Tuesday, February 25, 2014

सर, मुझे कविता लिखनी नहीं आती है...


21 फरवरी शाम पांच बजे, बाल भवन के आडिटोरियम में शब्द अपना चोला उतारने को व्याकुल नज़र आये। मौका था मानव कौल के नाटक ' लाल पेंसिल' को देखने का। लाल पेंसिल देखते हुए महसूस हुआ कि जिन शब्दों को तराशने, सहेजने, उन्हें अपने सर पर ताज की तरह पहनने की जिजीविषाएं चारों ओर बिखरी पड़ी हों ठीक उसी वक्त कहीं कोई अव्यक्त शब्दों की दहलीज को पार करने को किस कदर व्याकुल है।

दिन भर किताबों के मेले में घूमने के बाद मेरे हाथ में थे ढेर सारे कविता संग्रह और सामने एक बच्ची का चीत्कार था...सर...मुझे कविता लिखनी नहीं आती है...बहुत मुश्किल काम है...कितना मुश्किल...क्या इतना मुश्किल कि जिंदगी एक अज़ाब हो जाये...कि सांस सांस वेदना...लगातार घनी होती वेदना...इतनी घनी की शब्दों का जंगल छोड़कर भाग जाने को जी चाहे...लेकिन भागना किससे, खुद से...खुद को व्यक्त न कर पाने की पीड़ा से मुक्ति भी नहीं है...प्रश्न यह है कि यह वेदना किसके हिस्से आई है...

नाटक 'लाल पेंसिल' जिंदगी की कई पर्तों को खोलता है, हमारे खामोशी के मानी तलाशता है, हमारी बोलियों में पैबस्त चुप को टटोलता है, भेड़चाल में फंसकर एक जैसा समझने, एक जैसा रचने, एक जैसी अभिव्यक्तियों और उनसे मिलने वाले देय को अभिलाषा से देखने की हसरतों को बेनकाब करता है। हमें जीवन भर लगता रहता है कि हमने सब कुछ ठीक-ठीक समझ लिया है...मैं समझा...मैं समझा...मैं  समझा...बड़...बड़...बड...यानी हम अपनी नासमझ समझ के मुगालते में जाने क्या-क्या बोलते जाते हैं बड़...बड़...बड़...यह बोलना सब कुछ है, लिखना, जीवन को जीना, अभिव्यक्त करना...और असल में सब निरर्थक...

यह नाटक बच्चों की दुनिया से खुलता है। एक जैसे होने की होड़...एक जैसे बच्चे...एक जैसे चेहरे...एक जैसी भाव भंगिमाएं...एक जैसी समझ और एक जैसी ही नासमझी भी। किस तरह हम सबका जीवन एक जैसे ढर्रे पर दौड़ता जाता है...यह इस कदर तेज दौड़ है कि हम अपने ही व्यक्तित्व की तमाम दूसरी खूबसूरत संभावनाओं को, इच्छाओं को समझ ही नहीं पाते। भेड़चाल, सफलता के कुछ तय मानक और बड़...बड़...बड़...बड़.…पिंकी इस भेड़चाल से अलग है। शायद इसीलिए वो कक्षा में उपेक्षित है। उसका कोई दोस्त नहीं है। बापू उसके दोस्त हैं, उनसे ही वो अपने मन की बात करती है। कक्षा में बच्चों से शिक्षक कविता लिखने को कहते हैं. सब बच्चे खुश होकर कविता लिखने लगते हैं...ऐसी कविता...वैसी कविता...शब्दों की उथल-पुथल और कविता...लेकिन पिंकी परेशान है...जहां एक ओर बच्चे किसी मशीन की तरह कविता लिखते हैं पिंकी इस वेदना से गुजरती है कि उसे तो कविता लिखनी आती ही नहीं है।

इसी दौरान उसे लाल पेंसिल मिल जाती है। लाल पेंसिल पकड़ते ही वो लिखने के प्रति दबाव महसूस करती है। इतना घना दबाव, ऐसी वेदना कि वो परेशान हो जाती है। वो अपने हाथ को रोकती है...पूरी कोशिश करती है कि न लिखे लेकिन नहीं...अब यह उसके बस का नहीं....और वो उस यातना से गुजरते हुए कविता लिखती है...कविता लिखने के बाद वो सेलिब्रिटी बन जाती है...क्लास के बाकी बच्चे उससे दोस्ती करना चाहते हैं...शिक्षक उसे सम्मानित करते हैं लेकिन पिंकी इन सबसे बेजार है...वो गले में पड़े मेडल को फेंक देती है और बार-बार कहती है मैंने कविता नहीं लिखी, मुझे कविता लिखना नहीं आता... वो लाल पेंसिल को फेंक आती है लेकिन वो पेंसिल उसका पीछा नहीं छोड़ती।

लाल पेंसिल का आकार धीरे-धीरे बढ़ता जाता है...यह लाल पेंसिल दरअसल पिंकी की इच्छा का प्रतीक है... इसे समझ पाना आसान नहीं लेकिन एक बार आप खुद को समझने की राह पे निकल पड़े तो इससे मुक्ति भी सम्भव नहीं।

