होता है. तमाम मसायलों को ब्रेक देना. जेहन को खाली करना ज़रूरी है. 

कल रात तक जाने से पहले की जिन्दगी को समेटने का दबाव था. आज कुछ भी नहीं...सामने रखी टिकट मुस्कुरा रही है उसके पार मुस्कुरा रहा है एक खूबसूरत हरा समन्दर...खुद से किया वादा निभाने जा रही हूँ कि जियूंगी जी भर के इस बरस...

Saturday, January 20, 2018

पहाड़ तू तो मेरा दगढ़िया ठैरा


- चन्द्रकला भंडारी

हाँला पहाड़,तू कैसे सोच सकता है कि तेरी याद नहीं आती. तूने ही तो दी थी मुझे कठोर जीवन की आपाधापियों के लाधने की शिक्षा. मैं कैसे बिसर सकती हूँ असौज(सितम्बर और अक्टूबर का महीना जिसमें पहाड़ में खूब काम होता है एक तरफ घास काटना,खेतों में अगली फसल की तैयारी करना,जाड़ों के लिए कच्ची और सुखी लकड़ियों का इंतजाम करना इन महीनों में तो पहाड़ की औरत शायद ही कभी दिन का भात खाती होगी) के महीने में नमकीन पसीना पोंछते हुए पीठ पर गाज्यो के पुले ढोते हुए अँधेरे होने से पहले घर पहुचनें की डर और बारिश की तनिक आशंका होने पर गाज्यो को एक जगह सारकर फटाफट लुटे की तैयारी करना. इजा तैयार रहती थी कि लगभग सौ पुलों याने एक लूटा बनाना. 

इजा कभी स्कूल नहीं गयी लेकिन उसका हिसाब किताब एकदम फिट रहता था. कडाके के ठण्ड में मैं और दीदी फटी एडियों को क्रैक क्रीम के बजाय कटोरी में मोम तेल की बत्ती बनाकर चीरों(विवाइयों) को डामना (भरना). सल्ला रुख से निकले छ्युल से सुबह सुबह चूल्हा जलाना और शाम को गोपत्योल व बांज की लकड़ियों से सगढ जलाना. बेशक तू शिकायत कर सकता है कि मैं भूल गई हूँ नहीं मेंरे मुंह में अभी भी भड्डू की दाल,कूण का भात,लोहे की भाद्याली का कापा, चुड़कानी और भांग की चटनी का निराला स्वाद सोचते ही उदेख लगने लगता है. एक बात तो कहना ही भूल गयी हाँ असोज में काम की असंता लगी रहती थी उसके बावजूद शाम की रामलीला में जाने का जोश. रामलीला के 11 दिनों में भी कुछ विशेष दिन सीता का स्वयम्बर,अंगद रावन संवाद,लक्षमण शक्ति,राजतिलक के लिए पिताजी से इजाजत लेने के लिए भूमिका बनाना. और पिताजी भी इस एवज में हमसे ज्यादे काम की अपेक्षा कर काम करवा लेना. मैं और दीदी शाम की ख़ुशी के चलते फट से निपटा देते थे. कोई थकान नहीं. आज मैं खोजने लगती हूँ महीने की संक्रान्ति के दिन चावल पीसकर देलीं में एपण बनाना और त्योहारों में सिंघल और बड़े. क्यों नहीं सीखा इजा से सिंघल बनाना. इजा के हाथ के तो तेरे जैसी जीवटता और मिठास थी. 

