Friday, September 30, 2011

हथेली पर उगती खुशबू


मैं शायद गहरी नींद में थी. बहुत गहरी नींद. तभी अचानक हथेली पर कुछ  रेंगता हुआ सा महसूस हुआ. हथेली को बंद करना चाहा लेकिन नहीं कर पाई. उंगलियां मुडऩे से इंकार कर देती हैं. मैं इस रेंगने की ओर से ध्यान हटाते हुए गहरी नींद की चादर के भीतर छुप जाती हूं. लेकिन हथेली पर हलचल कायम रहती है. मैं हाथ झटककर  नींद में ही छुपी रहती हूं. लेकिन ...लगातार कुछ  रेंगता ही जाता है. अब मैं नींद से बाहर निकलकर हथेली पर नजऱ डालती हूं. कुछ भी नहीं है वहां. आस पास देखती हूं. वहां भी कुछ  नहीं. रेंगना अब बंद हो चुका है. जब कुछ है ही नहीं तो दिखेगा कैसे. मैं भी ना....बस. वापस नींद की चादर ओढ़ती हूं. नींद थोड़ी सा ना-नुकुर  के  बाद करीब आ ही जाती है. लेकिन फिर वही रेंगना शुरू. मैं किसी सधे हुए खिलाड़ी की तरह झट से  से मुट्ठी बंद करती  हूं...लेकिन  उंगलियां सख्त और ठंडी हैं. बर्फ की  तरह. उठकर  बैठ जाती हूं, बायें हाथ से अपने दाहिने हाथ को टटोलती हूं. सब ठीक  तो है. एक एक  उंगली को  मोड़ती हूं. वो मुड़ जाती हैं. मुड़ेंगी  कैसी नहीं...मैं हंस देती हूं.

मैं दाहिने हाथ की हथेली पर बायां हाथ रखती हूं. उंगलियों से अपना नाम लिखती हूं. दाहिने हाथ की  हथेली को चूमती हूं. नींद की पनाहगाह में लौट जाती हूं. थोड़ी ही देर में फिर से हथेली पर कुछ  रेंगने लगता है. इस सोने जागने के बीच रात अपना आंचल समेट लेती है. सुबह की पहली किरन में मैं अपना दाहिना हाथ अपने सामने खोले बैठी हूं. रात भर इस हाथ की  लकीरों ने कोई खेल खेला है. कोई भी लकीर अपनी पुरानी जगह पर नहीं है...मैं मुस्कुराती हूं. 

सुबह की ठंडी हवा में आलस की खुशबू भर जाती है. मैं नींद के आंचल में दुबक जाती हूं. अब कहीं कोई हलचल नहीं...

Tuesday, September 27, 2011

कभी यूँ भी तो हो...


कभी यूँ भी तो हो 
दरिया का साहिल हो 
पूरे चाँद की रात हो 
और तुम आओ...

परियों की महफ़िल हो 
कोई तुम्हारी बात हो
और तुम आओ..

ये नर्म मुलायम ठंडी हवाएं
जब घर से तुम्हारे गुजरें
तुम्हारी खुशबू चुराएँ 
मेरे घर ले आयें...
और तुम आओ.

सूनी हर महफ़िल हो
कोई न मेरे साथ हो 
और तुम आओ.

ये बदल ऐसे टूट के बरसें
मेरी तरह मिलने को 
तुम्हारा दिल भी तरसे 
तुम निकलो घर से 
और तुम आओ...

तन्हाई हो दिल हो
बूँदें हो बरसात हो 
और तुम आओ.

दरिया का साहिल हो
पूरे चाँद की रात हो 
और तुम आओ..
कभी यूँ भी तो हो...
- जावेद अख्तर
 (एल्बम -सिलसिले )

Thursday, September 22, 2011

आकाश में बोए हीरे मोती



 तुमने वर्षांत पर मुझे एक बाली दी धान की 

क्वांर में उजाली दी कांस की 
कातिक में झउया भर फूल हरसिंगार के 
अगहन में बंसी दी बांस की 
माघ में दिया मुझको अलसी का एक फूल 
फागुन में छटा दी पलाश की 
चैत में दिया मुझको नया जन्म 
नहर की मछलियाँ दीं मुझको वैशाख में 
जेठ में मुझे सौंपी प्रिय, तुमने बेकली 
छुआ, हरा किया मुझे, वर्षा के पाख में.

