जब मैं तुम्हें पुकारती हूँ तो
पल भर को थम जाती है धरती की परिक्रमा
बुलबुल का जोड़ा मुड़कर देखता है
टुकुर टुकर
लीची के पेड़ के पत्तों पर से टपकती बूँदें
थम जाती हैं कुछ देर को
जैसे थम जाती हैं मुलाकात के वक़्त
प्रेमियों की साँसे
जब मैं तुम्हें पुकारती हूँ तो
नदियों की कलकल में एक वेग आ जाता है
जंगलों के जुगनुओं की आँखें चमक उठती हैं
सड़क के मुहाने पर फल बेचने वाली बूढी काकी
सहेजती हैं फलों की नमी
जब मैं तुम्हें पुकारती हूँ तो
बढ़ जाती हैं बच्चों की शरारतें
गिलहरियों की उछलकूद
ज्यादा गाढे हो जाते हैं फूलों के रंग
और मीठी लगने लगती है बिना चीनी वाली चाय
जब मैं तुम्हें पुकारती हूँ
चरवाहे के गीत गूंजने लगते हैं फिजाओं में
शहर की टूटी सड़कें भी गुनगुना उठती हैं
प्यार में टूटे दिलों की धडकनों को
मिलता है कुछ पलों को आराम
जब मैं तुम्हें पुकारती हूँ
होंठों से नहीं निकलता कोई भी शब्द
फिर भी सुनती है
पूरी कायनात...
5 comments:
सुन्दर
http://bulletinofblog.blogspot.in/2017/11/blog-post_13.html
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बहुत सुन्दर .
बहुत लाजवाब रचना ...
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