पहाड़ तू तो मेरा दगढ़िया ठैरा. अब तेरे को ना बोलूं तो किसे बोलूं घने जंगलों में लकड़ियाँ बीनना उन जंगलों में जंगली जानवरों का हमको देखा अनदेखी करना,टेढ़े-मेड़ें संकरों रास्तों से आसानी से पार कराकर घर में इजा का भद्याली में रखा हुआ चुड़कानी भात खाकर नौले में फोंला लेकर पानी भरने की हुड़क. अच्छा तुझे लग रहा रहा होगा ना ये तो गप लगा रही होगी. सच्ची बताऊँ आज भी मैं भिटोली का इन्तजार करती हूँ. घुघुतिया,उतरैणी को उसी तरह मनाती हूँ जैसा तेरे साथ मनाया करती थी बस एक अंतर आया आज मैं उसी रौ में काले कव्वा काले कव्वा नहीं कह पाती हूँ अडोस पड़ोस के साथ कॉम्पटीशन नहीं कर पाती हूँ. बच्चों को बताती हूँ तेरे साथ तो जब तक कौआ आकर हरे पत्ते में से कुछ उठा न ले तब तक पुकारते रहा करती थी. न जाने तूने कितनी परेशानियों को धैर्य से लड़ना सिखाया. कैसे भूल सकती हूँ तेरी जीवटता को. मेरे दगडी यार पहले प्यार की तरह तेरी आत्मीयता को भला मैं कैसे भूल सकती हूँ.

Tuesday, January 16, 2018

प्यार राजकुमार!


आज जो लिखने जो रही हूँ वो शायद कभी लिखा नहीं. सोचा भी नहीं. कुछ शरारती सा हो रहा है मन कि बड़े दिन बाद किसी पर दिल आया है. फ़िदा फ़िदा सा फील हो रहा है. बॉलीवुड के अभिनेताओं में सबसे पहले जिसको लेकर फ़िदा फ़िदा सा फील हुआ था वो थे शेखर कपूर. फ्रॉक वाले दिनों में 'उड़ान' धारावाहिक देखते हुए डीएम सीतापुर साहब अच्छे लगने लगे थे. आज भी लगते हैं. इसके बाद आमिर खान, अनिल कपूर से होते हुए राहुल बोस, नागेश कुकनूर, इरफ़ान, रणदीप हुड्डा (सिर्फ हाइवे फिल्म में) से चलते हुए बड़े दिन बाद मिला है कोई राजकुमार. राजकुमार राव इन दिनों नये शामिल हुए हैं पसंदीदा अभिनेताओं की लिस्ट में.

राजकुमार राव की जिस जिस फिल्म ने अलग से ध्यान खींचा था वो थी 'ट्रैप्ड'. गजब की अभिनय क्षमता. इसके बाद 'न्यूटन' ने दिल जीत लिया. 'अलीगढ' 'क्वीन' 'सिटी लाइट्स' 'हमारी अधूरी कहानी' का असर जो बैकग्राउंड में कहीं था  वो अब सामने आ गया. 'काई पो चे' का ख़ास असर नहीं हुआ था मुझ पर और 'शाहिद' अभी तक देखी नहीं है. 'ट्रैप्ड' जो मैंने हाल ही में देखी उसके बाद तो राजकुमार साहब राजकुमार हो गए. इसके बाद 'बरेली की बर्फी' में बन्दे की कलाकारी हीरो पर भारी पड़ी. किसी के फैन होने की यह इंतिहा ही होती होगी शायद कि ''मेरी शादी में जरूर आना' भी हॉल में देख आई. दिमाग फिल्म को लगातार कोसता रहा और दिल स्क्रीन पर अटका रहा. पहली बार किसी हीरो पर इस तरह फ़िदा हूँ...सुख में हूँ. जब तक कोई नया न आये राजकुमार साहब रहने वाले हैं...इरफ़ान तो हैं ही. मेरी दोस्त कहती है एक साथ कितनो की फैन हो सकती हो? मैं हंसकर कहती हूँ सबकी जगह सुरक्षित है. कोई किसी को डिस्टर्ब नहीं करता...हा हा हा...

