Friday, April 24, 2015

आई डोंट एक्ससिस्ट स्टिल...


कभी लगता है कि घर के आईने में जो रहता है वो कोई और ही है. देह में जो सांस है जाने किसकी है. गले में नाम की एक तख्ती लटकी थी जिससे कोई मुझे पुकारता था वो तख्ती खो दी मैंने। लापरवाह जो बहुत हूँ, सब खो देती हूँ, दिन भी रात भी, सुबह भी नदी भी, ओस भी सब खो देती हूँ मैं. अब कोई मानता नहीं है मेरे होने को. आइना भी नही.

मैं अपने चेहरे पर अपनी उँगलियाँ फिराती हूँ. मैं ही तो हूँ. फिर कोई मानता क्यों नही. मैं अदालतों के चक्कर काट रही हूँ बरसों से. दुनिया की अदालतों के, रिश्तों की अदालतों के.…थककर जीवन की देहरी पे लुढ़क जाने का जी चाहता है कि अब चला नहीं जाता।

हर बार अपने होने के सुबूत कहाँ से जुटाऊँ मैं, कहाँ से लाऊँ चेहरे को रंगने वाली रंग रोगन से दमकती मुस्कुराहटें। मैंने अपने होने के सारे प्रमाणपत्र खो दिए हैं. सिर्फ सांस नहीं खोयी। यूँ इसके इस तरह खोने से बचे रहना का श्रेय मुझे नहीं जाता। ये कमबख्त यूँ ही चिपकी हुई है.

बार बार अपना ही नंबर डायल करती हूँ जो एक्सिस्ट नहीं करता। क्या मैं एक्ससिस्ट करती हूँ. सचमुच।

नन्हे क़दम दूर जाते हुए लगातार बड़े होते जा रहे हैं.… लगातार। जो फूल लगाये थे वो खूब खिल रहे हैं बस मेरे हाथ नहीं पहुँच पाते उन फूलों तक.

न पहचाने मुझे आइना, नहीं देने मुझे दुनिया की किसी अदालत में अपने होने के सुबूत। उन फूलों की खुशबू में मेरी भी खुशबू है… ये बात वो भी जानते हैं मैं भी....
(खामखाँ)

Tuesday, April 21, 2015

ऊपरवाले...आपसे जरा बात करनी है...


जिंदगी और मौत के बीच बस एक कदम का फासला है. बस एक कदम. एक लम्हा। उस एक ही कदम, एक ही लम्हे में पूरी उम्र रखी है, 19 बरस या 90 बरस. आत्महत्या देह की हत्या है, प्रतिशोध है समाज से, चीत्कार है भीतर भरे शोर का या मौन का. एक ही देह में कितनी मौतें कैद हैं कितनी जिंदगियां।

कोई एक लम्हा आता है और जिंदगी की गिरह खोल देता है, जिंदगी भक्कक से खुल पड़ती है, बिखर जाती है, संभाले नहीं सम्भलती. बूढी दादी डांटती है की नेक हौले हौले हंस छोरी और छोरी....वो तो और जोर से ठठाकर हंस पड़ती है. आसमान सुनता है उसकी हंसी, धरती सहेजती है उसकी खिलखिलाहटों के बीज, फूल बनकर उगती है वो हंसी, नदियों के अमृत में उतरती है वो पवित्र हंसी, जिंदगी की हंसी।

लेकिन कोई लम्हा ऐसा भी आता है कि मुस्कुराहटें सहम जाती हैं, दूर लौट जाती हैं होंठो की ड्योढ़ी से। कोई बात कोई मनुहार उसे मना नहीं पाती। उसी जिन्दा देह में कोई मर जाता है. वो हमसे बात करता रहता है, शाम की चाय साथ पीकर वापस घर लौट जाता है, राजनैतिक चर्चा करता है, ऑफिस वक़्त पे पहुंचता है लेकिन हम जान ही नहीं पाते कि अभी-अभी जो व्यक्ति उठकर गया है पास से वो तो कबका मर चुका है.

ये मानना कितना मुश्किल है कि वो जो सुबह चाय में चीनी कम होने की शिकायत करके गया कितने दिन हुए उसे मरे हुए.… मरना आसान नहीं, जीना भी नहीं। किसी का असमय जाना पूरे समाज पर तमाचा है, हम सब जिम्मेदार हैं असामयिक आत्महत्याओं के. देह जो आसपास सांस लेती रहती है, खिलखिलाती रहती है, कवितायेँ लिखती रहती है, सिनेमा देखती है, पॉपकार्न खाती है, चुहलबाज़ी करती रहती है लेकिन वो हमें पुकारती भी है, उनकी आँखों के समंदर आवाज देते हैं, हम सुन ही नहीं पाते।

जीते जी सहेज न पाना और किसी के मर जाने पर करुण विलाप एक किस्म की अश्लीलता सी लगते हैं मुझे। हम गुनहगार हैं.… अंशु तुम्हें सुन न पाने के, तुम्हारी हथेलियों को अपनी हथेलियों में कसकर दबा न लेने के. हम गुनहगार हैं.…सचमुच।

हालाँकि कुछ ही रोज़ पहले देह में घिसटती सांसों की मुक्ति को राहत होते भी महसूस किया है फिर भी कहती हूँ की जिंदगियां बचायी ही जानी चाहिए, शायद गलत कह रही हूँ मैं. जिंदगी नहीं जिंदगी जीने की इच्छा को बचाया जाना चाहिए, सपने, हिम्मत, हौसला बचाया जाना चाहिए, जिंदगी में आस्था बचायी जानी चाहिए.... क्योंकि देह भर नहीं होती जिंदगी।

कौन कहता है कि जिंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ में है , अगर सचमुच ऐसा है तो ऊपरवाले को बहुत सारी मौतों का जवाब देना होगा, बहुत सारी जिंदगियों का भी.… आइये ऊपरवाले साहब, आपसे जरा बात करनी है.

Sunday, April 19, 2015

हमेशा देर कर देता हूं मैं...


हमेशा देर कर देता हूं मैं हर काम करने में
ज़रूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं...

मदद करनी हो उस की यार की ढाढस बंधाना हो
बहुत ही दूर रस्तों पर किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं...

किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीकत और थी कुछ उस को जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं...

- मुनीर नियाज़ी 

Thursday, April 16, 2015

जिंदगी तुझको बड़ी देर से जाना मैंने...