मैं लेकिन जल भर भर लाता हूँ आँख में 
क्या जाने मेरा मन कैसा हो आता है
क्या कुछ ढूँढा करता हूँ पीछे 
छूट गए वर्षों की राख में 
क्या जानूं क्यों पीछे और लौट जाता हूँ. 
मैं बारह मास में 
लगता है बोए थे मैंने जो हीरे-मोती इस आकाश में 
जीवन ने बिखरा दिया है सब, यहाँ-वहां घास में.

छूछापन सोया है मन के समीप, बहुत पास में
मैंने क्यों बोए थे हीरे-मोती इस आकाश में?

- श्रीकांत वर्मा  

Sunday, September 18, 2011

तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं -शहरयार


वो अक्सर हमसे नाराज रहते हैं. वो हर ख़ुशी में हमें शामिल करते हैं, गम में क्यों नहीं करते. क्यों नहीं छूने देते अपनी तन्हाई. शायर शहरयार को अवार्ड मिलना तो बहाना है उन्हें याद करने का. क्योंकि दिल जानता है कि कुछ लोग अवार्ड्स वगैरा से बहुत ऊपर निकल जाते हैं...उनकी दुआओं को अपनी पलकों पर उठाते हुए आज अपने जीवन की इस गाढ़ी कमाई पर फख्र होता है.- प्रतिभा 


ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं 


जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं 

अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब-तब आते हैं 

जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं 

काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं.

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किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का 

ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का 

ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का 

वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का 

ज़मीं पे किस लिये ज़ंजीर हो गये साये
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का....

Saturday, September 17, 2011

बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला


पहाड़ों से टकराकर कुछ आवाजें इतनी खूबसूरत हो उठी थीं कि मानो धरती ने अपने पैरो में कोई पायल बाँध ली हो. यूँ दूरियां सिर्फ दिलों की ही होती हैं फिर भी कई बार हाथ छुड़ाने में दर्द का अहसास आ ही जाता है.  वो ऐसी ही एक शाम थी. आसमान बरस-बरस कर धरती में समाया जा रहा था...हम एक-दूसरे का हाथ थामे थे. मानो रात को रोके रखना चाहते हों. प्रेम को सहेजना आसान नहीं होता. मैं आँखें चुरा रही थी. मुझे याद है मेरी विदाई (शादी)  के वक़्त मेरी माँ भी ऐसे ही मुझसे आँख चुराती घूम रही थी. हम कम सामना कर रहे थे उन दिनों. जबकि मैं उनकी गोद में सर रखकर भरपूर रोना चाहती थी. आखिरी लम्हों में धीरज टूटा और ऐसा टूटा कि आज भी उन लम्हों कि छुवन सिसकियों से भर देती है. मैंने अरसे बाद ऐसा मासूम, निश्छल प्रेम अपनी कोरों पर अटकते हुए महसूस किया था. वो शदीद बारिश की नहीं, शदीद प्रेम की रात थी. संगीत से वो मुझे भर देना चाहते थे. मैं भी अंजुरी भर-भर के संगीत में घुला प्रेम पी रही थी. यूँ मेरी जान हर उस लम्हे में, हर उस व्यक्ति में बसती है जहाँ निश्छल प्रेम बसता है. लेकिन देहरादून में मिले इन बच्चों के असीम प्रेम को मैं हर रोज बूँद-बूँद किसी अमृत की तरह गटकती हूँ. बहादुर शाह ज़फर की ये ग़ज़ल उस रात आसिम ने मुझे सौगात में दी थी...उसे ईदी में देने के लिए मेरे पास ऐसी कोई सौगात नहीं थी...वो अब भी मुझे हर रोज याद करते हैं. मै हर रोज उन्हें दुआ देती हूँ उनके सपनो को विस्तार मिले और हकीकत की धरती भी.  ये ग़ज़ल तुम्हारे लिए लगा रही हूँ मेरे बच्चे आसिम . खुदा तुम्हे सलामत रखे...


लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में  
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में 

बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला 
किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले बहार में 

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें 
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में 

इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां 
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में 

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन 
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में  

दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई 
फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में  

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये 
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में 

- बहादुर शाह ज़फ़र

Tuesday, September 13, 2011

सुख...



उसने कहा सुख, लड़के ने उसे भीतर आने दिया. उसने कहा दुख, लड़के ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया. सुख के चेहरों पर चमक थी. वे निहायत खूबसूरत थे. उन्हें देखते ही उनसे प्यार हो जाता था. पहली न$जर का प्यार. सुखों से उसका पुराना नाता था. हर सुख का रंग-ढंग, अंदाज सब उसे लुभाते थे. उसके घर का हर कोना सुखों की चमक से सजा-धजा था. जिंदगी के दिन जैसे-जैसे बीतते गये, वो समझदार होता गया. उसे सुखों को कसौटी पर कसना आ गया. अब अगर सुख कभी चेहरा बदलकर आये तो भी उसे पहचान लेता था और बांह पकड़कर अपने पास बिठा लेता. 
अब तक उसे अपने हुनर पर खूब भरोसा हो चला था कि बंद आंखों से भी वो सुख और दुख का भेद आसानी से कर सकता है.
ऐसी ही बेख्याली में एक दिन उसने एक सुख को अपना लिया. उसने लाख इसरार किया कि आप गलत समझ रहे हैं, मैं सुख नहीं हूं. आपको गलतफहमी हुई है. लड़का हंस दिया. उसे अपने अनुभवों पर गुमान था. जबसे यह सुख उसने चुना, उसकी आंखें नम रहने लगीं. सुख का ऐसा स्वाद...तो उसे कभी नहीं मिला था. अपनी जिद में वो लड़का अब भी उसे सुख कहता है. रोज अपनी आंखों में पहनता है. पनीली आंखें लिए घूमता फिरता है. और वो दुख जो लड़के की गलतफहमी के चलते सुखों के संसार में पहुंच गया था खुद की निरीहता, दरिद्रता को छुपाने के लिए लड़के की आंखों में जा छुपता है. 

लड़के की आंखों से जाने सुख बहता है या दुख पर लड़का उसे अब भी सुख ही कहता है...लड़का अब भी नहीं जान पाया है कि सुख और दुख छलिया होते हैं कभी-कभी भेष बदलकर जीवन में दाखिल हो जाते हैं. इतना तय है लेकिन सुख एक जगह पर टिकते नहीं और दुख कभी दामन छोड़ते नहीं...लड़का अब अपने सुख को आंखों में लिया घूमता फिरता है. वो न आंख से टपकता है, न जज्ब होता है. कुछ दिनों से उसे धुंधला दिखने लगा है शायद... 


Monday, September 12, 2011

लिखना उसकी आंखों में प्रेम...



हम क्यों लिखते हैं...हमें क्यों लिखना चाहिए. क्या लिखना चाहिए...ये सवाल कितने ही पुराने या घिसे-पिटे हो चुके हों इनकी चमक और जरूरत लगातार बरकरार है. खासकर तब, जबकि लिखने के अवसर बढ़ रहे हों. यूं इस सवाल पर रिल्के का जवाब नसों में समाया है. फिर भी शायद उसके आगे उसमें कुछ जोडऩे या नये जवाब खोजने की प्रवृत्ति जारी रहती है. मैं हर लिखने वाले से यह सवाल पूछना चाहती हूं कि तुम क्यों लिखते हो? एक बार एक दोस्त ने मजाक में कहा था कि नहीं लिखोगी तो क्या दुनिया रुक जायेगी...यह सवाल हर लिखने वाले के लिए है. मैं सवालों को समेटते चलती हूं.