(फीलिंग फनी)

Sunday, January 14, 2018

इच्छा और साम्थर्य की डोर पर लहराती पतंगे


नीले आसमान पर उड़ती फिरती हैं रंग-बिरंगी पतंगे कि मन बावरा हुआ जाता है, मन पतंग हुआ जाता है। आसमान छूने को बेकल पतंग। नील गगन में सजी-धजी इतराती लहराती पतंग।

जिस पतंग में मन बांधे देर से उसके लहराने में खुद को लहराते महसूस कर रही थी वो अचानक कट गई। गोल-गोल चक्कर खाती धरती पर गिर पड़ने की उदास यात्रा पर चल पड़ी वो। मन नहीं था कि आसमान चूमने की ख्वाहिश लिए जो सफर शुरू किया था वो इस तरह खत्म हो। सो नीम के एक पेड़ पर टंग गई। कई दिन टंगी रही। खुद को भरमाती रही कि कटी भले हो टूटी नहीं है, कोई उसे लूट ले ऐसा नहीं होने देगी वो। लड़कों का झुण्ड तमाम उपाय करता रहा कि उस तक पहुंच सके लेकिन वो किसी के हाथ न लगी।

पतंग कटने के साथ ही वो जो एक शोर उठा था उसमें नकारात्मक सुख था, काट देने का सुख। पतंग लूटने के लिए वो जो हुजूम दौड़ पड़ा था उसमें भी कोई छीन-झपट कर कटी हुई पतंग को हासिल करने का सुख था। जिसकी पतंग कटी उसमें पराजय का दुःख था जो प्रतिशोध में अबकी जिसने काटी थी पतंग उसकी पतंग को काटने का जुनून था और उसने एक नई पतंग को डोर पर चढ़ा दिया। डोर को ढील दी। पतंग फिर आसमान की ओर चल पड़ी। आसमान छूने नहीं, किसी की पराजय का बदला लेने। पतंग का मन कोई नहीं जानता, उसका दुःख कोई नहीं सुनता। कि वो डोर से आजाद होना चाहती है और आजाद होकर भी उड़ना चाहती है, वो हार जीत का खेल नहीं जीवन का उत्सव होना चाहती है।

बचपन में पतंग के खेल देखकर मन में इच्छा होती थी कि मैं काश पतंग होती, डोर पर सवार होकर बादलों के गांव की सैर करती। काश मैं चिड़िया होती, उड़ती फिरती आसमान में। यह उड़ान की ख्वाहिश बड़े होने के साथ-साथ सवालों में बदलने लगी कि किसी और के हाथ में डोर होने का अर्थ समझ में आने लगा। कटने और काटने का खेल समझ में आना लगा। कटते ही धड़ाम से नीचे आ गिरने का दर्द समझ में आने लगा। तो एक रोज सारी डोर काट दीं और हाथों को पंखों की तरह फैलाया, उड़ने की इच्छा में सारी ताकत भर दी और महसूस किया कि सचमुच मैं उड़ रही हूं। मैंने पाया कि इस उड़ान में अकेली नहीं हूं। क्योंकि अपने मन की डोर पर चढ़कर दुनिया भर की स्त्रियां कामनाओं के आकाश पर उड़ती फिर रही हैं। जो इस तरह नहीं उड़ सकीं वो इस नई पीढ़ी की उड़ान पर मुग्ध हो रही हैं।