सुफैद फूलों की कतारें थीं...दूर तक. बहुत दूर तक. रात की वीरानी...सफेद फूलों की कतारों के संग संगीत सा रच रही थी. मृत्यु का कोमल संगीत...जिसके गले में कोई हिचकी कोई सिसकी अटकी हुई हो...और मृत्यु का उत्सव मुस्कुराहट बन सजा हो होठोें पर। किसी नर्मदा, बेतवा, झेलम किसी चिनाब को आंखों से छलकने की आजादी नहीं...

सुुफैद फूलों की कतारों के बीच-बीच में स्मृतियों के दिये जल रहे थे, दिये की लौ में मुस्कुराता चेहरा...ओह....मृत्यु. शुक्रिया कि तुमने दर्द का एक सिलसिला खत्म किया। मर्सी किलिंग सिर्फ बहस का ही मुद्दा है न्यायालयों के लिए, और आत्महत्या गुनाह ही। मृत्यु इन सबसे आजाद है। वही जिंदगी की तमाम गिरहों को खोलने में समर्थ है।

लड़की स्मृतियों के दियों में लगातार तेल डालती जाती, बाती बढ़ाती जाती। हवाओं को उसने अपनी लटों में बांध रखा था। हवा का कोई टुकड़ा दियो को बुझा नहीं सकता था। सुफैद फूलों की उन कतारों में सुफैद दुपट्टा लहराती लड़की कोई उड़ता हुआ ख्वाब सा मालूम होती थी। 

मरना सिर्फ देह भर नहीं होता...लड़की जानती है। एक घायल जिस्म को ढोते-ढोते भी कभी कोई थक ही जाता है। जब जज्बातों का, अहसासों का ईंधन ही न बचा हो तो बचाने को रह भी क्या जाता है। मृत्यु की कामना अपराध मालूम होती है लेकिन नहीं भी। जिस्म हो या रिश्ते जब बोझ बनकर ढोये जाने लगें,उनसे सलीके से विलग होना जीवन का सौन्दर्य बनाये रखता है। 

दुःख होना अलग बात है और शोक होना अलग। लड़की उसके जीते जी शोक में थी अब दुःख में है। दुःख में एक राहत भी घुली है...अब उसे रोज जख्मों पर मरहम नहीं लगाना होगा, अब टूटी चटखी लगभग घिसटती उम्मीदों को सहेजने की कोशिश में खुद को खपा नहीं देना होगा, अब नहीं सुनने होंगे सांत्वना के वो खंजर से चुभते शब्द कि 'सब ठीक हो जायेगा एक दिन'...जबकि जानता हर कोई है कि कुछ चीजें कभी ठीक नहीं होतीें...अब उसे रोज खुद को जवाब नहीं देना होगा कि 'क्या अब उसे प्यार नहीं रहा। '

जिंदा रहना जरूरी है...लेकिन यह देखना भी जरूरी है कि जीवन जीने लायक बचा भी है या नहीं। सड़ता, गिजगिजाता , पीड़ा व संत्रास से भरा जीवन....जीते जाना जैसे कोई सजा...

सुबह की अज़ान का वक्त हुआ, लड़की की थकी हुई आंखों में नींद का एक टुकड़ा जो आ टिका था वो खुद को झाड़कर खड़ा हो गया। लड़की ने चौंककर देखा. दिये अब पलकें झपकाने लगे थे। फूलों को भी नींद आने लगी थी। सूरज कहीं आसपास ही था शायद।

उसने किचन में जाकर चाय का पानी चढ़ा दिया...एक कप चाय...बिना इलायची की अदरक वाली चाय, कम चीनी कम दूध वाली जैसी उसे खुद को पसंद है...

सुबह की पहली किरन के साथ ही उसने रात भर जागे दियों को समेट दिया...सुफैद फूलों को कहा सो जाओ...वो देर तक नहाई...कमरे में मेंहदी हसन की आवाज को धूपबत्ती की तरह जलाया...मनपसंद सैंडविच बनाये...वार्डरोब खंगाली और पहनी अपनी पसंद की असमानी साड़ी....घर से निकली तो चेहरे पर सुकून था, खूब रोने के बाद की ताजगी चेहरे पर, जैसे लगातार टीसते जख्म से निजात का सुख...

'कैसी लड़की है...अभी इसके घर में मौत हुई है...और इसके लक्षण तो देखो...' लड़की कान में मोतियों वाले बुंदे पहनते हुए सुनती है...मुस्कुराती है...

जिंदगी तुझको बड़ी देर से जाना मैंने...वो बुदबुदाती है।

उसकी स्कूटी स्टार्ट होती है...और वो ज्यययूूूंयूं से निकल जाती है...'गली-गली तेरी याद बिछी है, प्यारे रस्ता देख के चल...' एफ एम के जरिये उसके कानों गूंजती है मंेंहदी हसन की आवाज, वो स्कूटी रोककर दूसरा एफ एम चैनल को लगाती है...रास्ता अब भी वही था...

Sunday, April 12, 2015

अंडमान यात्राः मैं इश्क़न इश्क़न हो गयी


यूँ तो हर यात्रा जेहनी मरम्मत का काम करती है। लेकिन कुछ यात्राएं हमारा प्रस्थान बिंदु भी होती हैं। हमें क्षुद्रतम से उठाकर उच्चतम तक कभी-कभी अन्यतम तक लेकर जाती हैं। मोह, माया, विलास, कामनाओं से मुक्त कराती हैं। ऐंद्रिक अनुभूतियों से भर देती हैं। समूची यात्रा किसी इबादत की तरह मालूम होती है। प्रकृति के अलौकिक मंजर के आगे हमारा व्यक्तित्व सजदे में झुक जाता है और सजदे से उठते वक्त छूट जाते हैं तमाम विकार। अंडमान की यात्रा ऐसी ही एक यात्रा है....