नई क्लास के नये बच्चे सामने बैठे थे. पहली क्लास थी उनकी. मैं उन्हें सबसे पहले अपना परिचय देती हूं. परिचय देते हुए मैं सिर्फ अपना नाम बताना पसंद करती हूं लेकिन मुझे बताना पड़ता है और भी बहुत कुछ. मैं उनसे उनका नाम भर पूछती हूं. मैं उनसे जानना चाहती हूं कि उन्हें अपने विषय, जिसे उन्होंने खुद चुना कितना प्यार है. दरअसल, मैं पूछना चाहती हूं उन्हें जिंदगी से कितना प्यार है.
मैं उनकी कलम कॉपी बंद करवा देती हूं. उन्हें खोलने की कोशिश करती हूं. वह जगह खाली करती हूं, जहां पहले से न जाने क्या क्या भरा है. ताकि उसमें मैं जो भरना चाहती हूं उसकी जगह बने. सच कहूं, मैं उसमें कुछ नहीं भरना चाहती. मैं बस उन्हें चुनाव की सुविधा देना चाहती हूं. मैं उन्हें प्यार करना सिखाना चाहती हूं कि जिंदगी के हर लम्हे को प्यार करो. हर उस काम को जिसे करना तुमने चुना है. जिंदगी कुछ सर्टिफिकेट, नौकरी और महीने की सैलरी से बहुत आगे है. लेकिन मैं ऐसा कुछ नहीं कहती हूं. मैं उन्हें मोटी खाल का पत्रकार बनाने आई हूं ताकि जमाने की चोट जब पड़े तो वो कराह न उठें.

लिखना क्यों जरूरी है...अभी यह सवाल उनके लिए बड़ा है. मेरे ही लिए बड़ा है. मुझे यकीन है हर उस ईमानदार लेखक के लिए यह सवाल बड़ा है, जो लिखने के बाद अपने भीतर झांकता भी है. मैंने अपना जवाब पा लिया है शायद. मैं अपनी पीड़ा से मुक्त होने के लिए लिखती हूं. लिखने के अलावा मैं अपने साथ कुछ कर भी नहीं सकती अच्छा या बुरा. हां, कभी-कभी संगीत मुझे इस पीड़ा से बाहर निकालता है. तो क्या लिखने से पहले पीड़ा में होना जरूरी है. क्या हम ये सोचते हैं कि हमारे लिखे से समय और समाज बदलेगा. नहीं, लिखना समय का दस्तावेजीकरण तो है लेकिन बदलाव नहीं. अभी काशीनाथ सिंह जी का अपना मोर्चा पढ़ा है, जेएनयू के क्रांतिकारी शहीद चंद्रशेखर की डायरी के पन्ने, उनकी मां का पत्र. ये सब दस्तावेज हैं, जिन्हें पढ़ते हुए रूह कांपती है. इस व्यवस्था, इस सिस्टम से घिन आने लगती है. खुद से भी कि हमारे पास इसी व्यवस्था में रहने के लिए खुद को तैयार करने के सिवा कोई च्वॉइस नहीं है. मंजूनाथ की मृत्यु याद आती है. सच के लिए खड़े होने वालों की देह पर पड़ते कोड़े याद आते हैं. उनके जीवन में लिखने का वक्त बहुत कम था. वो वक्त के धारे बदलना चाहते थे. अब भी बहुत लोग हैं जो यह काम करना चाहते हैं. लेकिन उनकी चमड़ी उधेडऩे के लिए बना व्यवस्था का चाबुक लगातार मोटा और मजबूत होता जा रहा है.

हमें क्यों लिखना चाहिए....के आगे एक और बड़ा सा प्रश्न उगता है हमें क्या पढऩा चाहिए. पढऩा सिर्फ किताब नहीं, जैसे लिखना सिर्फ अक्षर नहीं. पढऩा जीवन और लिखना किसी की आंखों में विश्वास की, साहस की, प्रेम की इबारत.

लिखना कोई लग्जरी नहीं, एक गहन पीड़ा से गुजरकर सुंदर संसार का सपना देखना है...

Sunday, September 11, 2011

रात की हथेली पर याद के फूल


रात की हथेली पर
रखे थे कुछ सफेद फूल
सीने में 
धड़कती थी एक याद
आंखों में
लहराती थीं 
गंगा, जमुना, नर्मदा
टेम्स, वोल्गा और 
भी न जाने कितनी नदियां
हर याद के नाम पर 
वो नदियों में बहाती थी
कुछ फूल.
लेकिन रात की हथेली 
खाली होती ही न थी
नदियां जरूर 
सफेद फूलों से 
टिमटिमाने लगीं
जितने फूल आसमान में थे
उतने ही नदियों में 
न याद खत्म होती 
न रात की हथेली खाली होती
ये याद की रात के संग
आंख-मिचौली का खेल है.