ये जो डोर का खेल है न, यह सदियों पुराना है। सबको अपनी-अपनी डोर की फिक्र है। डोर की मजबूती की फिक्र है। उसकी मजबूती को किये जाते हैं तरह-तरह के उपाय कि कहीं कोई कसर न रह जाए। यह खेल कुछ इस तरह रचा गया कि स़्ित्रयों को खुद को डोर के सुपुर्द करने में आनंद आने लगा। या कहंे कि यही उनके जीवन का आनंद है यह उनके मन में पैदा होते ही भर दिया गया जिसे वो जीने लगीं। उत्सव किसी और के होते सजा-संवार कर डोर पर उन्हें चढ़ाया जाता। वो चढ़ भी जातीं इस बात से अनजान कि असल में उनके हाथ में कुछ भी नहीं। यह सजना-संवरना भी उनका नहीं, किसी और के मान का, प्रतिष्ठा द्योतक है। कि आजाद होना चाहें अगर वो गहनों के बोझ से तो परिवार की प्रतिष्ठा पर बन आती है, फलाने की बहू के गले में सोने की जंजीर तक नहीं। जंजीर, यानी चेन कितने मन से धारण करती हैं हम स्त्रियां, भला जंजीरों में कैद इच्छाओं को कैसे मिलेगा खुला आसमान और अपनी उड़ान। कि वो पतंगबाजी के खेल में बस डोर पर चढ़ाई और कट जाने पर दूसरी को चढ़ाये जाने के लिए ही तैयार की जाती हैं।

लेकिन अब यह खेल बदल चुका है। पंतगों से भरा आसमान अब दुपट्टों से भरा आसमान है। यह अब मुक्त कामनाओं से लहलहाता आसमान है। बहुत सारे ख्वाब इस आसमान पर लहरा रहे हैं। रंग-बिरंगे ख्वाब। इस छोर से उस छोर तक ये ख्वाब बिंदास उड़ते फिर रहे हैं। मानचित्र पर दर्ज सीमा रेखाओं से इन्हें कोई लेना-देना नहीं। एक हिंदुस्तानी ख्वाब तुर्की के ख्वाब से गले मिलते हुए कहता है, अरे हम तो एक जैसे हैं।

कोई सौ बरस पहले रूस के महान दार्शनिक, साहित्यकार निकोलाई के उपन्यास व्हाट इज टु बि डन की नायिका वेरा की आंखों में भी कुछ ख्वाब थे। ये वही ख्वाब मालूम होते हैं जो दरअसल अब हकीकत भी हैं।

ख्वाब और हकीकत के बीच बस जरा सा फासला होता है, इच्छाशक्ति भर का। और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की वो लाइनें कि सामथ्र्य सिर्फ इच्छा का नाम है एकदम सच मालूम होता है। बस चैकन्ना रहना है इतना कि हमारी आंखों में हमारे ही ख्वाब हों, खालिस हमारे ही। क्योंकि हम स्त्रियां बरसों से किसी और के ख्वाबों को अपना मानकर, किसी और के सुख को अपना मानकर, किसी और की जीत को, हार को अपना मानकर जिए जा रही हैं लेकिन वो जिसके ख्वाब, सुख, हार, जीत, इच्छाओं को हमने कभी धर्म, कभी रीति-रिवाज, कभी उत्सवधर्मिता के नाम पर ओढ़ा हुआ है क्या उन्होंनेे कभी हमारी इच्छाओं का मान किया। उन इच्छाओं का जो उनकी बोई हुई इच्छाओं से इतर थीं। क्या हमारे सुख उनके सुख हुए, क्या हमारी इच्छाओं को उन्होंने वैसे ही माथे से लगाया?

अगर लगाया होता तो क्यों होतीं भ्रूण हत्याएं, क्यों स्त्रियों को अपनी मर्जी से पढ़ने, जीवन साथी चुनने, खाने, पहनने, बोलने, चलने पर इतना हड़कम्प मचता है। क्यों होती हैं आॅनर किलिंग जैसी घटनाएं? उनकी इच्छा आपके सम्मान की हत्या क्यों होती भला?

