Saturday, January 7, 2012

लकीरें अपने स्वभाव से चलती हैं


अजय गर्ग से मेरा पहला परिचय उनके एक सशक्त लेख के ज़रिये हुआ था. बाद में उनके पत्रकार होने का पता चला. इसी बीच मधुर भंडारकर ने 'जेल' के लिए 'दाता सुन ले...' लिखवाकर उनके शब्दों को लता जी की आवाज में पिरो दिया. गीतकार और पत्रकार होने के बीच लड़ते हुए अजय ने एक दिन जिन्दगी की लगाम अपने हाथ में ली, हिंदुस्तान की शानदार नौकरी को सलाम नमस्ते कह दिया और निकल पड़े इस धरती की सुन्दरता को समेटने. कलम और कैमरे के साथ ने उन्हें खूबसूरत ट्रैवलर बना दिया...लेकिन इन सबसे परे वो साफ़ दृष्टि और नेक नीयत वाले ज़हीन इन्सान हैं...उनकी इस कविता पर अपने अधिकार की मुहर लगते हुए इसे अपने लिए रख रही हूँ.-  प्रतिभा  

लकीरें
अपने स्वभाव से चलती हैं

हमेशा नहीं होतीं लकीरें
समानांतर एक-दूसरे के
कि चलती रहें एक साथ
अनंत तक अनादि तक

तिर्यक भी नहीं होती हर रेखा
कि दूसरी को बस
निकल जाए स्पर्श करते हुए

यह भी  ज़रूरी  नहीं
साथ चलती दो लकीरें
कभी-न-कभी निकलेंगी
एक-दूसरे को काटते हुए

किसी आयत या वर्ग का
विकर्ण भी नहीं होतीं सब लकीरें
कि उल्टे-सीधे, आगे-पीछे चलते
एक ही बिंदु पर मिलें हर बार

ऐसा भी बहुधा नहीं होता
कि एक-दूसरे से सटकर चलें ही 
तो लगे
दो नहीं एक ही लकीर है वहां

वक्र चाल ही चलती हैं
अधिकतर लकीरें
एक-दूसरे में मिलती प्रतीत होती हैं
और झट से निकल जाती हैं
एक-दूसरे से दूर
कोई नया मोड़ लेकर

लकीरें कभी नहीं बदलतीं अपना स्वभाव

रिश्तों को लकीरें समझकर चलो तो
आधे दुःख निरर्थक हो जाते हैं

- अजय गर्ग 
(http://ajaythetraveller.blogspot.com/)

14 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अजय गर्ग जी की सशक्त रचना से रूबरू करवाने के लिए आभार!

अनुपमा पाठक said...

रिश्तों को लकीरें समझकर चलो तो
आधे दुःख निरर्थक हो जाते हैं

waah! kitna sudar samaadhan hai!!!

नीरज गोस्वामी said...

अद्भुत रचना...वाह...बधाई..



नीरज

Swapnrang said...

रिश्तों को लकीरें समझकर चलो तो
आधे दुःख निरर्थक हो जाते हैं.....

आनंद said...

वक्र चाल ही चलती हैं
अधिकतर लकीरें
एक-दूसरे में मिलती प्रतीत होती हैं
और झट से निकल जाती हैं
एक-दूसरे से दूर
कोई नया मोड़ लेकर
..................

रिश्तों को लकीरें समझकर चलो तो
आधे दुःख निरर्थक हो जाते हैं

काश ..........

प्रवीण पाण्डेय said...

एक गणितज्ञ कवितामय या कवि गणितानुभव में

बाबुषा said...

पानी के नीचे हथेलियाँ रखिये ...लकीरें बह जायेंगी..पानी जल जाए तो भी फिक्र न कीजिये..
फिर अपने हाथ अपने महबूब के हाथों में दे दीजिये....कुछ दिन हाथ बिना लकीरों के छोड़ दीजिये ....देखिये....ज़िन्दगी कितने रंग दिखाती है ......
उसके बाद आप लकीरों को कभी हथेलियों पर घोंसले न बनाने देंगे !

बाबुषा said...

मेरे हाथों की लकीरों में एक चेहरा बनता है. :-)

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

behad sundar ..Rishton kee lakiron kaa vishleshan ..adbhut

Pratibha Katiyar said...

@Baabu- Wah kya baat kahi...ham fida hue!

***Punam*** said...

"रिश्तों को लकीरें समझकर चलो तो
आधे दुःख निरर्थक हो जाते हैं"


"पानी के नीचे हथेलियाँ रखिये ...लकीरें बह जायेंगी.....!
कुछ दिन हाथ बिना लकीरों के छोड़ दीजिये ....देखिये....ज़िन्दगी कितने रंग दिखाती है ......!!
उसके बाद आप लकीरों को कभी हथेलियों पर घोंसले न बनाने देंगे !!!"

तारीफ़ किस की करूं....
समझ नहीं पा रही हूँ...
कई बार हाथ की लकीरों में ही जिन्दगी उलझ कर रह जाती है...!!
बेहतर है बह जाने दें......उन लकीरों को जल जाने दें..!
या फिर किसी के हाथों में हाथ दे कर मिट जाने दें...!!

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ही प्रभावी रचना है .. अजय जी को जान कर अच्छा लगा ..

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

सशक्त रचना...
अजय जी को बधाई...

Ajay Garg said...

छोटे से प्रयास को पसंद करने के लिए आप सबका तहे-दिल से शुक्रिया!!!! उम्मीद करता हूं, आगे भी हौसला अफज़ाई मिलती रहेगी आपसे...

प्रतिभा, आपका भी शुक्रिया कि आपने ब्लॉग के ज़रिये इतने सुधिजनों तक इस रचना को पहुंचाया।

बाबुषा, विचार को एक नया आयाम देने के लिए आभार!! 2-डी से सीधा 4-डी हो गया....