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जाने कितनी दूरी थी
कि उम्र भर का सफर
भी कम ही पड़ा,
जाने कितनी नजदीकी थी 
कि हर पल में 
हजार बार मिले भी,
इश्क की इबारत में
ये उलटफेर भी 
कमाल होते हैं...

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इश्क ने बुतों में 
सांसे फूकीं
वर्ना मरे हुए जिस्मों को
कौन जिला सकता है.
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Friday, September 9, 2011

हार...



रातें कभी खिंचकर इतनी लंबी हो जाती हैं कि दिन के लिए समय ही नहीं बचता. ऐसा ही कई बार दिनों के साथ भी होता है. वो भी ऐसी ही एक रात थी. देर रात हम दोनों न जाने किस बात पर उलझे थे. मैं जो कह रही थी, उसे खुद सुन नहीं रही थी. वो जो कह रहा था, उसे सुनने का मन नहीं था. कुल मिलाकर मैं बस कह रही थी. उस कहे में न जाने क्या-क्या उलझा था. अगर अपने ही कहे को सुन पाती तो शायद खुद से मुंह मोड़कर कबका चल दी होती. फिर मैंने खुद को चुप कर लिया. यह चुप्पी उसके लिए सौगात थी. ताकि वो बोल सके. और मैं कुछ भी सुनने से बच सकूं. तभी बारिश आ गई. तेज बारिश. अचानक. उसका कहना बीच में रह गया. मैंने उससे कहा रुको मैं अभी आती हूं. एक जरूरी काम है. उसे यह कयास लगाने के लिए छोडऩा कि जरूरी काम क्या हो सकता है मुझे अच्छा लगा. अब वो तब तक मेरे जरूरी काम के बारे में सोचेगा, जब तक मैं वापस नहीं आ जाऊंगी. और वो यह कभी नहीं जान पायेगा कि बारिश को देखना कितना जरूरी काम है मेरे लिए.

रात लगातार गहरा रही थी और बारिश भी. उसका इंतजार भी. मैं बालकनी से बारिश को देख रही थी. मानो हम दोनों बारिश और मैं अपनी अपनी हदों को समझते थे. वो बालकनी से दिख तो रही थी लेकिन मुझे भिगो नहीं सकती थी. मेरी भी हद तय थी कि हाथ बढ़ाकर बूंदों को छू सकती थी लेकिन भीग नहीं सकती थी. उधर उसका इंतजार जारी था, जिसका मुझे अब ख्याल भी नहीं था. मैं वहीं बैठ गई. बारिश शायद मुझ तक पहुंचना चाहती थी. हम दोनों के बीच बस $जरा सा फासला था. ये फासला कौन तय करेगा यह तय नहीं था. हम दोनों अपनी अपनी हदों में रहकर एक-दूसरे को लुभा रहे थे. लेकिन इस खेल में कुछ नियमों का टूटना लाजिम था. मेरा कोई तय नहीं होता कि किस वक्त क्या करूंगी. कभी आसमान पर जाकर चांद चुराने का हौसला होता है और कभी दो कदमों पर रखे सुख तक जाने की इच्छा नहीं होती. खैर, बारिश ने बदमाशी की और हवाओं को अपने पाले में कर लिया. अब वो हवा के झोंकों के साथ मेरे पैरों तक पहुंच गई थी. मैं वैसी ही बैठी रही. देर रात यह खेल चल रहा था जब सारा शहर गहरी नींद में जा चुका था. या जाने की तैयारी में था. मेरे पैर घुटने तक पूरे भीग चुके थे. और मैं उसकी अठखेलियां देख खुश हो रही थी. मुझे खामोश देख उसका हौसला बढ़ गया था. अब मैं कमर तक भीग चुकी थी. हवाओं पर सवार होकर वो मुझे भिगो रही थी. यह खेल चल रहा था. उसका इंतजार भी कि आधी रात को क्या जरूरी काम होगा. आखिर एक झोंका मेरे चेहरे पर आता है. बौछार का बड़ा सा झोंका. अब वो जीत चुकी थी. इस जीत में उसका आवेग बढ़ा और मेरा भीगना भी. आखिर मैंने हार मान ली. मैं हमेशा से हारना चाहती थी. किसी से. मैं चाहती थी कि कोई मेरे सोचे हुए को गलत साबित करे.