यह बात पहले हम स्त्रियों को समझनी होगी कि यह जो हम हैं, क्या हम ही हैं सचमुच। यह उत्सव हमारे होने का उत्सव है क्या कि हम किसी के उत्सव का सामान भर हैं, सजी-धजी कठपुतलियों जैसे।

बहुत सारी स्त्रियों ने अपनी डोर को काट दिया है, उनकी उड़ान पर जमाना मुग्ध भी है और बौखलाया भी। वो अपने घर की स्त्रियों की डोर अब और मजबूत करना चाहते हैं। विश्वास दिलाते हैं तुम जितना उड़ना चाहो उड़ो, तुम्हें पूरी आजादी दूंगा, चिंता मत करो। लेकिन इसमें यह भाव भी निहित है कि डोर तो मेरे ही हाथ में रहेगी। कभी पिता, कभी भाई, कभी पति, कभी प्रेमी, कभी पुत्र हमारी डोर के वाहक। डोर से मुक्त होने का अर्थ किसी के विरोध में जाने, किसी के खिलाफ जंग छेड़ने का ऐलान नहीं है लेकिन डरी हुई सत्ताएं इसे इसी रूप में देखती भी हैं और प्रचारित भी करती हैं। भला बताइये, कोई अपनी मर्जी से सांस लेना चाहता है बिना आपकी परमीशन के इसमें विरोध क्या हुआ, इसमें जंग कहां से छिड़ गई?

अब स्त्रियों ने सदियों से सत्तासीन लोगों की असुरक्षा को भांप लिया है। यह डर और कुछ नहीं सत्ता खोने का डर है। जबकि स्त्रियों का इरादा सत्ता पाने का नहीं सत्ताविहीन धरती सजाने का है। कि मालिक के पदों को मिलकर ध्वस्त करो और साथी बनो। डोर सारी कट जाएं लेकिन उड़ान न कटे, न टूटे। तुम भी उड़ो जी भर के, हम भी उड़ें...यह आसमान हमारे साथ होने की खुशबू और रंगों से भर दें....

- प्रतिभा कटियार

(डेली न्यूज़ में प्रकाशित http://epaper.dailynews360.com/1499400/khushboo/10-01-2018#page/1/3)

Thursday, January 11, 2018

Pratibha katiyar in Doon Literature Festival 2016 Part 2

दून लिटरेचर फेस्टिवल 2016 में 'हिन्दी कविताः चेतना और पक्षधरता सत्र' में दिया गया वक्तव्य...



Pratibha katiyar in Doon Literature Festival 2016

दून लिटरेचर फेस्टिवल 2016 में 'हिन्दी कविताः चेतना और पक्षधरता' सत्र में दिया गया वक्तव्य...





Tuesday, January 9, 2018

कपूर की तरह उड़ जाना चाहती हूँ


न शोर, न उदासी कोई
बस एक खुशबू घुल जाए फिजाओं में
उस रोज धरती पर हर दिन से ज्यादा खिलें फूल
बच्चों की शरारतों में घुलें ताजा रंग

आसमान धरती का हाथ थामने को आये तनिक और करीब
लहरों के संगीत से आच्छादित हो उठे धरती
और महफूज हो जाएँ प्रेमियों के ठिकाने
जब हो मेरी अंतिम विदा का वक़्त

कि मैं देह के अंतिम संस्कारों से घबराती हूँ
इसलिए कपूर की तरह उड़ जाना चाहती हूँ
मेरी देह की तलाश पूरी हो रजनीगंधा के खेतों में,
बच्चों की खिलखिलाहटों में
बुलबुल के जोड़े की शरारतों में

कोई माला न हो तस्वीर पर नकली भी नहीं
कि मैं तुम्हारी यादों में हमेशा जिन्दा रहना चाहती हूँ

