Monday, August 31, 2009

इख्फ़ा-ए-मुहब्बत


तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
हाय! ये हीर की सूरत जीना
मुंह बिगाडे हुए अमृत पीना
कांपती रूह धड़कता सीना
जुर्म फितरत को बनाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो।
दिल भी है दिल में तमन्ना भी है
तुमको अपने पर भरोसा भी है
झेंपकर आंख मिलाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
हां, वो हंसते हैं जो इंसान नहीं
जिनको कुछ इश्क का इर$फान (ज्ञान)नहीं
संग$जादों में $जरा जान नहीं
आंख ऐसों की बचाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
जुल्म तुमने कोई ढाया तो नहीं
इब्ने आदम को सताया तो नहीं
यों पसीने में नहाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
झेंपते तो नहीं मेहराबनशीं,
मक्र पर उनकी चमकती है जबीं
सिद्क पर सर को झुकाती क्यों हो?
तुम मुहब्बत के छुपाती क्यों हो?
परदा है दा$ग छुपाने के लिए
शर्म है किज़्ब (झूठ) पे छाने के लिए
इसको होठों में दबाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
आओ, अब घुटने की फुरसत ही नहीं
और भी काम हैं, उल्फत ही नहीं
है ये खामी भी नदामत (शर्म) ही नहीं
डर के चिलमन को उठाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
- कैफी आज़मी

Saturday, August 29, 2009

लाइफ इज अ सर्च

दा...दा...दा...करके बोलना शुरू भी नहीं किया कि एक तलाश साथ हो चली। पूरे घर में कुछ न कुछ ढूंढते फिरना। कभी कुछ गिराना, कुछ उठाना। कुछ चीजों को मुंह में डालकर स्वाद लेकर परखना...कान उमेठे जाना। फिर वही करना...फिर बड़े होना...तलाश जारी। अनजानी तलाश...जाने क्या ढूंढता है ये मेरा दिल...जैसे ख्यालों में घिर जाना।
सुख...हां शायद यही होगा...सब तो इसे ही ढूंढते हैं। लेकिन ऐसा भी तो हुआ है कई बार कि जब सुख या खुशी से सामना हुआ तो दिल का कोई कोना बेतरह भीग गया। जाने किस $गम की कसक हर खुशी में घुल जाती, चुपके से।
फूल, पत्ती, नदियां, पहाड़, चिडिय़ा, संगीत कुछ भी नहीं भाता। जी चाहता रबर से मिटा ही डालूं सब कुछ। एकदम खाली हो जाये कैनवास। या फिर आसमान के उस पार झांककर देखूं, कहीं वहां मेरा कोई हिस्सा तो नहीं। वजूद का कौन सा हिस्सा न जाने कब, कहां गिर गया हो। अगर तलाश है, तो $जरूर कुछ तो होगा ना जिसकी तलाश है। इसी तलाश के दरम्यिान कभी किसी पल में जिं़दगी को बेहद करीब पाया भी है...यह तस्वीर ऐसे ही पलों में से एक है। लाइफ इज अ सर्च....
(हमारे साथी फोटोग्राफर अतुल हुंडू की एक फोटो $िजंदगी झांकती है जहाँ )

Monday, August 24, 2009

कुछ, जिसका है इंतजार


केदारनाथ सिंह
कुछ
जिसे डाकिया कभी नहीं लाता
कुछ जो दिन भर गिरता रहता है
मकानों की छतों से धूल की तरह.
कुछ-जिसे पकडऩे की जल्दी में
बसें छूट जाती हैं,
चाय का प्याला मे$ज पर धरा रह जाता है
और शहर में होने वाली हत्या की खबर
चौंकाती नहीं
न आघात देती है।

सिर्फ आदमी उठता है
और अपनी कंघी को उठाकर
शीशे के और करीब रख देता है
कुछ, जिसके लिए
सारी पेंसिलें रोती हैं नींद में
और सड़क के दोनों किनारों के मकान
बिना किसी शब्द के
बरसों तक खड़े रहते हैं
एक ही सीध में।

Saturday, August 22, 2009

सदी का सबसे बड़ा आदमी-५ अन्तिम किश्त

काशीनाथ सिंह-
................. बुड्ढे, जब सारे लोग चले गये और कोई नहीं रह गया, तो शौक साहब बोले, तैने अपने बेटे की कीमत नहीं जानी बुड्ढे! बड़ी कीमती चीज है वो। बोल, कितना लगाएगा उसका मोल।सरकार, बूढ़े ने असमंजस में सड़क पर अपना माथा रख दिया।मैं थक गया हूं और अधिक थूकना मेर बस का नहीं. अब यह काम मेरा बेटा करे तो कैसा रहे? इसी गद्दी पर बैठकर! इसी खिड़की के पास. बूढ़ा उठ खड़ा हुआ. उसका मुंह खुला था और देर तक खुला रहा. वह अविश्वास के साथ खिड़की की ओर देख रहा था. उसने सूर्य को साक्षी करके दोनों हाथ जोड़े और आखें बंद कर लीं, पैर की धूल को चंदन बनाने वाले परवरदिगार ऐसा न करें, नहीं तो मैं पागल हो जाऊंगा, मारे खुशी के मर जाऊंगा...जब उसने आंखें खोलीं, तो उसकी आंखों में आंसू थे. उसने बेचैनी से बेहाल होकर कहा, सरकार आपने अभी-अभी कहा, उसे भूल तो न जाएंगे?
बुड्ढे शौक जो कहता है, उसे कभी नहीं भूलता।अपनी बात से मुकर तो नहीं जाएंगे?बुड्ढे, शौक की बात उसके मुंह से निकली हुई पीक की तरह होती है, जो वापस नहीं लौटती। बुड्ढे की खुशी का ठिकाना न था, लेकिन उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। बेटा आने में देर कर रहा था। अब तक उसे लेकर न हाथी लौटे थ, न घोड़े, न बग्घी उसे खुद पता नहीं था, वरना दौड़ा हुआ गया होता और पकड़ लाया होता।सरकार, उसने अनुरोध किया, अगर इ$जाजत दें तो मैं खुद देखूं।नहीं, तू यहंा से नहीं हिल सकता, शौक साहब ने दृढ़ता से कहा।

बूढ़ा सिर झुकाकर सोचने लगा कि उसका बेटा जो बड़ा ही बेकहा और जिद्दी था, कहां-कहां जा सकता है। ठीक इसी समय जाने कहां से उसके मन में एक संदेह पैदा हुआ।लेकिन हुजूर, वह नीच जात...दूसरों पर थूकना उसे कैसे सोभेगा? उसने शौक साहब से अर्ज किया।क्योंउसी के भाई-बंद यह कैसे बर्दाश्त करेंगे?जैसे मुझे करते हैं।बूढ़ा हंसा. आपकी बात और है सरकार.मतलब यह कि किसी और पर थूकने से पहले अपने बाप पर थूके, तो दूसरों को क्या ऐतराज? क्यों न मुझी पर थूकने से शुरू करें?बूढ़े का जी धक से रह गया. वह घबरा उठा. अनर्थ हो जाएगा सरकार. वह जान दे देगा, लेकिन यह नहीं करेगा.