सांसों का रीचार्ज-
सांसों का रीचार्ज कराया है कभी? यात्राएं सांसों का रीचार्ज होती हैं...जिंदगी का टाॅपअप. पता भी नहीं चलता कि कब सांस लेते-लेते हम जीना भूलने लगे. ऐसे ही एक रोज थकी हुई सांसों से उकताकर फिर से जूते के फीते कसे, पीठ पर एक छोटा सा बैग लिया और खुद को रख दिया अंडमान निकोबार के रास्तों पर। कैसी तो बारिश थी उस रोज, मानो न जाने देने का इसरार घुला हो उसमें। बारिशों से दोस्ती है अपनी। बारिश की बूंदों को हथेलियों में थामते हुए कहती हूं कि तेरे ही देश जा रही हूं। समंदर के गांव में...नारियल के पेड़ों की छांव में। इस बार जिन रास्तों को चुना था वहां सड़कों की

सीमाएं खत्म हो जाती हैं। पोर्ट ब्लेयर जाने के लिए या तो हवाई जहाज या पानी के जहाज से ही जाया जा सकता है। धरती के छोरों से कटे इस द्वीप पर पहुंचने की इच्छा में यह जानने की इच्छा भी शामिल थी कैसा होगा वो कोना जहां रेल या बस की यात्रा से पहुंचा ही नहीं जा सकता। 556 द्वीपों व पत्थर की चट्टानों वाला वाला अंडमान निकोबार अपने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व भौगोलिक संपदा के चलते काफी महत्वपूर्ण है। सुना था कि अब तक इस जगह को हम मनुष्यों की आमद से होने वाले नुकसान से बचाया जा सका है, तो वह भी देखने की इच्छा थी।

रोमांच से शुरुआत-
जब हम घर से निकलते हैं तो कितना भी योजनाबद्ध ढंग से निकलें, कुछ न कुछ चैंकाने वाली बात हमारा इंतजार कर ही रही होती है। शुरुआत ट्रेन छूटने से हुई। यात्रा का रोमांच शुरू हो चुका था। हमारे पास टिकट थी लेकिन ट्रेन नहीं, जो ट्रेन सामने थी उसका टिकट हमारे पास नहीं था...हम हसरत से ट्रेन को और उसमें बैठे लोगों को देख रहे थे। जिंदगी के न जाने कितने लम्हे, कितने रिश्ते याद आ गये जिनमें कभी हम नहीं थे कभी वो नहीं थे। न जाने कितने लम्हे मुकम्मल होते-होते रह गए। अपने चेहरे पर बेचैनी के भाव लिए हम ट्रेन के इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे कि टेªन के टीटी ने हमारी परेशानी पर अपनी विनम्रता की मुहर लगायी और हमारे टिकट बनाये, यकीनन पेनाॅल्टी के साथ। समंदर की आवाजों की पुुकार में ऐसी शिद्दत थी कि पेनाॅल्टी के पैसे जाना बुरा नहीं लग रहा था।


पंखों के उगने का इंतजार-
पोर्ट ब्लेयर जाने के लिए चेन्नई, कलकत्ता और दिल्ली से फलाइट के जरिये पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से सुबह 6.15 की फलाइट पकड़ने के लिए हम रात साढ़े ग्यारह बजे एयरपोर्ट पहुंच गए। क्योंकि हमारी ट्रेन ने हमें 11 बजे दिल्ली पहुंचा दिया था। एक पूरी रात हमें दिल्ली के डोमेस्टिक एयरपोर्ट पर पंखों के उगने के इंतजार में बितानी थी। यात्राओं के दौरान यूं स्टेशन पर, एयरपोर्ट पर बैठकर लंबे इंतजार का लुत्फ बहुत बार ले चुकी हूं। मुझे ऐसे इंतजार काफी रूमानी लगते हैं। पूरी रात आंखों में बिताना, सोचना हरे समंदर के बारे में जहां जाकर खुद को भूल जाने का इरादा टिकट की बुकिंग के साथ ही बैग में पैक हो गया था। हमारी यात्राएं तब शुरू नहीं होतीं जब हमारे हाथ में टिकट होती है और कदम घर की दहलीज से बाहर निकलते हैं, बल्कि वो तब से शुरू हो जाती हैं जब हम यात्रा की ख्वाहिश करते हैं, ज़ेहन में ही योजनाएं बनाने लगते हैं।

पानी से प्रेम बचपन से ही नदियों, नहरों और पोखरों के आसपास मंडराने को मजबूर करता रहा है। गोवा में पहली बार समंदर देखकर लगा था कि बस अब तक यहीं होने को मन भटक रहा था। लंबे समय से समंदर ख़्वाब में आता था। बातें करता था। उसकी लहरें हाथ थामकर दूर तक ले जाती थी। समंदर के मोह के चलते ही पोर्ट ब्लेयर की बात जे़हन में आई। जुलाई-अगस्त से यहां जाने की योजना आकार लेने लगी। यकीनन तब से ही मैंने खुद को अंडमान की यात्रा में पाना महसूस करना शुरू कर दिया था। बिना अंदर की यात्रा किए बाहर की यात्राएं अधूरी ही रह जाती हैं फिर वो चाहे जिंदगी की यात्रा हो या शहरों की। अपने भीतर न जाने कितनी यात्राएं समेटे हुए मैं जिंदगी के सफर पर चलती जा रही हूं। शहरों के सफर पर भी।

वक्त मुनासिब सा -
अक्टूबर से मार्च का समय पोर्ट ब्लेयर जाने के लिए माकूल है यह पता था। इसी बीच बच्चों की विंटर वैकेशन ने सोने पर सुहागा का काम किया और जनवरी का पहला सप्ताह इस यात्रा के नाम लिखा। इस यात्रा के लिए पहले से बनाई गई योजना बेहतर होती है। इससे एयर टिकट सही दामों में उपलब्ध हो जाती हैं और अगर किसी पैकेज टूर के ज़रिये जाना है तो उनकी कीमतों में भी काफी रियायत मिलती है। वहां पहुंचकर साथी पर्यटकों से मालूम हुआ कि ज्यादातर लोगों ने जुलाई अगस्त में बुकिंग करा रखी थी।