Saturday, January 6, 2018

‘एक फोटो तो खिंचवा लो हमारे साथ.’- नीरज



एक-

एक नन्ही सी लड़की चुपचाप अपनी फ्रॉक के किनारी पर लगी फ्रिल को कुतरा करती थी. वो खामोश रहती थी. उसके कोई दोस्त नहीं थे. स्कूल में अपने हम उम्र बच्चों के बीच भी वो अकेली ही थी. क्लास में बैठकर क्लास के बाहर ताका करती और घंटी बजने का इंतजार करती. घन्टी बजते ही सब बच्चे खेल के मैदान की ओर दौड़ जाते और वो धीमे क़दमों से मैदान के किसी कोने में अकेले टिफिन खाती और अकेली घूमती रहती. वो टीचर्स की फेवरेट नहीं थी. घर में उससे यह पूछने वाला कोई नहीं था कि ड्रेस चेंज की या नहीं, खाना खाया या नहीं. ऐसे में भला ये कौन पूछता कि स्कूल में दिन कैसा रहा? क्योंकि उसके माँ बाप जीवन के दूसरे संघर्षों में उलझे थे. उस कक्षा एक में पढ़ने वाली नन्ही लड़की का अकेलापन भांप लिया एक शिक्षक ने जिनका नाम था गोपी सर.

गोपी सर भी शायद स्कूल में, या हो सकता है जीवन में ही उस नन्ही बच्ची की तरह अकेले थे. उन्होंने स्कूल के वार्षिकोत्सव के लिए उस नन्ही बच्ची के तरह अकेले और उपेक्षित रह गए बच्चों की ओर हाथ बढ़ाया. ये वो बच्चे थे जिन्हें स्कूल के किसी कार्यक्रम में जगह नहीं मिलती थी, ये सिर्फ भीड़ का हिस्सा बनते और ताली बजाते. गोपी सर ने उन सारे छूट गए उपेक्षित बच्चों का हाथ थामा और उनके लिए एक कार्यक्रम की योजना बनाई. कार्यक्रम तैयार हुआ ‘कवि सम्मेलन का’. कक्षा एक में पढ़ने वाले छोटे-छोटे बच्चों को सुंदर-सुंदर कविताओं की कुछ छोटी-छोटी लाइने दी गयीं. उन्हें बाकायदा ड्रेसअप किया गया. अब वो बच्चे भी उत्साहित थे. उन बच्चों ने पहली बार मंच पर उन कवियों की कवितायेँ पढ़ीं जिनका शायद नाम भी नहीं सुना था. जिन्हें कविता होती क्या है यह भी पता नहीं था.

ये 32 बरस पुरानी बात है. वो ‘इंडियन आइडियल’ और ‘सुपर डांसर’ जैसे कार्यक्रमों का समय नहीं था. उन बच्चों के जीवन में यह छोटी सी प्रतिभागिता बहुत महत्वपूर्ण थी. गोपी सर ने उस रोज न सिर्फ उन बच्चों का हाथ थामा था बल्कि उनकी जिन्दगी में हमेशा के लिए कविता का एक बीज बो दिया था. वो नन्ही सी लड़की मैं थी. उस रात मैंने जिस कवि की कविता पढ़ी थी उनका नाम है गोपालदास नीरज. यह मेरे जीवन में कविता की पहली आहट थी. वो लाइनें टूटी फूटी सी ही याद रहीं,

‘कोई कैसे जिए अब चमन के लिए, शूल भी तो नहीं हैं चुभन के लिए’.

दो-
जब मैंने हाईस्कूल पास कर लिया तब पापा टेपरिकॉर्डर लाये थे. घर में बेलटेक का ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था, फिलिप्स का रेडियो भी था जिसका इस्तेमाल ‘बीबीसी की ख़बरें’ या ‘बिनाका गीतमाला’ और ‘हवा महल’ सुनने के लिए होता था, कभी-कभी ‘फौजी भाइयों के लिए कार्यक्रम’ भी. कब कौन सा कार्यक्रम रेडियो पर सुना जायेगा यह तय करने का हक बच्चों का नहीं होता था. ऐसे में टेप रिकॉर्डर आना सुखद घटना थी. चूंकि टेप रिकॉर्डर पापा लाये थे तो जाहिर है अपनी ही पसंद की चार कैसेट भी लाये थे. महीनों वो चार कैसेट ही मेरी खुराक बने रहे. उन चारों कैसेटों में से जिनमें एक थी ‘लता के सुपरहिट गीत’, दूसरी थी ‘मेरा नाम जोकर’, तीसरी थी ‘मुकेश के गीत’ और चौथी थी ‘नई उमर की नई फसल.’ मैंने पहली बार इस फिल्म का नाम सुना था. धीरे धीरे यह कैसेट मेरी फेवरेट हो गयी. ‘कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे’ तो मुझे अच्छा लगता ही था इस कैसेट का एक और गीत मुझे बेहद पसंद था, आज भी बहुत पसंद है ‘आज की रात बहुत शोख बहुत नटखट है, आज तो तेरे बिना नींद नहीं आएगी, अब तो तेरे ही यहाँ आने का ये मौसम है, अब तबियत न ख्यालों से बहल पाएगी…’ इस तरह कोई कैसेट जो मेरी प्रिय कैसेट के रूप में और कोई कवि या गीतकार मेरी फेवरेट लिस्ट में पहली बार शामिल हुआ वो थे गोपालदास नीरज.