वह क्या करेगा, क्या नहीं करेगा, यह मुझ पर छोड़। शौक साहब ने उसे डंाटकर तुरंत चुप कर दिया।शौक साहब अब कुछ भी सुनने को तैयार नहीं लग रहे थे, वे आश्वस्त हो गए थे और बड़ी तेजी से उनका मूड बदल रहा था। वे कुछ गुनगुना रहे थे और जांघ पर ताल दे रहे थे। जाने कितने दिनों के बाद जाकर काम-धाम से फुरसत मिली थी उन्हें।उन्होंने जमुहाई ली और मुंह के आगे चिटकियां बजाईं।क्या करें कि दिन कटे? यह बात उनके भीतर उठने लगी थी। उन्होंने बाहर देखा न लोग थे, न गरियाना था, न रोना था, न घिघियाना था। पान से लाल सड़क पर जानलेवा सन्नाटा था और इससे वक्त नहीं कट सकता था. उन्होंने अपना सिर खुजलाया और तब तक खुजलाते रहे, जब तक हाथ दर्द नहीं करने लगा. फिर पीठ खुजलाई, फिर हाथों की उंगलियां चटकाईं, फिर दंात खोदे और खोदते रहे. अंत में शीशा उठाकर जब चेहरा देख रहे थे, तो कोठे के दिन याद आने लगे. खासतौर से बेला की हाय-हाय. क्या गला पाया था और क्या तरन्नुम था और क्या लोच था.एक बार फिर सोचें हुजूर, यह उस पर भी जुल्म होगा और मुझ पर भी. हम किसे मुंह दिखाएंगे? बूढ़े से रहा न गया, उसने फरियाद की.शौक साहब झल्ला उठे. उन्हें गुस्सा आ गया.बेवकूफ बुड्ढे! भाग सराह अपना कि तेरा बेटा, जो तेरे ख्याल से आवारा और निकम्मा है, तुझे वह सारा कुछ मुहैय्या कराने आ रहा है, जिनके लिए हर बाप झंखा करता है, समझा? कहकर बड़ी मोहब्बत से उन्होंने नीचे झांका और थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले, देख दिमाग मत चाट, जिंदगी के मजे ले. जब बड़े आदमी की सोहबत की है तो ऐश कर. बोल, तू क्या सुनेगा-ठुमरी या दादरा? वैसे मौसम चैता का है. अहा-हा केहि ठैयां झुलनी हेरानी हो रामा... शौक साहब ने आंचों बंद कीं और गुनगुनाना शुरू किया. थोड़ी देर बाद ही रुक गए और अंदर किसी को आवाज दी, अरे कौन है उधर? बेला बाई को भेज तो!अपने कानों में बूढ़े ने उंगलियां घुसेड़ ं. उसका माथा चकराने लगा. अगर चोबदारों ने उसे सहारा न दिया होता, तो वह भहरा पड़ा होगा. उसके दिमाग में इतना तो आ रहा था कि सरकार सही कह रहे हैं. वह पका आम, जाने कब चू जाए. अब कै दिन की जिंदगानी है उसकी? लोग बाल-बच्चों के लिए ही जीते हैं और यहां बेटे को राज मिल रहा है और वह भी अपने आप. दुनिया उसे हुजूर मालिक सरकार कहा करेगी और थुकवाने के लिए तरसती रहेगी, लेकिन मन कह रहा था कि ऐसे जीने से तो मर जाना अच्छा. वह भी क्या बाप, जिस पर बेटा थूके.सहसा जाने कहां से शायद उसकी अंतरात्मा से आवाज आई कि लाख ढूंढो, वह नहीं मिलेगा.उसे गुदगुदी जैसी महसूस हुई और उसने ऊपर ताका.ग्रामोफोन का रेकॉर्ड पूरे सुर में बज रहा था और खिड़की पर बैठे-बैठे शौक साहब झूम रहे थे।

सरकार, अगर वह न आए तो? बूढ़े ने खुशी में चिल्लाकर पूछा?शौक साहब का ध्यान टूटा। उन्होंने नाक-भौं सिकोड़ी। उन्हें यह खटराग बड़ा ही बेसुरा लगा, फिर भी उन्होंने जब्ती से काम लिया, अबे उल्लू के पट्ठे, उसे बुला कौन रहा है? वह लाया जा रहा है।लेकिन वह न मिले तो?बूढ़स उसी रौ में चिल्लाया।शौक साहब ने बेला बाई या जो भी रही हों, उन्हें थोड़ी देर के लिए चुप कराया और गुस्से से बूढ़े को देखा। बूढ़ा सड़क के बीचोबीच खड़ा मिचमिचाती आंखों से मुंह बाए उनकी ओर ताक रहा था. उसके हाथ जुड़े थे और कांप रहे थे. अगल-बगल चोबदार उसकी बांह पकड़े हुए उसे दुत्कार रहे थे. गुस्से में तो बहुत थे शौक साहब, लेकिन उन्हें दया आ गईं. इधर चैता ने भी उनके दिल को कोमलता और उदारता से भर दिया था. वे विनोद में मुस्कुरा उठे, भांड़ों और लौंडों के नाच के रसिया बुड्ढे, तुझे मुजरे का मजा क्या मालूम? तभी तंग जूती की तरह बीच-बीच में काट रहा है. अच्छा, अब सारी बातों का लुब्बे-लुबाब सुन ले और यह हाय-हाय बंद कर दे. रियायत नहीं चलेगी यहां. अगर तूने थूकने वाले को बेटा जानकर गालियां देने में, रोने में, गिड़गिड़ाने में कोताही की, चूक की, तो याद रख. एक बार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार नहीं वह तक तक थूकता जाएगा, जब तक हमें संतोष न हो. बस...हां, तो बेला रानी अब शुरू कर.ग्रामोफोन की आवाज फिर खिड़की से बाहर आई और धूप में बल खाने लगी.शौक साहब ताल ही नहीं दे रहे थे, समय-समय पर सुर में सुर भी मिला रहे थे.बूढ़े ने ऊंची आवाज में फिर कुछ कहा, लेकिन खुद नहीं सुन सका कि क्या कह रहा है्वह पालथी मारकर वहीं सड़क पर बैठ गया.