पक्की रात की कच्ची सुबह-
एक पूरी रात एयरपोर्ट पर जागते हुए बिताना, काॅफी पीना, लोगों के इंतजार को देखना, महसूस करना ये सब यात्रा का हिस्सा ही तो थे। जागी हुई रातें और उंघती सुबहें तो मुझे यूं भी बहुत पसंद हैं। अगर उन जागती रातों में काॅफी की खुशबू हो, ठंड की सिहरन और एक रोमांचक यात्रा की जुंबिश तो बात ही क्या। मैंने कभी किसी पर्यटक को कभी टेंशन में नहीं देखा है। बड़ी से बड़ी असुविधा उनकी मुस्कुराहट को कम नहीं कर पाती और यहीं उनके भीतर का राहगीर उनका साथ देता है। वरना, आधे घंटे की टेन की देरी भी लोगों की भौंहे सिकोड़ने को काफी होती हैं। लोगों के चेहरे के हाव-भाव देखकर आसानी से उनमें से पर्यटक कौन है जाना जा सकता है। तकरीबन पांच बजे अपने हाथ में बोर्डिंग पास लेकर दिल्ली की उस कच्ची सी सुबह में दाखिल होना अच्छा एहसास था। कच्ची सुबह इसलिए कि इसके पहले सुबह पूरी तरह से अपनी आंखें खोलती हमें दिल्ली छोड़ देना था। पक्की रात का पूरापन बादलों की गोद में छुपा था। सूरज को पहली बार हवा में उगते देखना था। कोहरे के चलते फलाइट लेट होने का खतरा टल चुका था क्योंकि बीती रात बारिश की रात थी। ठीक वक्त पर हमने कलकत्ता के लिए उड़ान भरी। फिर कलकत्ता से पोर्ट ब्लेयर।


वीर सावरकर एयरपोर्ट- 
कलकत्ता से पोर्ट ब्लेयर तक की दूरी हवाई जहाज से दो घंटे में पूरी होती। रास्ते भर बादलों का खेल जारी रहा। लेकिन जैसे ही एयरहोस्टेस ने कुर्सी की पेटी बांधने का संकेत दिया, नीचे का समंदर आंखों में भरने लगा। इतनी उंचाई से समंदर और द्वीप खूबसूरत खिलौने जैसे लग रहे थे। धीरे-धीरे समंदर और साफ नज़र आने लगे, नारियल के पेड़ भी, आईलैंड भी। हमारे भीतर का रोमांच अब छलकने लगा था। हम तयशुदा वक्त पर वीर सावरकर एयरपोर्ट पर पहुंचे। शहर के बदले हुए तापमान ने हमारा मुस्कुराकर स्वागत किया। स्वेटर और जैकेट उतरकर हाथों में पहुंच चुके थे। होटल पहुंचते ही सामान पटककर, खाना खाकर अगर खाना है तो हमें भागना था क्योंकि यहां पहुंचकर एक-एक लम्हे की कीमत समझ में आने लगी थी। अबाडीन बाजार को देखते हुए, शहर से गुजरते हुए होटल तक पहुंचना। ये पोर्ट ब्लेयर शहर से पहली वाकीफियत थी। पहली मुलाकात।

होटल पहुंचकर सुंदर रंगोलियों ने, यहां के लोगों की मुस्कुराहटों ने, मीठे नारियल पानी के वेलकम ड्रिंक ने तृप्त कर दिया। दिल से आवाज आई...यहीं बस यहीं तो होना था तुझे कबसे।

सेल्यूलर जेलः यातनाएं, जुल्म, कराहें, आजाद भारत की इबादतगाह-
सबसे पहले हमें सेल्यूलर जेल जाना था। यह बिल्कुल उस तरह है जैसे किसी भी अच्छे काम की शुरुआत हम अपनी इबादतगाहों से करना पसंद करते हैं। सेल्यूलर जेल ऐसी ही इबादतगाह है। जिस आजादी को हम सांस-सांस जीते हैं, भोगते हैं अक्सर उसकी कीमत को समझे बगैरं उसे हासिल करने को कितना लहू बहा, कितनी यातनाएं कितने जुल्म सहे हमारे देशवासियों ने। यह जेल उस संघर्ष, उस जज्बे का जिंदा दस्तावेज है। यहां की दीवारों पर हजारों कहानियां दर्ज हैं। 

जनरल बोवेरी के जुल्मों की दास्तान, क्रूर सजाओं का इतिहास, फांसी के फंदों पर दर्ज अनगिनत आजादी के दीवानों की गर्दनों के निशान। एक पुराना पीपल का पेड़ जो तमाम क्रूरताओं का साक्षी है। समंदर गवाह है उन अंतिम चीखों का। पाठ्यपुस्तकों में दर्ज किसी पाठ को पढ़ते वक्त कभी ऐसे एहसास जागते नहीं जैसे यहां आकर जागते हैं। कि रगों के भीतर दौड़ता लहू उबाल सा लेता हुआ महसूस होता है और आंखों से वो उबाल बहकर बाहर आने को व्याकुल होता है। अपनी आजादी के आगे सर झुक जाता है और सवाल भी उठते हैं कई कि जिस आजादी के लिए इतना लहू बहा, इतनी यातनाओं से गुजरे लोग उसे क्या हम सचमुच मान दे पा रहे हैं? साढे तेरह बाई साढ़े सात फिट की कोठरियों वाली 693 कोठरियां, जिनमें से झांकता एक झरोखा वो भी ढंका हुआ कि बाहर के कोई मौसम गलती से भी अंदर न जा सकें। अब भी इस ऐतिहासिक जेल के अंदर से कराहों की आवाजें आती हैं, उन कराहों पर इंकलाब जिंदाबाद की मुहर चस्पा होती है जो क्रूर यातना देने वालों के ठहाकों के मुंह पर तमाचे सी मालूम होती है।

वीर सावरकर की कोठरी में खड़े होकर मानो उस पूरे दौर को आंखों के सामने से गुजरता हुआ देखा जा सकता हो। फांसीघर के ठीक सामने वाली वो कोठरी जानबूझकर उन्हें दी गई थी ताकि हर फांसी वो देखें। हमारा गाइड आनंद कोई इतिहास वेत्ता नहीं था। 2006 से वो यहां गाइड के तौर पर काम कर रहा है। गंभीर और सजग नौजवान। वो कहता है कि मुझे अच्छा लगता है अपने देश के इतिहास से लोगों को रू-ब-रू करवाना। लेकिन वो यह भी कहता है कि इस गेट से बाहर निकलते ही लोग सब भूल जाते हैं। हम भी उस गेट के बाहर निकले लेकिन शाम का लाइट एंड साउण्ड शो देखने को कुछ ही देर में लौट आने के लिए। लाइट एंड साउण्ड शो जो इतिहास की मार्मिक दास्तान को जिंदा करता है।