पत्रकारिता के दिनों की मेरे सबसे गाढ़ी कमाई यही है कि इस दौरान ढेर सारे प्यारे लोगों से मुलाकातें हुईं, उनसे स्नेह हासिल हुआ, दुलार मिला. इसी गाढ़ी कमाई में शामिल है गोपालदास नीरज का नाम भी.

अब तक मैं उन्हें काफी पढ़ चुकी थी. उनसे मेरी पहली मुलाकात थी. अख़बारों में जिस तरह की अफरा-तफरी के माहौल में काम होता है उसमें महसूस करने की स्पेस बहुत कम होती है. उनका इंटरव्यू लेना एक असाइनमेंट भर था. यह उन दिनों की बात है जब मेरी नयी-नयी शादी हुई थी और जैसा कि नयी शादी के बाद का तमाशा होता है पार्टीबाजी, सोशलाइज़िंग वगैरह तो उसका दबाव भी था. तो मुझे ऑफिस से रात नौ बजे निकलकर इंटरव्यू लेना था और साढ़े नौ बजे साड़ी पहनकर किसी पार्टी में जाना था (तब तक ‘न’ कहना सीखा नहीं था).

बहरहाल, जल्दी-जल्दी में इंटरव्यू हुआ और अच्छा हुआ. अगले दिन हिंदुस्तान अख़बार में ‘नीरज खड़े प्रेम के गाँव’ शीर्षक से प्रकाशित भी हुआ. मैंने साड़ी लपेटकर, लिपस्टिक पोतकर पार्टी भी अटेंड की लेकिन मन उखड़ा ही रहा. मुझे लगा मैं मिली ही नहीं नीरज जी से, इसे क्या मुलाकात कहते हैं, इसे क्या बात होना कहते हैं. स्टोरी भले ही सफल रही हो लेकिन मन खिन्न ही रहा लम्बे समय तक. हालाँकि इस इंटरव्यू में उन्होंने अपनी प्रेम कहानी सुनाई थी, बहुत मन से.

खैर, वक़्त ने न्याय किया. इसके बाद मेरी नीरज जी से कई मुलाकातें हुईं. कुछ अख़बारों में दर्ज हुईं कुछ नहीं भी क्योंकि अब तक मेरी उनसे दोस्ती हो चुकी थी. वो शहर में होते तो हम जरूर मिलते. ढेर सारी बातें करते. मैं उन्हें सुनती ज्यादा, सवाल कम करती. पूछकर जानना मुझे सूचनात्मक ही लगता है, महसूसने की आंच में पकते हुए यात्रा करना असल में जानने की ओर जानना लगा हमेशा सो कोशिश भर यही किया, और असाइनमेंट के बोनस में खूबसूरत दोस्तियाँ और स्नेह हासिल किया.