शौक साहब इंत$जार कर रहे थे आने का। बूढ़ा इंत$जार कर रहा था न आने का.यह पहला दिन था. चार दिन और बाकी थे.शौक साहब के नाम पर बने नगर के इस चौराहे पर, जिसे लो शौक न कहकर चौक कहते हैं, साल में एक बार बिरहा-दंगल होता है. जिसमें बिरहा गाने वाली दोनों पार्टियां आपस में सवाल जवाब करती हैं. हालांकि हर कोई जानता है कि छठे रोज क्या हुआ था फिर भी बिरहियों की आखिरी लडंत होती है भोर में जिसके फैसले का दारोमदार इन सवालों के जवाब पर होता है कि नौजवान मिला या नहीं, गद्दी पर बैठने के लिए कहा गया, तो बैठा या नहीं, अपने बाप पर थूका या नहीं. थूका तो बाप ने कुछ किया या नहीं?इसमें संदेह नहीं कि जवाब तो अच्छे-से-अच्छे दिए जाते हैं, मगर सुनने वालों का मन नहीं भरता.
समाप्त....

Friday, August 21, 2009

सदी का सबसे बड़ा आदमी- 4

काशीनाथ सिंह

............इस ऐलान को करते हुए उनकी आंखों में आंसू थे और वे आंसू गालों पर ढुलक-ढुलक आ रहे थे कि वे तब तक किसी पर नहीं थूकेंगे, जब तक जुर्म करने वाला उसे भगाने वाला खुद सामने आकर कबूल नहीं करता.
इस ऐलान की बड़ी विकट प्रतिक्रिया हुई. इसे सुनते ही भीड़ के दक्खिनी छोर पर, जहां पकड़ी का पेड़ था और जिसकी डालें छोटे-बड़े अधनंगे शरीरों और सिरों से लदी हुई थीं, कोई बोला, हाय कुर्ता! दूसरे किसी छोर से एक और आवाज आई, हाय धोती, धीरे-धीरे हर कोने से आवाजें आनी शुरू हुईं और यह कीर्तन जैसा सुनाई पडऩे लगा, हाय कुर्ता, हाय धोती. हाय चावल, हाय रोटी.
कुछ जो चुपचाप खड़े थे और गा नहीं रहे थे, शक की निगाहों से आगे-पीछे ताक रहे थे और सबकी भलाई को देखते हुए आगे आने के लिए एक-दूसरे को उकसा रहे थे.
हुजूर, आखिरकार एक बूढ़ा आगे बढ़ा और दोनों हाथ उठाकर चिल्लाया, यह कसूर मेरा है.
शौक साहब ने अपनी आंखें पोंछी, कौन है तू?
उस अभागे का बाप! बूढ़ा बोला.
क्या करता है तू?
था तो हलवाहा हुजूर, लेकिन जब से जमींदारी गई, इसी नगर में रिक्शा खींच रहा हूं.
और तेरा बेटा? वह क्या करता है?
कुछ नहीं सरकार! आवारा और निकम्मा है. रात-रात भर दोस्तों से गप्पें लड़ाता है, घर से गायब रहता है और भी जाने क्या-क्या करता है?
इंकलाबी तो नहीं है?
पता नहीं हुजूर!
शौक साहब चुप-चुप उसे घूरते रहे. संतोष से उनकी आंखें चमक रही थीं, मगर ऐसा क्यों किया तैने?
हुजूर, वह मेरा खून है और मैं उसे जानता हूं. वह नहीं मरता. हरगिज नहीं मरता, लेकिन आप सरकार...वह हकलाने लगा. अगर आपको कुछ हो जाता,तो हम कहीं के न रहते.
लेकिन तैने दुनिया को जो बताया कि सरकार तेरे बेटे के मुकाबले कमजोर और बुजदिल हैं, उसके लिए क्या कहते हो?
बूढ़ा सोच में पड़ गया. उसने यह न सोचा था कि इसका मतलब ऐसा भी हो सकता है. उसने मदद के लिए उधर-उधर देखा. लोग-बाग पीछे से गर्दन उचका-उचकाकर देख रहे थे और उसे सुनने की कोशिश कर रहे थे.
सरकार, बुजदिल वह है, जो मैदान छोड़ दे, आप नहीं.
यह बात नहीं है बुड्ढे! शौक साहब कुछ देर सोचते रहे, साफ-साफ बोल, तैने किसकी जान बचाई? मेरी या अपने बेटे की?
अपने बेटे की हुजूर.
सो कैसे?
अगर आप न होते, तो ये लोग, जो चारों ओर फैले हुए हैं और कीर्तन कर रहे हैं, उसे जिंदा न छोड़ते?
पहले भी और अब भी?
अब भी?
यह भला क्यों?
यह इसलिए कि आप हैं, तो हम हैं आप नहीं तो हम कहां?
शौक साहब हंसे और बड़ी जोर की हंसी हंसे. उनका भारी शरीर जब शांत हुआ, तो बोले, बुड्ढे! बहुत चालाक है तू. मैं तेरे से खुश भी हूं और नाराज भी. खुश इसलिए कि तैने मेरी जान बचाई, लेकिन नाम मेरे बेटे का लिया और नाराज इसलिए कि तैने एक साथ सबको जलील किया. मुझे भी इस जम्हूरियत को भी और बेटे की बहादुरी को भी...तो बोल, तेरी मंशा क्या है? क्या चाहता है तू?
सरकार? बूढ़े ने सर झुका लिया.
वह चोबदारों के बीच खड़ा था और सोच नहीं पा रहा था कि क्या कहे? उसे सरकार के रुख का अंदाजा भी नहीं हा रहा था कि वे उससे क्या सुनना चाहते हैं? जब काफी देर तक बूढ़ा असमंजस में खड़ा रहा और कुछ न बोल सका, तो शौक साहब भीड़ की ओर मुखातिब हुए, लोगों उन्होंने भीड़ में ऐलान किया, वह नौजवान जहां कहीं भी हो, आकाश में हो तो आकाश से पाताल में हो तो पाताल से, धरती पर हो तो धरती से पकड़कर उसे हाजिर करो. जो हाजिर करेगा, वह बख्शीश का हकदार होगा. जाओ.
भीड़ धीरे-धीरे छंटने लगी. लोग दौड़ते-धूपते न$जर आने लगे. शौक साहब ने अपने ऐलान में पांच दिन की मोहलत दी थी कि इस दौरान वे यह विचार करेंगे कि थूकने का कार्यक्रम आगे भी चलाया जाए या बंद कर दिया जाए. उनकी इस धौंस ने हर आदमी को चुस्त और बेचैन कर दिया था.
देखते-देखते गली सूनी हो गई।
क्रमशा