काॅर्बियन्स काॅव बीचः वो पहली लहर का जादू-
सेल्यूलर जेल से बाहर निकलते हुए कदम भी भारी थे और दिल भी। अपनी आजादी की कीमत बहुत ज्यादा महसूस होने लगी थी। उसी भारी मन से हम काॅर्बियन्स काॅव बीच के किनारे जा पहुंचे। समंदर की उन लहरों को मानो हमारे दिल की हालत का अंदाजा था। वो भीतर समाये भारीपन को हल्का करने का हुनर जानती थीं। पहले पहल बीच के किनारे टहलने से जो शुरुआत होती है वो भला पूरा सराबोर होने से कम पर कब मानती है। शाम ढलने को थी। नारियल के पेड़ों के झुरमुट, सामने उफनाता विशाल समंदर। चंद कदमों का ही सफर हमने तय किया बाकी का सारा सफर लहरों ने खुद तय कर लिया। वो महबूब से हुई पहली मुलाकात सा आलम था। हां, ना....हां ना...के बीच झिझक, संकोच पूरा भीगने की इच्छा भी और दामन बचाने की मशक्कत भी और आखिर में समर्पण का सुख। सराबोर होने का सुख। समंदर की हेठी, जिद, अठखेलियों और शदीद मोहब्बत के आगे घुटने टेक देने का सुख। हार के जीत जाने का सुख। सब लोग यही कहते हुए बीच के किनारे गये थे कि आज सिर्फ समंदर देखेंगे भीगेंगे नहीं क्योंकि कोई भी दूसरे जोड़े कपड़े लेकर नहीं गया था लेकिन सब के सब भीग चुके थे। जो नहीं भीगे थे वो सचमुच अभागे ही थे, जीवन के सूखे हुए लोग।

अपनी संपूर्णता के साथ आया खूबसूरत सा दिन बीत चुका था, शाम कंधे से आ लगी थी। हम लौटे तो खुद को रात के हवाले करके। दिन बीत चुका था लेकिन अहसास में बचा हुआ था। कुछ दिन कभी न बीतने की क्षमता रखते हैं...ये ऐसे ही दिन थे। पोर्ट ब्लेयर में यह हमारी पहली रात थी। हम सोना नहीं चाहते थे। सोकर खोना नहीं चाहते थे कुछ भी। डिनर के बाद दूर तक टहलने जाने का सुख, थकान से चूर होने के बावजूद लगातार चलते जाने की इच्छा...

राॅस आइलैण्ड-
अगली सुबह पोर्ट ब्लेयर का पहला सूर्योदय देखने की थी। सुबह पांच बजे उठकर ही साथ के लोग जा डटे समंदर के किनारे। आठ बजे हमें निकल जाना था राॅस आइलैण्ड के लिए। राजीव गांधी वाटर स्पोट्र्स क्लब से राॅस आइलैण्ड के लिए फेरी जाती हैं। पानी में चलने वाली बड़ी बोट। एम वी जया हमारी बोट का नाम था। उसमें बैठना, लाइफ जैकेट पहनना और चल पड़ना लहरों को चीरते हुए। चंद मिनटों की वो नन्ही सी दूरी भी काफी रोमांचक लगी। यह धीरे-धीरे समंदर के प्रेम की तरफ बढ़ना, उसमें और गहरे उतरने की यात्रा का यह दूसरा पड़ाव था। समंदर के बीच में खुद को पाना, बेहद साफ पानी में तैरती मछलियों को देख पाना...संयोग भर नहीं था। राॅस आइलैण्ड मगरमच्छ के जबड़े के आकार का आइलैण्ड है। इसे अंग्रेजों ने अपना मुख्यालय बनाया था। यहां के खंडहर उस दौर की विलासिता का बयान करने में पूरी तरह सक्षम हैं। अंग्रेजों के शानो-शौकत वाले बंगले, क्लब, आॅफिस, गिरजे सब बेहद भव्यता लिये हुए रहे होंगे यह उन खंडहरों में दर्ज था। उन खंडहरों के करीब जाने पर, उन्हें छूकर देखने पर उनके पार से नीले समंदर और नारियल के ऊचे पेड़ों को देखते हुए महसूस हुआ कि हमारे ही देश में हम पर ही राज करने वालों ने खुद कितना भव्य जीवन जिया। यहां घूमते हुए हमें बार-बार हिरन और मोर मिले। हिरन जिन्हें आप छू सकते हैं, जो आपको देखकर डर के भागते नहीं। इसी राॅस आइलैण्ड की खूबसूरती को कैमरे में कैद करते-करते एक जगह अवाक रह गये हम। बेहद शानदार दृश्य सामने था। लाइट हाउस। तकरीबन सौ या शायद उससे ज्यादा ही सीढि़यां उतरने के बाद लकड़ी का एक पुल समंदर के ठीक बीच में। पतला सा पुल जिस पर चलते हुए समंदर के सीने पर सर रखने का सुख महसूस किया जा सकता था। वो पुल लाइट हाउस तक ले जाता है। वो लाइट हाउस जिसकी तस्वीर हर बीस रुपये के नोट पर छपी हुई देखी जा सकती है। उस पुल पर जाने के लिए एक बार तो सबकी हिम्मत नहीं होती, ऊपर से वहीं के कुछ लड़कों ने यह कहकर डरा भी दिया कि वहां जाना सुरक्षित नहीं है। ज्यादातर कदम कुछ दूर से लौट गये। कुछ कदम थोड़ा और आगे बढ़े लेकिन लकड़ी के उस पुल के ठीक बीचोबीच जाकर मैंने खुद को एकदम अकेला ही पाया। सामने लहराता समंदर और सिर्फ मैं। कोई भीड़ नहीं, कोई फोटोग्राफी नहीं। सुख के लम्हे बस। न, मुझे तैरना नहीं आता लेकिन डूबने से डर भी नहीं लगता, कि मरने से पहले अगर जी लिये तो बुरा क्या है...हालांकि वहां से लौटकर मां की डांट पड़ती है लेकिन जो सुख मैं लेकर लौटी थी उसके आगे कोई ताकीद, कोई डांट छू भी नहीं सकती थी। मन सुख से सराबोर था। समंदर हमारी प्यास को जगाने का हुनर जानता है। पपड़ाये होठों पर पानी की कुछ बूंदे रखने को हम नारियल के पेड़ों की ओर देखते हैं...सामने से नारियल पानी लेकर आता कोई दिखता है। जहां प्यास जगे, वहीं प्यास बुझाने के उपाय भी मौजूद हों इससे बेहतर भी क्या होगा।