लाल पेंसिल हमारे भीतर की दुनिया में चल रहे द्वंद्व को बेहतर ढंग से उकेरने में भी कामयाब होता है। हम सब कई लेयर्स पर जी रहे हैं। वो लेयर्स नाटक में खुलती हैं. नाटक का हर संवाद गहरा असर छोड़ता है। हर किरदार के लिए भरपूर स्पेस है। मंच का पूरा इस्तेमाल होता है। लाइट्स का इस्तेमाल कंटेंट को बखूबी सर्पोट करता है। सभी कलाकार अभिनय की शिद्दत को उकेरते हैं। यह नाटक एक खूबसूरत टीमवर्क के तौर पर उभरता है जिसमें एक नहीं बल्कि इससे जुड़ा हर व्यक्ति लीड रोल में नज़र आता है। इसे देखते हुए अपने भीतर की तमाम पर्तों को खुलता हुआ और शब्दों के मकड़जाल से मुक्त होता हुए महसूस करते हैं....

मानव एक निर्देशक के तौर पर चुपचाप दूर कहीं मुस्कुराते नज़़र आते हैं... 


Monday, February 17, 2014

जीवन संगीत


चलो बैठते हैं किसी नदी के किनारे

सरगम की मद्धम आंच पर
चढ़ाते हैं दुनिया के रंज़ो ग़म

तुम अपनी बोलियों की बालियां उतार देना
और मैं अपनी चुप

मिलकर रचेंगे हम जीवन संगीत
जिसे सुनने को
सृष्टि कबसे बेचैन है.…

(सेल्फ इमेज )


Wednesday, February 12, 2014

ये मुस्कुराहटों की कोपलें फूटने के दिन हैं...


ये रंगों के घर बदलने के दिन हैं

लाओ अपनी हथेलियां
कि इनमें भर दूं खिलखिलाहटें

झरे हुए मन पर
ये मुस्कुराहटों की कोपलें फूटने के दिन हैं

लोग कहते हैं कि ये वसंत के दिन हैं
लेकिन जाने क्यों लगता है कि
ये दुखों के 'बस' 'अंत' के दिन हैं.…

(एँ वे ही कुछ भी)

Sunday, February 9, 2014

ढूंढते फिरे तुम मुझे...



तुमने मुझे भाषा के घर में ढूंढा
पुकारा नदियों के किनारों पर
तलाशा जंगलों में
सहराओं में भी खोजा
समंदर की लहरों से
पूछा मेरा पता

खेतों में, पगडंडियों में,
सड़कों पर दी आवाज
तलाशा विश्व के महानतम साहित्य में
और लोक कथाओं में भी

ढूंढते फिरे तुम मुझे
चूल्हे की कच्ची आंच में
बच्चों की रूठी आवाज में भी
शोर में ढूंढा कभी
तो खामोशियों में भी

प्रिय मैं इन ठिकानों से गुजरी जरूर
लेकिन ठहरी तुम्हारे ही भीतर
सदियों से...
मैं तुम ही तो हूं...


Saturday, February 8, 2014

तुमसे प्यार है...


अब उन्हें मुझसे डर नहीं लगता। दोस्ती के शुरू-शुरू के दिनों में मैं उन्हें हसरत से देखती थी और वो मुझे कनखियों से। मेरी गैरहाजिरी में वो मुक्त होकर खेलती खिलखिलाती थीं, लेकिन मेरे आते ही वो अपने पंख समेट लेतीं। कुछ तो उड़ भी जातीं। अगर मैं अचानक पहुंच जाउं तो सब की सब फुर्रर्रर्र....फिर मैंने अपनी आहटों को समेटा। उन्होंने अपने डर को....संकोच को। अब मैं बेफिक्र होकर कभी भी उनके पास जाकर बैठ जाती हूं, वो पूरी शरारत से मेरे आसपास टहलती रहती हैं।

कनखियों से देखने का मौसम अब रहा नहीं। अब हम एक-दूसरे को खुलकर देखते हैं, प्यार से, शरारत से, कभी-कभी नाराजगी से भी। उन्हें मेरी और मुझे उनकी आदत हो चली है। अब जब उदासियों की चादर ताने कमरे में पड़ी होती हूं तो वो कमरे में भी चली आती हैं बेखटके। मानो कहती हों उठो भी, बहुत हुआ...और मैं मंत्रमुग्ध सी उनके साथ निकल जाती हूं, कमरे से बाहर, खुद से बहुत दूर...

वो एक डाल से दूसरी डाल पर उड़ने का खेल खेलती हैं। एक साथ उपर उड़ना फिर नीचे उतरना और आकर बैठना मेरे एकदम करीब...मानो कह रही हों ले मेरी चोंच से अपना आसमान उतार ले पगली...

मैं चाय का घूंट भरते हुए मुस्कुरा देती हूं। हम एक-दूसरे के आदी हो चले हैं। मैं रोज उन्हें अपने आसपास महसूस करना चाहती हूं। पिछले कई दिनों से बारिशों ने अपना आंचल लहराया हुआ है। बारिशें...बारिशें...बारिशें...काफ्काई हरारतें जिस्म पर तारी हैं, कि बस बूंदों की छमछम सुनना सारी रात...सारा दिन...