Tuesday, August 18, 2009

सदी का सबसे बड़ा आदमी- 3

- काशीनाथ सिंह
.......और फिर घंटों जो लड़ाई चली, उसका अब तक कोई सानी नहीं है। उसका वर्णन वही कर सकता है, जिसकी जबान में बिजली की चमक, बादलों की गरज और मूसलाधार बारिश को जज्ब करने की ताकत हो। देखते-देखते खिड़की से न$जर आने वाली सारी सड़क और दीवारें लाल होनी शुरू हो गईं। इस दौरान नौजवान उछलता रहा, कूदता रहा, नाचता रहा और गिरता-भहराता रहा। उसके कपड़े तार-तार हुए, कुहनी और घुटने फूटे, सीने पर खरोंच आईं, मुड्ढों और कंधों में मोच आई, छाती धौंकनी की तरह चलती रही, पसलियां बाहर झांकने लगीं, लेकिन उसके बदन पर एक भी छींटा नहीं पड़ा।

इसे शौक साहब के प्रति हमदर्दी कहिए या अपना लालच, भीड़ ने भी उसके साथ कोई मुरौव्वत नहीं दिखाई। उल्टे वह उसका मजाक उड़ाती रही, उस पर व्यंग्य कसती रही, बीच-बीच में कंकड़ और लकडिय़ों के टुकड़े तक फेंकती रही, लेकिन उसे डिगा न सकी.छोकरे, मेरे से तू कोई चाल तो नहीं चल रहा है? अंत में थककर खिड़की के पल्ले से अपना गाल सटाए हुए शौक साहब ने पूछा. पसीने से तर-बतर नौजवान ने सिर उठाया, कैसी चाल?घिनौनी चाल! यानी कि जादू टोना.नौजवान लंबी-लंबी सांसें लेता हुआ ताकता रहा.फिर मुझे क्यों लगता है कि तेरी गर्दन लंबी होकर खिड़की के सामने आ रही है, तेरी आंखें मेरी आंखें में घुसी आ रही हैं, मेरी पीक ऊपर ही ऊपर उड़ जा रही है. तू जहां खड़ा है, वहां न$जर नहीं आ रहा है.चाल वह चले साहब, जो अपनी मां से घात करे. नौजवान हांफते हुए बोला. शाब्बास बहादुर तो तैयार हो जा.दोपहर बाद भीड़ ने गौर किया कि शौक साहब और छोकरा दोनों बगैर खाए-पिए-सोए पस्त पड़ चुके हैं. छोकरे से न ठीक खड़ा हुआ जाता है, न उछला जाता है, न चला जाता है. इसी तरह शौक साहब के निशाने में न पहले जैसी धार है, न ताकत, न सधापन. कभी-कभी तो वह खिड़की से गर्दन बाहर करते और पीक उनके खुले मुंह से बहकर ठोढ़ी से होती हुई बूंद-बूंद करके टपकने लगती. ऐसी भी हालत आती, जब मुंह खुला रहता और कुछ भी न गिरता.

शाम तक तो ऐसा हुआ कि न खिड़की से पीक गिरी और न नौजवान खड़ा रह सका। वह बाईं तरफ झुका-झुका कुछ देर तक झूलता रहा, फिर लुढ़का और पेट के बल ढेर हो गया. फिर किसी तरह बड़ी मशक्कत के बाद चित्त हो सका. उसने चीभ की नोक से अपने होंठ तर किए, धीरे-धीरे पलके खोलीं, और इधर-उधर कुछ देखने की कोशिश की. अंत में उसकी आंखों ने खिड़की ढूंढ ली और वहीं टिक गईं.फिर भी सबका ख्याल था कि अगर ऊपर से पीक की एक भी बूंद गिरी, तो करवट बदलने की बात तो छोडि़ए, इसमें हिलने-डुलने तक की ताकत नहीं रह गई है.

लोग तनाव और उत्सुकता से भरे हुए थे, लेकिन मौसम खुशगवार और उत्तेजक था। ठीक वैसा ही, जैसा होना चाहिए. दिन की धूप अंग-अंग को गर्मा चुकी थी और शाम की ठंड नस-नस में नींद और चैन का नशा घोले जा रही थी. नदी की ओर से आने वाली बसंत की हवा पकड़ी के बचे-खुचे पत्तों से छेड़छाड़ करती और फिर खिड़की से घुसकर शौक साहब के सफेद बालों को सहला जाती.नीले और खुले आसमान में पहले बड़ी देर तक केवल एक तारा टिमटिमाता रहा, लेकिन जैसे-जैसे अंधेरा घना होता गया, सारा नीलापन सफेद कांपते तारों से भरने लगा.लोग टकटकी लगाए खड़े रहे कि देखें, इस कत्ल की रात में क्या होता है, बूंद कब गिरती है.इसी बूंद का इंत$जार करते-करते और होते-हवाते सुबह हुई तो चारों तरफ एक सनसनी और दहशत फैल रही थी.

नौजवान वहां नहीं था, जहां पड़ा था। वह इधर-उधर भी कहीं नहीं था. भोर में थोड़ी देर के लिए लोगों को झपकी आई और उसने मौके का फायदा उठा लिया. जितने मुंह, उतनी बातें. किसी ने अंधेरे में निहुरे-निहुरे उसे भागते देखा था, तो किसी ने कुछ लोगों द्वारा उसे भगाए जाते हुए. शौक साहब के आदमी भी संदेह से बरी नहीं थे, लेकिन यह भी था कि उनके लिए उसकी औकात मक्खी से ज्यादा नहीं थी. जो काम कभी भी हो सकता था, उसके लिए चोरी की क्या $जरूरत?लोगों ने शौक साहब से बहुत कहा. उनके अपने लोगों ने भी और भीड़ ने भी कि हुजूर के आगे एक लौंंडे की क्या बिसात? वह क्या खाकर टिकता? यह क्या कम है कि इतने दिन डटा रह गया? लिहाजा, उसकी चिंता छोडें़ और दुनिया को देखें, उसके दुख-दर्द तकलीफ को सुनें लेकिन उन पर बातों का कोई असर नहीं पड़ रहा था. वे खिड़की के पास उदास और गुमसुम बैठे हुए थे. न कुछ खा-पी रहे थे और न बोल-बतिया रहे थे. उन्होंने दिशाओं में अपने हाथी, घोड़े और बग्घी दौड़ा रखे थे. कभी-कभी तो उनकी गर्दन खिड़की से बाहर आती और वे इस इत्मीनान के लिए नीचे झांकते कि नौजवान सचमुच गायब है या उनके साथ मजाक किया जा रहा है.यह ऐलान करते हुए उनकी आंखों में आंसू थे और वे आंसू गालों पर ढुलक-ढुलक आ रहे थे कि वे तब तक किसी पर नहीं थूकेंगे, जब तक जुर्म करने वाला-उसे भगाने वाला खुद सामने आकर कबूल नहीं करता.
- क्रमश:

