Wednesday, December 27, 2017

सिर्फ एक उदास शाम है..


शोर जितना घना होता है, ख़ामोशी उतनी ही सघन होती जाती है. इस ख़ामोशी में कोई अवसाद घुलता जाता है. उतरते सूरज की रंगत नीबू वाली चाय में घुलकर जीवन के खट्टेपन सी मालूम होती है. जब बाहर बहुत कुछ घट रहा होता है तब भीतर कितना कुछ ठहर जाता है. बहुत सारा घटा हुआ आसपास जमा होता जा रहा है. ढेर बढ़ता जा रहा है. कोई आये और सहेज दे ऐसी इच्छा होती है, कौन भला सहेजता है कुछ भी, अलबत्ता बिखेरने वाले जरूर होते हैं. उन बिखेरने वालों को सहेजने का काम भी बढ़ता जाता है.

सब भागता जा रहा है, बहुत तेज़ी से. उस तेज़ी की लय में मेरी भी कोई गति है शायद हालाँकि मैं कहीं ठहरी ही हुई हूँ. मुस्कुराहटों के ढेर के भीतर बमुश्किल अपनी उदासी को सहेजते हुए. वो उदासी मुझे प्रिय है, उसमें कोई बनावट नहीं, वो दिल के करीब है. ये गति मेरी जानी पहचानी नहीं, ये शोर अजनबी सा लगता है.

लम्हे उलझे हुए हैं, सुलझाने का वक़्त नहीं. वक़्त कहीं गुम गया लगता है. मैं भी कहीं गुम गयी हूँ शायद. वो जो भागती फिरती है सर्रर्र से वो कोई और है, वो जो मुस्कुराती है, खिलखिलाती है वो कोई और है, मैं उसे नहीं जानती, मैं शोर के दूसरे सिरे पर खड़ी उदासी को जानती हूँ.

अपने चेहरे में खुद को तलाशती हूँ, अपनी आवाज में अपनी आवाज को, अपने होने में अपने होने को. सब गड्डमगड्ड है. सिर्फ एक उदास शाम है जो बीतते शरद की टहनी से बस किसी भी वक़्त झरने को है कि वो शाम जो चौथ के चाँद से आँख लगाये बैठी है...

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

एक उदास शाम भी जरूरी है अगली शाम के इन्तजार के लिये । सुन्दर।