मुस्कुराहटों को कहीं न जाने की हिदायतें दिन रात साथ हैं.  मुस्कुराहटों में बसी स्याह लकीरों को मिटाने के जतन जारी हैं। वो कहता है कि हंसो तो दुनिया सुंदर होगी....मैं कहती हूं कि जब दुनिया सुंदर होगी तो खुद ही आ जायेगी पक्की मुस्कुराहट।

खैर, हमारा झगड़ा चलता रहेगा..इसी झगडे के बीच देर रात बूंदों को अपनी हथेलियों पर समेटते हुए पहनी थी एक टुकड़ा नींद....सुबह सिरहाने सूरज मुस्कुराते हुए बैठा मिला....बालकनी में लौट आई हैं चहचआहटें...उनका खेल जारी है...धूप के टुकड़े उछालते हुए वो मेरी ओर देखकर मुस्कुराती हैं...मानो कह रही हों....तुमसे प्यार है...

(तस्वीर- मेरी खुद की खींची हुई )

Thursday, February 6, 2014

ओ अच्छी लड़कियों....


ओ अच्छी लड़कियों
तुम मुस्कुराहटों में सहेज देती हो दुःख
ओढ़ लेती हो चुप्पी की चुनर

जब बोलना चाहती हो दिल से
तो बांध लेती हो बतकही की पाजेब
नाचती फिरती हो
अपनी ही ख्वाहिशों पर
और भर उठती हो संतोष से
कि खुश हैं लोग तुमसे

ओ अच्छी लड़कियों
तुम अपने ही कंधे पर ढोना जानती हो
अपने अरमानों की लाश
तुम्हें आते हैं हुनर अपनी देह को सजाने के
निभाने आते हैं रीति रिवाज, नियम

जानती हो कि तेज चलने वाली और
खुलकर हंसने वाली लड़कियों को
जमाना अच्छा नहीं कहता

तुम जानती हो कि तुम्हारे अच्छे होने पर टिका है
इस समाज का अच्छा होना

ओ अच्छी लड़कियों
तुम देखती हो सपने में कोई राजकुमार
जो आएगा और ले जायेगा किसी महल में
जो देगा जिन्दगी की तमाम खुशियाँ
संभालोगी उसका घर परिवार
उसकी खुशियों पर निसार दोगी जिन्दगी
बच्चो की खिलखिलाह्टों में सार्थकता होगी जीवन की
और चाह सुहागन मरने की

ओ अच्छी लड़कियों
तुम थक नहीं गयीं क्या अच्छे होने की सलीब ढोते ढोते

सुनो, उतार दो अपने सर से अच्छे होने का बोझ
लहराओ न आसमान तक अपना आँचल

हंसो इतनी तेज़ कि धरती का कोना कोना
उस हंसी में भीग जाये

उतार दो रस्मो रिवाज के जेवर
और मुक्त होकर देखो संस्कारों की भारी भरकम ओढनी से

अपनी ख्वाहिशों को गले से लगाकर रो लो जी भर के
आँखों में समेट लो सारे ख्वाब जो डर से देखे नहीं तुमने अब तक

ओ अच्छी लड़कियों
अब किसी का नहीं
संभालो सिर्फ अपना मान

बेलगाम नाचने दो अपनी ख्वाहिशों को
और फूंक मारकर उड़ा दो सीने में पलते
सदियों पुराने दुःख को

पहन के देखो
लोगों की नाराजगी का ताज एक बार
और फोड़ दो अच्छे होने का ठीकरा

ओ अच्छी लड़कियों...

(पेंटिंग अमृता शेरगिल की आभार गूगल चाचा का )

नोट - 2 दिसंबर 2013 को दैनिक जागरण के पुनर्नवा में प्रकाशित 


Saturday, February 1, 2014

जिसे जीना बाक़ी है...

सब कुछ हो रहा है,
हर शाम एक टीस का उठना,
सब कुछ होने मैं शामिल रहता है।

किस्म-किस्म की कहानियाँ, आँखो के सामने चलती रहती है।
कुछ पड़ता हूँ ... कुछ गढ़ता रहता हूँ।

दिन में आसमान दखता हूँ।

जो तारा रात में दखते हुए छोडा था...वो दिन में ढूँढता हूँ।
सपने दिन के तारों जैसे है।
जो दिखते नही हैं... ढूढने पड़ते हैं।

रात में सपने नहीं आते....
सपनों की शक्ल का एक आदमी आता है।
ये बचा हुआ आदमी है।
जो दिन के 'सब कुछ होने में'- सरकता रहता है,
और शाम की टीस के साथ अंदर आता है।
ये दिन की कहानी में शामिल नहीं होता....

इसकी अपनी अलग कहानी हैं...
जिसे जीना बाक़ी है.… 

- मानव कौल 

(मानव की अन्य कविताओं को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें -http://manavaranya.blogspot.in/)