Monday, August 17, 2009

सदी का सबसे बड़ा आदमी-2

- काशीनाथ सिंह
ऐसे लोग जिनकी तादाद बेहिसाब थी-खिड़की के नीचे मेला जैसा हुए घूमते-घामते रहते और एक-दूसरे से जानना चाहते कि उन्हें भला गालियों से इतनी मुहब्बत क्यों है? उनके भव्य और दिव्य चेहरे पर बुर्राक मूंछें कितनी फबती हैं? हमारी इतनी मिन्नत के बावजूद सरकार दर्शन देने कभी नीचे क्यों नहीं उतरते? क्या वे सचमुच चलने-फिरने लायक नहीं हैं?

कोई तो मिलता, जिसने उन्हें खिड़की के सिवा भी कहीं देखा होता? लेकिन यह पक्का जान लो कि इतना रोबीला और खुर्राट मर्द कहीं ढूंढे न मिलेगा। जरा घनघनाती बुलंद आवाज तो सुनो, ऐ साले, हरामखोर, चिरकुट! मगर लोगों के न चाहते हुए भी, जब शौक साहब की निशानेबाजी अपने शबाब पर थी, वह दिन आ गया जिसे कभी नहीं आना चाहिए था और जिसके बारे में किसी ने सोचा तक न था। एक मरियल सा सींकिया नौजवान, जो महीनों से गली में आ रहा था और कुर्ता और धोती लेते लोगों को देखा करता था। एक रोज एक घिनौनी हरकत कर बैठा। उसने ऐसे शख्श को, जिस पर पान की पीक बस गिरने-गिरने को थी, जाने किधर से दौड़कर धक्का मार दिया, वह आदमी लुढ़कता हुआ दूर जा गिरा और पीक मोरी के पानी में छपाक करके रह गई। उस वक्त भीड़ ने उसे सिर्फ बेइज्जत करके छोड़ दिया। लेकिन उसी नौजवान ने, जब यही हरकत अगले दिन भी की और किसी दूसरे आदमी के साथ, तो भीड़ का गुस्सा बढ़ गया. वह बर्दाश्त न कर सकी. उसने उसे दस पांच हाथ मारे और समझाया कि सब्र से काम लो, इतने लोग महीनों से लटके हुए हैं, मगर अब तक बारी नहीं आई और तू आनन-फानन में हथिया लेना चाहता है. उसने जैसे ही कुछ बोलने की कोशिश की कि भीड़ दोबारा उस पर टूट पड़ी.

छोड़ दो उसे। खिड़की से शौक साहब ने ललकार कर कहा, पहले इसी हरामजादे को कुर्ता धोती ले जाने दे! ...चल बे सामने आ.जब सामने आया...तो शौक साहब ने उसका पूरा-पूरा जायजा लिया. उसकी कद काठी का, हाथ-पांव का. सब कुछ ठीक-ठाक था. उमर का अंदा$जा नहीं लग पा रहा था, क्योंकि मूंछें तो पूरी तरह आ गई थीं, लेकिन दाढ़ी के बाल सिर्फ ठोढ़ी पर ही थे. चपटी और गांठ जैसी नाक के बावजूद वह आकर्षक था. जरा सी खटकने वाली बात महज यह थी कि उसकी आंखें ठंडी थीं, उनमें किसी तरह की भूख या लालच नहीं थी.अगर उसके कपड़े गंदे होते तो शौक साहब ने उसे भगा दिया होग, क्योंकि चिथड़े और मटमैले कपड़ों पर थूकने से उन्हें घिन आती थी और लोग इसे जानते भी थे.

हां, तो आ सामने। उन्होंने आसन बदला।और फिर उन्होंने उसे नचाना शुरू कर दिया। भीड़ ने यही देखा कि शौक साहब उसे नचा-नचाकर मार रहे हैं। उधर थूक ही नहीं रहे हैं, जिधर वह उछलकर खड़ा हो रहा है। अगर वे उसे कपड़े देना चाहते, तो जाने कब थूककर विदा कर दिया होता, लेकिन वे अभी बच्चू को पढ़ा रहे हैं, हां चल वे।शौक साहब को म$जा आ गया। एक मुद्दत लंबे इंत$जार के बाद उन्हें कोई मर्द का बच्चा मिला था, जिसने अपनी चुस्ती और चालाकी से उनकी निशानेबाजी को चुनौती दी थी।

शाम के वक्त जब नौजवान ने अपने कपड़े ठीक किए, माथे का पसीना पोंछा और हांफते हुए खिड़की की ओर अपना सिर उठाया, तो उसके छरहरे बदन का जायजा लेते हुए शौक साहब ने ऐलान किया, देख, मर्द की जबान एक। न इस खिड़की से मैं हटूंगा और न सड़क से तू. चाहे रात हो, चाहे दिन. न कोई खाएगा, न पियेगा, न आराम करेगा. अगर अब सिवा मेरे घोड़ों में जो तुझे पसंद आए, ले जा. उसे तांगे में जोत, चाहे बेंच खा. जैसी तेरी मर्जी.भीड़ ने जय-जयकार किया और कहा कि सरकार इस बददिमाग लौंडे पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो रहे हैं.मुझे कुछ नहीं चाहिए. नौजवान ने पांव बदलकर खड़े होते हुए कहा.अच्छा तो यह मजाल. शौक साहब ने निशाना साधा.पहली बार गली में दरवाजे, खिड़की, छत, बारजे, पेड़ पर बैठे या खड़े सारे आलम ने पहली बार इस सवाल-जवाब से महसूस किया कि यह कोई खेल-तमाशा नहीं, कुछ दूसरी ही बात है, क्योंकि यह लौंडा न गालियां दे रहा है, न रो रहा है, सिर्फ अपना बचाव कर रहा है, जबकि सरकार सचमुच ईमानदारी से सच्चे दिल से उस पर थूकना चाहते हैं. फिर भी उसे यह खल रहा था कि इस ससुरे को कपड़े-लत्ते और अब तो घोड़ा भी लेकर किनारे होना चाहिए और दूसरों को मौका देना चाहिए. इतने लोग अपना काम-धंधा छोड़कर इतनी देर से, इतने दिन से खड़े हैं, कुछ तो सोचना चाहिए.नौजवान कायदे से पीक के दायरे में ही था. उसके बाहर नहीं और इजाजत भी यही थी, तय हुआ था कि थूके जाने के वक्त बाहर से कोई भी इशारा नहीं करेगा और इसका भी सख्ती से पालन हो रहा था. शौक साहब उसके गाफिल होने या झपकी लेने या थकने का इंत$जार करते और औचक हमला बोल देते.