अंडर वाॅटर वाॅकः जिंदगी भर न भूलने वाला अनुभव-
राॅस आइलैण्ड से वापस लौटने के बाद हमें जाना था अंडर वाॅटर वाॅक के लिए। जिसे इसके पहले डिस्कवरी पर या हिन्दी फिल्म जिंदगी मिलेगी न दोबारा में ही देखा था। सच कहूं तो पानी देखकर खिल उठने वाली मैं इस अनुभव के लिए रोमांचित भी थी और थोड़ी डरी हुई भी। समंदर के भीतर 26 फुट की गहराई में उतरकर समुद्री जीवन को खुली आंखों से देखना, क्या मुझसे हो पायेगा? अंदर से खुद को मजबूत कर रही थी कि जरूर...होगा। मुझे जाना ही है समंदर के भीतर। लेकिन जब वहां पहुंचकर काफी लोगों को डरते हुए, बिना जाए वापस आते हुए देखा तो घबराहट बढ़ी। फिर भी उस डर को हावी नहीं होने दिया। अपने उत्साह को कम नहीं होने दिया। पानी में पहली सीढ़ी पर कदम रखा, दूसरी पर...तीसरी पर...अब तक सब ठीक था। समंदर कमर के ऊपर तक आ चुका था। चौथी सीढ़ी पर पांव रखते ही पानी सीने तक आ पहुंचा...पांचवी सीढ़ी पर पांव रखते ही पानी में गुड़प हो जाना था। बस यही...एक लम्हा हमें जीतना होता है। मैं हारने लगी। घबराहट में पांव ऊपर की तरफ बढ़ने लगे। मुझसे नहीं होगा...ऐसा महसूस हुआ। दोबारा कोशिश की और इस बार नज़र भर के समंदर को देख लिया। दूर तक फैला विशाल समंदर और उसके भीतर उतरती मैं...फिर से घबराहट हुई और मैं फिर वापस पलटी। सांसों की रफतार तेज हो चुकी थी। रोमांचक अनुभव को लिए बगैर वापस लौटना नहीं चाह रही थी।


 डर को काबू में किया और इस बार पांचवी सीढ़ी पर कदम रख ही दिया। ऊपर से एक हेलमेट मेरे कंधे पर आ गिरा...बस सब आसान होता गया। पानी के भीतर न कोई डर, न घबराहट बस अद्भुत, अलौकिक सौन्दर्य से भरी दुनिया...अप्रतिम अनुभव। पानी के भीतर उड़ने जैसा। थोड़ी ही देर में जमीन पैरों को छूने लगी। अब हमें समंदर के भीतर चलना था ठीक वैसे ही जैसे जमीन पर चलते हैं। समुद्री वनस्पतियों को छूकर देखना, जीवों को छूकर देखना, मछलियों को अपने पास से गुजरते हुए देखने, अपनी हथेलियों पर कंधों पर चलते देखना। मानो कोई सपना देख रहे हों। बेहद खूबसूरत अनुभव से हम रू-ब-रू हो रहे थे। वो बीस मिनट का अंडर वाॅटर वाॅक जीवन का सबसे खूबसूरत रोमांचक वाॅक था। वापस लौटे तो शरीर ही नहीं मन भी भीगा हुआ था। सुख की सिहरन थी। होंठ धीरे से बुदबुदाये कि जिंदगी न मिलेगी दोबारा...

हम वापस लौट तो रहे थे होटल के कमरों की तरफ लेकिन हम जानते थे कि समंदर के उस हिस्से में हम छूट गये हैं। और समंदर हमारे भीतर जज्ब हो गया है। उसी शाम हमारे कुछ साथी चिडि़या टापू की ओर रवाना हो गये....लेकिन हम छूट ही गये कि हमें अपने भीतर समाये अनुभवों को जज्ब होने के लिए भी कुछ वक्त चाहिए था। अपनी मुट्ठियों को बार-बार खोलना और बंद करना...मानो समंदर को बूंद बूंद सोख लेने की कामना।

हैवेन सा हैवलाॅक-
आते समय किसी ने कहा था कि हैवलाॅक तो बहुत ही सुंदर है तो मुझे लगा कि जो अनुभव अब तक हो चुके हैं क्या उससे भी बेहतर कुछ संभव है? अगली सुबह हैवलाॅक के लिए रवाना होना था। सारी रात सपने में समंदर लहराता रहा, मछलियां आसपास से होकर गुजरती रहीं। हैवलाॅक के लिए हमें करीब 11.30 बजे निकलना था। सुबह के वक्त में पोर्ट ब्लेयर शहर के जीवन को देखने के इरादे से यूं ही निकल पड़े थे। तभी दोस्तों का ख्याल आया कि उनके लिए समंदर के इस शहर से कुछ तो ले जाना चाहिए। सागरिका यहां एक सुंदर सा शो-रूम है जहां सीप से बनी चीजें सही कीमत पर मिलती हैं। यह सरकारी शाॅप है इसलिए बार्गनिंग जैसी कोई दिक्कत नहीं थी। ढेर सारी छोटी-बड़ी चीजें, मोतियों के गहने, शंख जूट का सामान लेकर हम लौटे तब तक हमारे कूच करने का समय हो चुका था। बस कि हमारी प्यास नारियल की तरफ देख रही थी। हाथों में नारियल थामे पानी पीते हुए हम पहुंचे पानी वाले जहाज से यात्रा करने के लिए। एयरपोर्ट जैसी ही औपचारिकताएं निभाते हुए बोर्डिंग पास लेने के बाद मैक्रूज के भीतर पहुंचना। 
पोर्ट ब्लेयर से हैवलाॅक की दूरी मैक्रूज से दो घंटे में तय हुई। सारे रास्ते समंदर के बीचोबीच होने का सुख हाथे थामे रहा। हैवलाॅक पहुंचते-पहुंचते शाम घिरने को हो आई थी। बस से अपने रिसाॅर्ट तक की यात्रा के दौरान ही समझ में आ चुका था कि यह जगह अलौकिक सौंदर्य सहेजे है। इस जगह का नाम हैवलाॅक जिस भी वजह से रखा गया हो लेकिन हमारे भीतर के सारे लाॅक खुल रहे थे और एक हैवेन यानी स्वर्ग से साक्षात्कार हो रहा था। इतनी शुद्ध हवा, इतना गाढ़ा हरा....सारा रास्ता आंखों में सुख भर रहा था। सुपारी के ऊंचे-ऊचे पेड़...बस कि खामोश उन हवाओं को ओढ़े रहने को जी चाह रहा था। हैवलाॅक हमें अनलाॅक कर रहा था। अपने भीतर की सुंदरता भी यहां की सुंदरता के साये मंे खुलने लगी थी, बिखरने लगी थी। बेहद खूबसूरत रिसाॅर्ट हमारे वेलकम के लिए तैनात था लेकिन हम हैवलाॅक की पहली शाम कमरों में गुजारने को तैयार नहीं थे। सामान कमरों में फेंककर तुरंत भागे राधानगर बीच की तरफ। राधानगर बीच जो हमारे रिर्सार्ट से जरा सी दूरी पर था। एशिया का सबसे खूबसूरत बीच। सूरज शरारत के मूड में था। हमारे वहां पहुंचने के ठीक पहले वो समंदर में डुबकी लगा चुका था। डूबे हुए सूरज की छूटी हुई लाल रोशनी में राधानगर बीच के किनारों पर टहलना, हैवलाॅक की पहली शाम को समेटना था।