अजीब बात है कि लोग जीतना चाहते हैं और जीतने के लिए अपना पूरा दम लगा देते हैं और मैं हारना चाहती हूं. मैं कुछ भी नहीं करती, फिर भी जीत जाती हूं. आज यूं हारना अच्छा लगा. मैं उठी. बस दो कदम बढ़ाये और सर से पांव तक मैं पानी हो गई. बूंदों का सैलाब इस कदर तेज था कि मुझमें और बारिश में भेद करना मुश्किल हो गया था. मैं तब तक खुद को उसके हवाले किए रही, जब तक मैं कांपने न लगी. मेरी उंगलियां, हथेलियां देर तक भीगने के कारण फूलने लगी थीं. होंठ शायद नीले पड़ गये थे. मैंने खुद को देखा तो नहीं लेकिन शायद मैं सुंदर लग रही थी. मैंने अपना नाम पुकारा तो आवाज कांप रही थी. फिर मैंने उसका नाम पुकारा उसमें भी एक कंपन था. मानो हम एक सुर को विस्तार दे रहे हों. मुझे अपनी कांपती हुई आवाज अच्छी लगी. मैंने उस नाम को बार-बार पुकारा कांपती आवाज में. हालांकि मुझे पूरा यकीन है कि वो गहरी नींद में सोया होगा और उस तक कोई आवाज नहीं जा रही होगी. लेकिन शायद जा रही होगी. उसने जरूर करवट ली होगी. या कुछ बेचैनी महसूस की होगी.

मैं अपनी ही बात को काटने की जल्दी में रहती हूं. हालांकि मैं जानती हूं कि मुझे किस बात पर टिकना है. यह शायद इसलिए है कि बचपन से मैंने अकेले ही सारे खेल खेले हैं. लूडो में दूसरेखिलाड़ी की चाल भी खुद ही चलना. शतरंज में भी. लेकिन इन जीतों में कोई मजा नहीं होता था. बेईमानी करने की पूरी छूट होने के कारण बेईमान होने का सारा मजा जाता रहा. और जीत का भी. बड़े होने पर भी यह आदत गई नहीं. अपनी ही बात को काटना जैसे आदत बन गया. इसलिए जब कोई दूसरा सचमुच मेरी बात काटता और मुझे हराता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन ऐसा होता बहुत कम है और बिना किसी मशक्कत के मैं जीत जाती हूं.

मैं अपनी आवाज को लौटा लाती हूं उसकी नींद में खलल नहीं पडऩा चाहिए. हो सकता है वो कब्र में हो और करवट लेने की मनाही हो. हो सकता है वो सब्र में हो और मुस्कुराने की ड्यूटी पर मुस्तैद हो. ऐसे में उसे क्यों उलझन में डालना.

मैं बूंदों को पकडऩे के लिए दोनों हाथ ऊपर उठा देती हूं. बूंदे अब हथेलियों पर बैठने लगी हैं. मेरे दो कदम आगे बढऩे के बाद मैंने देखा कि बारिश का आवेग कुछ कम हुआ है. वो अब शांत होकर बरस रही है. हालांकि उसकी रफ्तार में कोई कमी नहीं. मैं अपने ऊपर उठे हाथों की ओर देखती हूं, वो हाथ अपने नहीं लगते. दुआ में उठे वो हाथ किसी नन्हे बच्चे के लगते हैं. बच्चे दुआ में क्या मांगते होंगे. चॉकलेट, टॉफी या मैथ्स का होने वाला टेस्ट जिसकी तैयारी न हो उसका कैंसिल हो जाना. कुछ बच्चे शायद अपनी खोई हुई मां मांगते हों...मैं डर जाती हूं. हाथ समेट लेती हूं. थरथर कांपते हुए खुद को समेटकर आधी रात को चाय बनाती हूं. भीगने के बाद चाय का स्वाद बेहतरीन लगता है. खासकर चाय के मग को ठंडे हाथों से घेरकर पकडऩा. यह हाथों को गर्माहट देने का तरीका है.