नौजवान का पूर्वानुमान अद्भाुत था. वह बाएं या दाएं घूमते-घूमते उछलकर आगे या पीछे खड़ा हो जाता. कभी-कभी तो बेमतलब घंटे भर पीक की प्रतीक्षा करनी पड़ती, लेकिन मौके के समय सहसा झुककर या उछलकर अपने चौकन्नेपन का सबूत दे देता.यह सारा कुछ जितना उबाऊ और बोर था, उतना ही तनावपूर्ण भी, लेकिन वाह रे शौक साहब! वे ऊपर अपनी खिड़की के पास, बैठे-बैठे खा भी सकते थे, पी भी सकते थे. सो भी सकते थे. नीचे से कौन देखता है? और देखना भी चाहे तो किसे दिखाई पड़ेगा? लेकिन नहीं, नियम तो नियम राजा हो या रंक, वे सुस्त पडऩे लगे और इधर सुबह होने लगी. छोकरे! उन्होंने सूरज उगते-उगते अगला ऐलान किया, हालांकि आवाज थोड़ी मद्धिम और कमजोर थी. मैं तेरी हिम्मत और दिलेरी से खुश हूं. चाहता तो यही था कि तू राजी खुशी अपने घर जा, बीवी बच्चों से, मां-बाप से मिल. उन्हें घोड़ा दिखा, उनके साथ जश्न मना, लेकिन लगता है, तुझे मंजूर नहीं. अच्छा जा, अगर आज भी बच गया तो नौलखा हाथी तेरा. फीलवानी कर, चाहे बेचकर अपनी और अपनी दस पीढिय़ों की किस्मत बना.नौजवान लड़खड़ा रहा था, जैसे होश में न हो. उसने अपनी बेकाबू होती जुबान में कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए.फिर साले, किसलिए मर रहा है? भीड़ गालियां देती हुई उसे पीटने के लिए लपकी, लेकिन पहले से ही उसके सिर पर उसकी रक्षा में शौक साहब के नौकरों-चौकरों की तनी हुई लाठियां देखीं, तो आश्वस्त होकर अपनी जगह खड़ी हो गई.खबरदार, शौक साहब ने ऊपर डपटकर सबको हटाया और खिड़की से होठों को बंदूक की नली बनाकर सधी हुई पीक मारी.नौजवान उछला, खड़ा होते-होते गिरा, मगर बच गया.शौक साहब झुंझला उठे. उनका चेहरा तमतमा उठा. नथुने फड़कने लगे. उनका गोरा-चिट्टा रंग तांबे जैसा हो गया. हमेशा मुस्कुराते रहने वाले दयालु सरकार का यह भयानक रूप किसी ने देखा नहीं था. इसके बाद ही उन्होंने अविराम निर्णायक युद्ध की घोषणा कर दी.
क्रमश:

Sunday, August 16, 2009

सदी का सबसे बड़ा आदमी


काशीनाथ सिंह
लड़ाइयां ढेर सारी लड़ी गईं वीरों की इस धरती पर और धरती पर ही क्यों, पानी पर भी और आसमान में भी, यहां तक कि घर-घर में. चाहे वह राजपूतों का जमाना रहा हो, चाहे मुगलों का, चाहे अंग्रेजों का, लेकिन गली में लड़ाई केवल एक लड़ी गई है और वह भी इस नगर में, यह उसी लड़ाई की दास्तान है।
देश को आजाद हुए, मुश्किल से चार-पांच साल हुई थे, उन्हीं दिनों इस गली में कोई खानदानी रईस रहते थे, जिनका नाम राणा से शुरू होता था और चंदेल पर जाकर खत्म होता था. इतने लंबे नाम से उन्हें कोई नहीं जानता था, लोग जानते थे उनके तखल्लुस शौक से. उन्हें इस बात का बखूबी इल्म था कि उर्दू के जितने भी बड़े-बड़े शायर वगैरह हुए हैं, ज्यादातर के तखल्लुस दो हर्फों के रहे हैं-मसलन मीर, सौदा, जौक, जोश, वगैरह. इसी की देखादेखी जब उन्होंने शायरी शुरू की थी तो अपना नाम शौक रखा था और यह नाम और कहीं चला हो या न चला हो, कोठे पर खूब चला. लेकिन जब उम्र के साथ-साथ यह शौक छूटा तो उन पर ऐसा शौक चढ़ा जिसने उनकी शोहरत देश के कोने-कोने तक फैलाई. जिसे देखो, वही उसी गली की तरफ चला जा रहा है, जिधर शौक साहब का गरीबखाना है।
शौक साहब चार मरातिम वाली अपनी कोठी में तीसरी अंटारी की उस खिड़की के पास बैठे रहते थे, जो गली की तरफ खुलती थी. उनके पास सारा कुछ था लेकिन सब उनके लेखे माटी के मोल था. हाथी था, लेकिन चढ़ते नहीं थे. घोड़े थे लेकिन दौड़ाते नहीं. बग्घी और कार भी थी, लेकिन हुआ करे. यह सारा कुछ इसलिए था कि रईस कि पास होना चाहिए. ये सब कोठी के पिछवाड़े वाले बगीचे में, जहां नौकरों-चाकरों के लिए दड़बे बने हुए थे, पड़े-पड़े चिंग्घाड़ा या हिनहिनाया करते थे. कहीं दूर देहात में उनके सैकड़ों एकड़ के फार्म भी थे, जिनमें अच्छी पैदावार होती थी, लेकिन शौक साहब को इन सबसे नहीं, सिर्फ पान, कत्था, सुपारी और चूने से मतलब था.शौक साहब जिस खिड़की के पास बैठते थे, उसके बगल में चांदी की पन्नियों में लिपटी पान की गिलौरियों से एक तश्तरी सजी रहती, जिसमें महंगी से महंगी खुशबूदारी जर्दे की डिब्बियां पड़ी रहतीं. वे मूड के मुताबिक गिलौरी और तंबाकू मुंह में डालते, देर तक तबियत से घुलाते और ताक-तूककर खिड़की के बाहर गली में थूक मारते.जब भी उनकी पीक खिड़की के बाहर आती, किसी न किसी के सिर और कपड़ों पर पड़ती. इतिहास बताता है कि मुंह का ऐसा सटीक निशानेबाज इस नगर में कभी नहीं हुआ. कहने वाले तो कहते हैं कि कभी-कभी लोग उनके अचूक निशाने का इम्तिहान लेने के लिए नीचे से इकन्नी या अधन्नी उछालते थे, लेकिन जब वह टनटनाती हुई सड़क पर गिरती थी, तो पीक में भीगी न$जर आती थी.तो जिस आदमी के कपड़े-कुरता और धोती लाल होते, उस पर होने वाली प्रतिक्रिया शौक साहब बड़े गौर से देखते क्या वह बाएं-दाएं ताककर चुपचाप निकल जाना चाहता है? क्या वह खिड़की की ओर सिर उठाता है, भुनभुनाता या उन्हें कोसता है? और अंत में कपड़े झाड़कर चल देता है? ऐसे शरीफ और कायर किस्म के आदमियों से उन्हें घिन आती और बची-खुची पीक की सिट्टी पीकदान में थूक देते. उन्हें ऐसे बहादुरों की तलाश रहती, जो कपड़े खराब होते ही मां-बहन की धुआंधार गालियां बकना शुरू करें, उछलें-कूदें, आसमान सिर पर उठा लें, रो-रोकर मोहल्ले और राह चलतों को अपना इर्द-गिर्द जुटा लें, फिर बिलखें-बिलबिलाएं और दया की भीख मांगते हुए, इंसाफ का वास्ता देते हुए बताएं कि अब वे क्या पहनेंगे, उनका क्या होगा?ऐन इसी वक्त, जब वे माथा पीट-पीटकर ऊपरवाले की गालियां दे रहे होते, उसी कोठी से दो नौकर निकलते और आदर के साथ उस ऊपर ले जाते, उसे चंदन के साबुन से मल-मलकर नहलाया जाता, नया कुरता और नई धोरी पहनाई जाती, इत्र से शरीर को सुवासित किया जाता, अच्छा से अच्छा खाना खिलाया जाता और अंत में उसे हाथी या घोड़े पर जो उसके लिए सपना होते-बिठाकर गली के नुक्कड़ तक विदा कर दिया जाता.ऐसे मेहमानों को पाकर नाम गांव-नगर के बाहर दूर-दूर तक पहुंचने लगा. लोग हर जगह चर्चा करते कि गरीब निवाज की एक कोठरी धोतियों से भरी हुई है और दूसरी अद्धी और तांजेब के कुरतों से. बरामदे में बराबर दो-तीन दर्जी सिलाई का काम करते रहते हैं।
इन खबरों का अंजाम यह हुआ कि लोग तरह-तरह की गालियां सीखते, रोने-कलपने की आदत डालते और फिर गली का चक्कर लगाना शुरू कर देते. पता नहीं, कब सरकार का मन बन जाए और थूक बैठें.लिहाजा अपने पर थुकवाने वालों की जो भीड़ बढऩी शुरू हुई, उसका कोई अंत नहीं था.लेकिन साहब, तारीफ कीजिए शौक साहब की, पीक की तरह उनकी नजर भी अचूक थी. आप दो चार दिन तो क्या महीनों तक उस गली में टहला कीजिए वे आप पर नहीं नहीं थूकेंगे, सो नहीं थूकेंगे. वे उस आदमी को उसकी चाल से पहचान लेते हैं-एसी काबिलियत किस शख्स में है? कौन गालियां देते-देते रो सकता है? यही नहीं, कोई लाख अनजान बनकर खिड़की को अनदेखा करते हुए नीचे से गुजरने की कोशिश करे, वे समझ जाते कि अभी कितने रोज या हफ्ते या महीने पहले यह कम्बख्त सुअर, अपने पर थुंकवा चुका है? कभी-कभी तो, जब बर्दाश्त के बाहर हो जाता, झल्लाकर बोल भी पड़ते, अबे हरामखोर, अभी महीना भी नहीं बीता कि फिर आ पहुंचा? या तैं कैसे आ गया रे? मैंने क्या कहा था? तेरे को ठीक से गालियां भी नहीं आतीं? आ गईं क्या? या अरे, यह कौन है चिथडू का बाप, ससुर नहीं तो! मैंने कोई ठेका लिया है तेरे घर-भर का. भाग यहां से.कुछ दिन तक तो कई ऐसे लोग भी जो कभी घरानेदार थे, लेकिन वक्त की मार से खस्ताहाल हो रहे थे, पगड़ी के नीचे अपना चेहरा छिपाए और सिर झुकाए उसी गली से गुजरते और पीक की उम्मीद में खिड़की के नीचे पहुंचते ही अपनी चाल धीमी कर देते. शौक साहब की पकड़ में आ जाते और वे बेमुरौव्वत होकर टोक देते, क्यों मुझे नरक में ठेल रहे हो महाराज. मैं तो ऐसे भी कुरता धोती दे देता. लेकिन क्या करूं अपने कौल से हारा हूं. या बस करो बाबू साहब. गालियां तो दे लोगे मगर रो कैसे पाओगे? आदत तो डाली नहीं. और खामखाह ऊपर से मुझे बदनाम करोगे कि शौक अपनी ही जात पर थूंकता है.इस तरह शौक साहब ने जनता को अहसास करा दिया कि उनकी पीक के सच्चे हकदार कौन हैं?
क्रमश...

Friday, August 14, 2009

काशी कक्का की कहानियां

बचपन की यादों में बाकी स्मृतियों की तरह एक स्मृति जो जमकर बैठी है वो है अलाव. मुझे रात का खाना खाने की जल्दी सिर्फ इसलिए होती थी कि खाने के बाद अलाव का माहौल बनता था. अलाव के इर्द-गिर्द लोगों का जमावड़ा. शुरुआत कुछ गप्पबाजी से होती लेकिन हम बच्चों के इसरार के आगे जल्दी ही बड़े लोग झुक जाते और उनकी गाड़ी कहानियों के ट्रैक पर लौट आती. रोज एक से एक कहानियां. ऐसा रोचक संसार, ऐसी-ऐसी फैंटेसी कि ठंड की वे लंबी रातें न जाने कब बीततीं, पता भी न चलता. डांटे कौन, डांटने वाले खुद कहानियों के संसार में गोते लगा रहे होते थे. कई बार नींद हमें उड़ा ले जाती और हमारी कहानियां अधूरी रह जातीं. सुबह उठते ही हम घूम-घूमकर उन लोगों का सर खाते जो रात में अलाव पर थे. उसके बाद क्या हुआ...राक्षस ने क्या किया...क्या राजा मर गया...राजकुमारी ने अपनी जान कैसे बचाई...वगैरह.