दिन भर पानी-पानी-एलीफेंट बीच-
हमें शाम को ही बता दिया गया था कि अगले दिन अल्सुबह हमें एलीफेंट बीच के लिए रवाना होना है। हमें मालूम था कि यहां बहुत सारे वाटर स्पोट्र्स जैसे स्नाॅकर्लिंग, जेटस्की, स्कूबा डाइविंग, बनाना राइड, सोफा राइड वगैरह करने को मिलेंगे। इन वाॅटर स्पोट्र्स को लेकर एक काफी रोमांच भी था, थोड़ा भय भी। हालांकि अंडर वाॅब्र वाॅक के बाद हौसला बढ़ा हुआ था। एलीफेंट बीच तक पहुंचना भी एक शानदार अनुभव था। बीती शाम मैक्रूज से आते वक्त कुछ तेज रफतार बोट्स बीच समंदर से गुजरते हुई दिखी थीं और मन में यह ख्याल आ रहा था कि काश ऐसी किसी बोट पर हम भी हो पाते। नहीं पता था कि यह शहर मन में बुनी गई ख्वाहिशों को सुन भी लेता है और पूरा भी कर देता है। हमारे सामने वही बोट थी। खुली हुई बोट, जिसमें सिर्फ हम थे। वो तेज स्पीड में चली तो मानो सब छूटने लगा। समंदर को काटती उसकी गति पानी को उछालकर हमारे ऊपर फेंक रही थी। इस तरह भीगने का सुख अनिवर्चनीय था। हैवलाॅक से एलीफेंट बीच तक का यह बीस मिनट का रास्ता अब तक तय किये गये तमाम रास्तों में श्रेष्ठतम था। किसी ख्वाब को जीने जैसा। बाहर एक विशाल समंदर था और असीम शांति थी अंदर। चाहकर भी हम अपने जीवन की किसी कड़वाहट को, अकराहट को याद नहीं कर पा रहे थे। कितना विशाल है जीवन, कितने सौंदर्य से भरा और हम कितनी तुच्छ वजहों में उसे जाया करते रहते हैं। क्षुद्रतम से उच्चतम की यह यात्रा। जिस दिन हम अपनी परेशानियों को प्रकृति के हवाले करते हैं, खुद को उसके हवाले करते हैं रास्ते खुलने लगते हैं मुझे नहीं मालूम ईश्वर होना क्या होता है लेकिन प्रृकति के करीब होते ही जीवन की मामूली समस्याएं निर्मूल होती देखी हैं। खुद पर हंसी भी आई कि कितनी बेवजह सी वजहों को सर पर उठाये फिरते हैं हम।
एलीफेंट बीच आ चुका था। भीतर का समंदर बाहर के समंदर से मिलने को बेताब था। कि पानी में भागते चले जाना...और अंदर...और अंदर...। अपनी-अपनी पसंद के वाटर स्पोट्र्स चुनना। बीच समंदर में जेटस्की पर निकलना, कुछ स्नाॅकर्लिंग में जुटे थे, कुछ बीच नहाने में। तकरीबन 3 घंटे इस बीच पर समंदर के और भीतर उतरते जाने के थे। कि जी भरके उसको अपनी आगोश में भर लेने का दिन। आंखें मूंदे पानी में लेटे रहने का दिन...रोमांचक खेलों का दिन....चुपके से किसी को याद करने का दिन...लौटते वक्त मन तृप्त था।

राधानगर बीच-

अब बाकी बचा दिन हमारे हवाले थे। यह हैवलाॅक में हमारा आखिरी दिन भी था। लंच के बाद का सारा समय राधानगर बीच के लिए बचा था। जब मन भरा हो तो भूख प्यास भी जाती रहती है। हम राधानगर बीच आज पूरी तैयारी से गये थे। भीगने की भी और सूरज से कल का हिसाब लेने की भी। समंदर बहुत शदीद प्रेमी होते हैं। हमें बस अपने प्रेम का इज़हार भर करना होता है, बस कुछ कदमों का फासला तय करना होता है बाकी वो आपको अपनी मोहब्बत में घसीटकर इतनी दूर ले जाते हैं कि आप वापस नहीं लौट सकते। 
हमने एक लहर को छुआ, कुछ सीपियां उठायीं और कोई लहर दौड़ते हुए आकर कदमों से लिपट गई। चंद लम्हों में हम लहरों के खेल में शामिल थे। सराबोर थे। लेकिन सूरज आज भी हमें ठेंगा दिखा गया। ऐन डूबने से ठीक पहले कम्बख्त बादलों में जा छुपा। कब दिन बीता, कब रात हुई कुछ खबर नहीं....दिन भर समंदर में रहा शरीर, नमक नमक सा शरीर...लौटना अब सिर्फ एक शब्द था जिस पर पांव चल रहे थे। हालांकि लौट कोई नहीं रहा था। सब वहीं छूट गये थे। चांद को अपनी हथेली पर उगाये आसमान भी आज इठला ही रहा था। नारियल और सुपारी के पेड़ों के बीच से झांकता चांद...ये रात जागने की रात थी। ख्वाहिशों के जागने की रात, उम्मीदों के जागने की रात...अपनी हथेलियों में अपना वजूद महसूस करने की रात। वो जो एक समंदर भीतर रहा करता है उसे आज मुक्त करने की रात। दूर कोई गिटार बजा रहा था, कोई धुन हवाओं में उतरा रही थी...रात अपने सफर पर मुसलसल चले जा रही थी।