चाय पीते हुए लौटती हूं, तो उसे ढूंढती हूं जिसे अपना इंतजार पकड़ाकर गई थी. वो शायद अब तक ऊंघने लगा था. मैं उसे लैपटॉप पर खंगालती हूं. वो जा चुका है. उसका लिखा मैसेज चमक रहा है. तुम कन्फ्यूज हो. अपना कहा खुद सुनो पहले. जाने ये कैसी ताकीद है. अपना कहा सुनते-सुनते बोर हो चुकी हूं. मैं मुस्कुराती हूं. चाय और मैं. मैं खुद में लौट आती हूं. वो क्या कहना चाह रहा था. मैं क्या कह रही थी. हमारी क्या बात हो रही थी...कुछ भी याद नहीं आता. अगर वो जरूरी होता तो याद आता ही. गैरजरूरी बातों में सर क्यों खपाना.

सुबह उठती हूं तो बारिश अब भी अपना आंचल फैलाये है...मुझे देखते ही उसने गुड मॉर्निंग कहा...

Thursday, September 8, 2011

न, अब मुस्कुराते नहीं बनता...


जब गुस्से से नसें फटने लगती हैं तो मुस्कुराते नहीं बनता, जब मुस्कुराते नहीं बनता, तब बुरा समझते हैं लोग मुझे, जब वो बुरा समझते हैं, तब मुझे एक राहत महसूस होती है कि सहज हूं अब, जब राहत महसूस होती है सहज होने की तो पलटने लगती हूं ब्रेख्त, पाश, आजाद को, उन्हें पलटने के बाद देखने लगती हूं अपने देश को, राजनीति को, गले में पड़े 66 मनकों की माला को, गिनने लगती हूं होने वाले धमाकों को, यूं बिना किसी धमाके के भूख से मरने वालों की संख्या भी कम नहीं है देश में, न अपने ही देश में जीने का अधिकार मांगने वालों की, फिर अचानक हंस पड़ती हूं. बहुत जोर से हंस पड़ती हूं इतनी तेज कि चाहती हूं विषाद के सारे शोर और रूदन पर डाल दूं अपनी खोखली और निर्जीव हंसी की चादर. समेट लूं सारा दर्द अपनी हंसी में और मुक्त कर सकूं धरती को पीड़ा से. लेकिन मैं कोई नीलकंठ नहीं, न अलादीन का चिराग है मेरे पास. मेरी हंसी लौट आती है निराश होकर मेरे पास.

Tuesday, September 6, 2011

वो गुमख्याल सी हमख्याल...



शाम दरवाजे पर ऊंकड़ू बैठे-बैठे ऊंघने लगी थी. उसके हाथ में उम्मीद का कोई सिरा भी तो न था कि लड़की उसकी ओर एक निगाह देखेगी भी या नहीं. लड़की इन दिनों जाने कहां गुमख्याल रहने लगी थी. शाम कितने ही खूबसूरत रंगों में ढलकर आये, वो लड़की को लुभा नहीं पाती. शाम ही क्यों दिन के सारे पहर उन दिनों उस दरवाजे से उदास होकर जाते थे. चाहे आधा खिला चांद हो या जमुहाई लेता सूरज. लड़की किसी की तरफ देखती भी न थी.

वो कई दिनों से एक तस्वीर बना रही थी. उस तस्वीर में उसने वो सारे मौसम रचे, जो उस पर से होकर गुजरे. वो सारे दृश्य जो आंखों में भरे थे. वो सारा संगीत जो कानों से होकर गुजरा था. वो सारी आवाजें जिनसे उसे जीने की आस मिलती थी. उस तस्वीर में उसने चटख धूप और काली घिरी घटा को एक साथ रचा था. जबसे यह तस्वीर बनानी उसने शुरू की, तबसे दुनिया की हर शै से उसका वास्ता टूट गया है. खुद से वास्ता जुडऩे का बाद ऐसा ही तो होता है. लड़का उसे आवाजें देते-देते थक जाता लेकिन उसकी आवाज लड़की के कानों से टकराकर लौट आती. लड़का रोज उसके दरवाजे पर दस्तक देता. दरवाजे पर रखे मौसम देखकर वो समझ जाता कि आज भी यह दरवाजा नहीं खुलने वाला. लड़की अपने मन के दरवाजे खोले बैठी थी. वो अपनी आत्मा के रंगों को प्रकृति के कैनवास पर सजा रही थी. सदियों के दर्द को नीले रंग के आसमान में रचती, उसमें ढेर सारे कामनाओं के पंक्षियों को उड़ा देती. उसकी हंसी के बगूले बादल बनकर तस्वीर में उड़ते फिरते. उसकी ख्वाहिशें पीले फूल बनकर खिल उठतीं और उसके प्यार का लाल रंग उन फूलों पर अपनी ओढऩी डाल देता.