आज बचपन का वही मंजर जैसे फिर से लौट आया था. मौका था काशीनाथ सिंह और अखिलेश की कहानियों के पाठ का. यूं कभी-कभार कहानी पाठ सुने हैं मैंने लेकिन आज माहौल बड़ा अपना-अपना सा लगा. हालांकि अलाव कहीं नहीं था. न उसके आसपास चाचा, ताऊ, बाबा, दादा थे. फिर भी न जाने क्यों कहानियां, उनके कहे जाने का ढंग और सैकड़ों की संख्या में वाल्मीकि रंगशाला के एयरकंडीशंड हॉल में बैठे लोग वैसे ही लग रहे थे. उनकी तन्मयता भी वैसी ही थी. बीच-बीच में हुंकार जरूर नहीं लग रही थी. लेकिन कहानियों के मूड के साथ आते लोगों के रिएक्शंस हुंकार से ही लग रहे थे. मुझे याद है कि जब नाना कहानी सुनाते थे और कोई हुंकार न लगाये तो वो बहुत नारा$ज हो जाते थे. आज वो हुंकारे भी याद आ रहे थे.

इस अपने से माहौल में जिसे साझी दुनिया ने रचा था कहानियों का रंग जमना ला$िजमी थी. कुछ कहानियों की मजबूती और कुछ उनके कहे जाने का ढंग पूरे माहौल को खुशनुमा बना रहे था. अखिलेश की कहानी अंधेरा में सांप्रदायिक दंगों के बीच प्रेम को बचाने की कोशिश का चित्रण था. धर्म कई बार सर उठाता और कई बार किनारे पड़ा न$जर आता है. सांप्रदायिक ताकतों से प्रेम को बचाने की कोशिश करते युवक की बेबसी कई सारे सवाल छोड़ती है. कहानी में कथ्य के साथ बिम्ब और रूपकों का सुंदर चित्रण है. काशीनाथ जी ने इस मौके पर दो कहानियां पढ़ीं. पहली कहानी बांस और दूसरी इस सदी का सबसे बड़ा आदमी. इन दोनों कहानियों को भी वहां बैठे लोगों ने मंत्रमुग्ध कर लिया. इस सदी का सबसे बड़ा आदमी ने जहां पूरे माहौल को बेहद हल्का-फुल्का बनाते हुए किस्सागोई का पूरा लुत्फ दिया वहीं समाज के विद्रूप चेहरे को बेनकाब भी किया.

इस कहानी पाठ का असर है या कहानियों को सहेज लेने का लालच कि काशी जी से उनकी किताब मांगने को लोभ संवरण कर पाना मुश्किल ही था. अपनी चिर परिचित सहजता और स्नेह के साथ उन्होंने किताब सौंपी तो तसल्ली हुई. उनकी कहानी इस सदी का सबसे बड़ा आदमी अगली पोस्ट में यहीं दिखेगी.
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामना!

Saturday, August 8, 2009

फासले- मारीना त्स्वेतायेवा


फासले..., कोसों, मीलों लम्बे...
हमें अलग किया गया,
भेजा गया बहुत दूर
ताकि चुपचाप जीते चले जाएं हम
पृथ्वी के दो अलग-अलग हिस्सों में।
फासले..., कोसों, मीलों लम्बे...
उखाड़ा गया हमें,
पटका गया इधर-उधर
बांधे गये हाथ,
ठोंकी उन पर कीलें
पर मालूम नहीं था उन्हें
अंत:करण और धड़कती नसों का...
किस तरह होता है मिलन...

(अनुवाद: डा: वरयाम सिंह)

Thursday, August 6, 2009

रात भर

रात भर एक ख्याल सुलगता रहा
रात भर एक रिश्ता आंखों में पलता रहा
रात भर मन मोम सा पिघलता रहा
और रात पूरी उम्र में ढलती रही...

Sunday, August 2, 2009

जन्मदिन हमारा शुक्रिया आपका !

किसी रोज बातों-बातों में यूं ही कहा था कि काश कोई ऐसी दुनिया होती जहां सुंदर कविताएं, संगीत, प्यारी बातें, सारे मौसम, पूर्णमाशियां सारी, समंदर, पंक्षी, ढेर सारी आजादी और वो सब कुछ हो जो मुझे पसंद हो. जहां कोई नियम नहीं, कोई रोक-टोक नहीं. क्या होता भला उस दुनिया का नाम बूझो तो?
प्रतिभा की दुनिया और क्या. वह छोटा सा संवाद ब्लॉग बन गया. कुछ दोस्तों ने एक सुंदर सा ब्लॉग प्रतिभा दुनिया के नाम से बनाकर तोहफे में दिया. इस तरह प्रतिभा की दुनिया बन गई. फिर सवाल कि इस दुनिया में हो क्या? क्योंकि इस पर कोई योजनाबद्ध ढंग से काम तो हुआ नहीं था. और क्यों भला मैं अपनी दुनिया सार्वजनिक करूं. क्यों बताऊं लोगों कि मुझे फलां कविता बहुत प्रिय है. मैं बता भी दूं तो भला कोई क्यों सुने मुझे. इन्हीं सब उहापोह के बीच यह सफर शुरू हुआ. लेकिन दोस्तों ने ब्लॉग बनाने तक ही साथ नहीं निभाया लिखवा लेने का भी जिम्मा उठाया. जिस दिन पोस्ट न डालूं फोन आ जाते, मेल आने लगतीं कुछ तो लिखिये. साथियों ने हौसला दिया तो वरिष्ठजनों ने रास्ता दिखाया, बताया कि यह तुम्हारी दुनिया है इसके प्रति उदासीनता ठीक नहीं है. धीरे-धीरे ब्लॉग की दुनिया के नये दोस्त भी उत्साहवद्र्धन में शामिल होने लगे. हैरत होती मुझे कि किसी के लिखे का कोई इंत$जार भी कर सकता है. मुझे अपने लिखे को लेकर कोई मुगालता, कभी नहीं रहा. मुझे खुद पर यकीन रहा हो, न रहा हो लेकिन दोस्तों ने, गुरुजनों ने यह यकीन कभी नहीं छोड़ा. उनका यकीन ही मेरा लेखन है. आज मुड़कर देखती हूं तो पाती हूं कि पूरे एक साल से यह दुनिया बाकायदा आबाद है. कोई आंधी नहीं, कोई तूफान नहीं, कोई रुकावट नहीं. ढेर सारे साथी फॉलोअर्स के रूप में जुड़े हैं और टिप्पणीकर्ताओं के रूप में भी. आज प्रतिभा की दुनिया के जन्मदिन के मौके पर उन सबके प्रति आभार जिन्होंने हर मौके पर मेरा उत्साह बढ़ाया, लिखने के सिलसिले को रुकने नहीं दिया और मुझमें विश्वास बनाये रखा. उनका यह विश्वास ही मेरी ताकत है.