एक शाम जब वो मंच पर थे तो मुशायरे की स्तरहीनता से मेरा मन बहुत उदास हुआ था. उस शाम नीरज जी ने याद किये थे वो तमाम मुशायरे जब मंच पर साहिर, शैलेन्द्र, कैफ़ी वगैरह हुआ करते थे. वो उन सोने सी दमकती रातों का जिक्र करते हुए बहुत खुश थे, उनकी आँखों में चमक थी. उन्होंने गीतों की यात्रा पर बात की. किसी बात के अर्थ किस तरह खुलते हैं, गीत किस तरह दार्शनिक यात्रा तय करते हैं और सुनने वालों को न सिर्फ सुकून देते हैं बल्कि उनका परिमार्जन भी करते हैं, एक अलग यात्रा पर ले जाते हैं यह लिखने वालों और सुनने वालों दोनों को समझने की जरूरत है. साहिर और शैलेन्द्र को वो काफी याद करते.

मैंने उनसे एक मुलाकात में जिक्र किया अपने बचपन वाले कवि सम्मेलन का और उनकी उस कविता भी जो मुझे ठीक से याद भी नहीं रही…वो हंस दिए थे उस बचकाने से किस्से पर. उन्हें भी कविता याद नहीं थी. वो हमेशा खूब पढ़ने को कहते, जिन्दगी जीने को कहते. उनकी कविताओं को उनके कमरे में चाय पीते हुए सुनना किसी ख़्वाब को जी लेने जैसा होता था…उनका कविता पढ़ने का ढंग मुझे बहुत म्यूजिकल लगता. हालाँकि उनकी आवाज कांपने लगी थी. लखनऊ में चारबाग के पास के एक होटल में उनसे अब तक की आखिरी मुलाकात हुई थी, उस रोज उन्हें चलने में काफी दिक्कत हो रही थी. मेरा मन बहुत उदास था. आयोजकों ने उनके सम्मान के साथ इन्साफ नहीं किया था. उनके रहने की व्यवस्था बहुत सामान्य थी. जबकि उसी कार्यक्रम के लिए आये प्रसून जोशी सरीखे लोगों के लिए दिव्य व्यवस्था थी.

हम बुजुर्गों के सम्मान का भाषण देना जानते हैं, उनके नाम उनकी शोहरत को कैश कराना भी जानते हैं लेकिन उनके साथ इन्साफ नहीं करते. सचमुच मेरा मन बहुत उखड़ा था, वो शायद मेरा मन पढ़ चुके थे. बीड़ी पी चुकने के बाद उन्होंने मेरा मन हल्का करने को कहा ‘एक फोटो तो खिंचवा लो हमारे साथ.’ मैंने छलक आये अपने आंसुओं को सहेजते हुए कहा था, ‘अरे आपसे तो मिलना होता ही रहता है, अभी आप आराम करिए, फोटो फिर कभी खिंचवा लेंगे.’ वो हंस दिए थे…’क्या पता अगली बार हो ही नहीं’. मेरी आंसुओं को सहेजने की सारी मेहनत वो बेकार कर चुके थे…तस्वीर खींची जा चुकी थी…मन की उदासी कायम ही रही…आज उनका जन्मदिन है…उन्हें बहुत बहुत याद करते हुए उनके स्वास्थ्य लाभ की दुआ कर रही हूँ. दुआ कर रही हूँ कि सेल्फियों और फेसबुक के लाइक्स की भीड़ में बदलता यह समाज, तमाम सामाजिक खांचों में बंटा समाज, हिंसा और आत्ममुग्धता से तृप्त होता समाज, नकली संवेदनाओं का नया मार्केट बनता यह समाज अपनी इतनी महत्वपूर्ण धरोहरों को सहेजना सीख सके…काश!

प्यारे नीरज जी, आप जल्दी से ठीक हो जाइए, आपसे मिलना है जल्दी ही फिर से और सुननी हैं बहुत सी कवितायेँ…इस बार आपकी बीड़ी भी पियूंगी…पक्का. लव यू ऑलवेज, हैपी बर्थडे!

- प्रतिभा कटियार