लड़का इन सबसे अनजान था. उसका धीरज अब चुकने लगा था. उस रोज भी ठिठकी हुई बारिश दरवाजे पर बैठी थी दीवार से सर टिकाये. उसने पूछा, क्या हुआ? बारिश ने इनकार में सर हिलाया कि आज भी लड़की ने दरवाजा नहीं खोला. लड़का गुस्से में लौट गया फिर कभी वापस न आने के लिए. ठीक उसी वक्त लड़की को वो रंग मिला जिसकी उसे तलाश थी. जिससे वो एक मुकम्मल तस्वीर बनाना चाह रही थी. स्त्री के मन की मुकम्मल तस्वीर. जिसे देखकर उसे समझना दुनिया भर के लोगों को आसान हो जाये और टूट जाए ये जुमला कि स्त्रियों को कोई नहीं समझ सकता. वो रंग था उसका खुद से प्यार करने का रंग. वो रंग जिसे पहनकर कोई भी स्त्री दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री बन जाती है.  लड़की ने उस रंग से प्रकृति को सजाया तो दरवाजे पर कबसे रखे उकताये हुए से मौसम अचानक झूम उठे.

लड़की ने तस्वीर को गौर से देखा...हां, यही तो है मुकम्मल तस्वीर. इसमें दुनिया की हर स्त्री का मन खुला पड़ा था. लड़की के चेहरे पर संतोष की झलक दिखी. वो भागकर लड़के के पास जाना चाहती थी. यह तस्वीर उसने लड़के के लिए ही तो बनाई थी. उसके हाथ रंगों से भरे थे, कुछ चेहरे पर भी लगे थे. वो नंगे पांव ही चल पड़ी. वो किसी परीकथा की नायिका लग रही थी जो अपने राजकुमार से मिलने को बेसब्र हो आधी रात को जंगल में भटकती फिरती है. उसके पास कोई जादुई शक्ति भी नहीं होती, जो उसे एक पल में राजकुमार से मिला दे. लड़की हड़बड़ी में दरवाजा खोलती है. सारे मौसम उसे देख मुस्कुराते हैं. वो भी मुस्कुराती है. वो लड़के को आवाज देती है. उसके पीछे जाती है दूर तक. अपने पावों के छालों की परवाह किये बगैर वो सुधबुध खोकर लड़के को तलाशती फिरती है. उसे बताना चाहती है कि वो उसके लिए सबसे कीमती तोहफा रच रही थी. लड़का नहीं मिला.वो थक-हार के घर लौट रही थी कि उसकी न$जर एक और घर पर पड़ती है. उस घर के बाहर भी मौसम जमा थे. लड़की ने खिड़की से झांककर देखा. अंदर एक लड़की संगीत के सुरों से झगड़ रही थी. वो अपने जीवन का सुंदरतम राग रच रही थी. आत्मा के सुरों से सिंचित राग. वो भी अपने प्रेमी के लिए कोई तोहफा गुन रही थी. उसे उस लड़की का चेहरा खुद से मिलता-जुलता लगा. 

घर लौटी तो सारे मौसम जा चुके थे. बस बारिश रुकी हुई थी. उसके पहुंचते ही वो उसकी आंखों से बरस उठी.
उस बरसात में उसकी तस्वीर के सारे रंग धुल गये. नया राग रचती उस लड़की के सारे सुर घुल गये. दुनिया की हर लड़की के ख्वाब उस बारिश की ताल से ताल मिलाने लगे. तबसे धरती के हर भीगे कोने में एक ख्वाब अंखुआता है...

लड़का दस्तक देने के लिए नये दरवाजों की तलाश में गुम हो गया और लड़की उसके इंतजार में...