वापसी एक उपक्रम-
सुबह हमें वापस पोर्ट ब्लेयर लौटना था। बैग में सामान रखते हुए महसूस हो रहा था कि यहां क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जा रहे हैं। एक सामान ही है जो जैसे आया वैसे वापस जा रहा था बाकी सब
उलट-पुलट हो चुका था। हमारे वजूद का कोई हिस्सा यहीं छूट गया था, यहां के जंगल, समंदर, सीपी, शंख, मछलियां, चांद, सूरज और शांति सब हमारे जेहन में पैक हो गये थे। हैवलाॅक ने हमें वाकई अनलाॅक कर दिया था तमाम झंझावातों से, मुश्किलों से परेशानियों से। अब सिर्फ शांति और सुकून बचा था।

पोर्ट ब्लेयर, आखिरी दिन -
पोर्ट ब्लेयर में हमारा आखिरी दिन था। हम अंदर से खूब भरे हुए थे। हमारे भीतर का भराव हमें मौन करता है। उस मौन की उंगली थामे हमने पोर्ट ब्लेयर शहर की अन्य ऐतिहासिक इमारतों संग्रहालय, एक्वेरियम आदि का रुख किया। पैदल बाजारों में घूमते रहे। दुकानों पर रुके बगैर। एक मीठी सी शाम कांधों से आ लगी थी। ठंडी हवा, पोर्ट ब्लेयर की आखिरी शाम और एक गहरा मौन लिए हम मुफीद ठिकाने की तलाश में जाॅगर्स पार्क जा पहुंचे। इतनी शांत शामें कम ही मिलती हैं। हवा में ऐसी ताजगी कि देर तक बस सांसें लेने को ही जी चाहे। कैमरे थक चुके थे, मन भरे हुए थे। जाॅगर्स पार्क के कुछ चक्कर लगाने के बाद किसी कोने पर यूं ही पसर जाना और ताकना डूबते हुए सूरज को।

वापस कौन आया लौटकर-

अगली सुबह हम वापसी के लिए एयरपोर्ट के लिए चल पड़े। एक आखिरी बार अबाडीन बाजार से गुजरते हुए, एक आखिरी बार नारियल पानी पीते हुए। एयरपोर्ट पहुंचने से ठीक पहले मालूम हुआ कि हमारी फलाइट का कोई अता-पता ही नहीं। दिल्ली का कोहरा हवाई उड़ानें रोके खड़ा था। साथ के कुछ लोग मुस्कुरा उठे...कुछ देर और इस शहर में। एक पूरा दिन पोर्ट ब्लेयर के एयरपोर्ट पर फलाइट के आने के इंतजार में बिताने का रोमांच इस यात्रा के सुख को बढ़ा ही रहा था। हालात यूं भी बन रहे थे कि हो सकता है यहीं रुकना पड़े एक दिन और या शायद कलकत्ता में। या शायद अगले दिन चाटर्ड प्लेन मंगवाया जाए...न जाने कितनी बातें, न जाने कितने कयास...लेकिन इस शहर से मिली सुकून की भरावन ने ऐसा हाथ थामा हुआ था कि सब कुछ सुंदर लग रहा था। दिल के भीतर एक गुनगुना एहसास था। पल भर को भी आंखें बंद करो तो विशाल हरा समंदर लहराता नज़र आता।

लौटकर आने पर अहसास हुआ कि जो गया था वो कोई और है और जो लौटा है वो कोई और। एक सुकून अब तक तारी है....सेल्यूलर जेल के गेट के बाहर निकलने के बाद भी वो अहसास छूटे नहीं हैं...

(नोट- बाराटांग और नील आईलैण्ड न जा पाने के कारण उनका जिक्र यहां नहीं है लेकिन अगर आप अंडमान जाने का मन बनायें तो यहां भी जरूर जाएं।)
- अहा जिंदगी अप्रैल २०१५ में प्रकाशित 

Saturday, April 11, 2015

एक बार फिर वेरा...

'वेरा उन सपनों की कथा कहो' का चौथा संस्करण पलटते हुए मैं सोच रही हूं कि कविता के सुधी पाठकों का संसार शायद इतना भी सीमित नहीं. मार्च 1996 में यह संग्रह पहली बार प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह से कोई रोशनी सी फूटती नजर आ रही थी। इसकी कविताएं महज शब्द नहीं, एक पूरा संसार हैं स्त्री मन का संसार। इन कविताओं में प्रेम की ताकत भी है, पाकीज़गी भी और तमाम रूढियों व अहंकारों से मुक्ति भी। इसके जरिये वेरा तक पहुंचना हुआ, निकोलाई की वेरा तक। उसकी आंखों से देखना सपना शोषण मुक्त समाज का। इस किताब ने हिंदी प्रकाशन को नया संदेश भी दिया।  वेरा की साज सज्जा, इसके कवर पर बनी दांते और बिएत्रिस की तस्वीर, ले-आउट, डिजाइन सबने ध्यान खींचा। आज आलोक श्रीवास्तव की वेरा 18 साल की हो गई। चौथा संस्करण को हाथ में लेते हुए मन बेहद खुश है। सजा-सज्जा में तनिक बदलाव कुछ नई कविताओं और भूमिकाओं के साथ एक बार फिर वेरा अपने ही सपनों को हमारी पलकों में सजाने को आतुर है...स्वागत है वेरा! शुक्रिया आलोक!

दुःख प्रेम और समय

बहुत से शब्द 
बहुत बाद में खोलते हैं अपना अर्थ

बहुत बाद में समझ में आते हैं 
दुःख के रहस्य

खत्म हो जाने के बाद कोई संबंध
नए सिरे से बनने लगता है भीतर

.....और प्यार नष्ट  हो चुकने
टूट चुकने के बाद
पुर्नरचित करता है खुद को...


Wednesday, April 1, 2015

चैत चतुर नहीं...



बुद्ध और बुध्दू होने के बीच ही
रहते हैं हम सब ,
मौत की आखिरी हिचकी से अटके
सांसों के जंगल में भटके से

चैत चतुर नहीं,
बुध्धू भी नहीं
बस कि गिरते और उगते लम्हों
के फासलों का गवाह भर.…

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पेड़ों से उतरकर
कुछ परछाइयाँ
साँझ के इर्द-गिर्द जमा होती हैं,
कहती हैं 'बुध्धू,'
पास बैठे बुद्ध मुस्कुराते हैं.…

'बुध्धू होना आसान नहीं' वो कहते हैं.…
किसी सयाने ने नहीं सुनी
बुद्ध की ये बात.